सत्य को स्वार्थी नहीं होना चाहियें। Rudra S. Sharma द्वारा पत्र में हिंदी पीडीएफ

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सत्य को स्वार्थी नहीं होना चाहियें।

लेखक और लेखन के संबंध में।

मेरी अभिव्यक्ति केवल मेरे लियें हैं यानी मेरी जितनी समझ के स्तर के लियें और यह मेरे अतिरिक्त उनके लियें भी हो सकती हैं जो मुझ जितनी समझ वाले स्तर पर हों अतः यदि जो भी मुझें पढ़ रहा हैं वह मेरी अभिव्यक्ति को अपने अनुभव के आधार पर समझ पा रहा हैं तो ही मुझें पढ़े क्योंकि समझ के आधार पर मेरी ही तरह होने से वह मेरे यानी उसके ही समान हैं जिसके लियें मेरी अभिव्यक्ति हैं और यदि अपनें अनुभवों के आधार पर नहीं समझ पा रहा अर्थात् उसे वह अनुभव ही नहीं हैं जिनके आधार पर मैं व्यक्त कर रहा हूँ तो वह मेरे जितने समझ के स्तर पर नहीं हैं, मेरे यानी उसके जितनें समझ के स्तर पर जिसके लियें मेरी यह अभिव्यक्ति थी है और अनुकूल रहा तो भविष्य में भी रहेगी। मेरी अभिव्यक्ति के शब्द मेरी उंगलियाँ हैं जो मेरे उन अनुभवों की ओर इशारा कर रही हैं जिन अनुभवों के आधार पर मैं अभिव्यक्ति करता हूँ यदि पढ़ने वाले के पास या सुनने वालें के पास वह अनुभव ही नहीं हैं या उनकी पहचान ही नहीं हैं तो जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं तो वह खुद के अनुभवों से तुलना नहीं कर पायेगा जिनकी ओर मैंने इशारा किया हैं जिससें मेरी अभिव्यक्ति उसकी समझ से परें होगी नहीं तो फिर वह अनुभवों का ज्ञान नहीं होने से जिनके आधार पर अभिव्यक्ति हैं वह उसके किन्ही अन्य अनुभव से तुलना कर वह ही समझ लेगा जिनकी ओर मैं इशारा ही नहीं कर रहा यानी मुझें गलत समझ लेगा।

सत्य को स्वार्थी नहीं होना चाहियें।

केवल चेतना का निराकारता को ही महत्व देना सत्य कहूँ तो, यह सूक्ष्म अर्थात् यथा अर्थों में स्वयं के अस्तित्व के आधें भाग के महत्व से वंचितता का परिणाम स्पष्ट प्रतीत होता हैं। सुख की चाहत और दुःख से दूर जानें का अधीरता के फलस्वरूप बेचैनी के कारण प्रबंध। हमारी समझ में सुख तथा दुःख दोनों समान हैं; जो इनसे पृथक वास्तविकता हैं वह सुख तथा दुःख दोनों के महत्व से भिग्यता के परिणाम से हैं।

कहने का अर्थ यह कि मेरी समझ में ऐसी चेतना को हमारें पूर्ण अस्तित्व के आधे अंश या अर्धायामि वास्तविकता से ही साक्षात्कार हैं, यही कारण हैं उसके अन्य पहेलु अर्थात् हमारी वास्तविकता के आधे भाग के महत्व पर ध्यान नहीं हैं।

खैर! यह मेरी समझ में हैं, जो समझा यानी जैसा जाना वैसा ही उसे व्यक्त करना उचित समझा। यह उचित हैं या अनुचित इसका चयन आप स्वयं कीजिए; जो आपके अनुसार अनुकूल हों सब ही प्राथमिकता दें पर हाँ! यथावत्ता का पूर्ण आश्वासन हैं।

मेरी समझ में हमारी खोज हमारें वास्तविक सत्य की खोज हैं।

क्या हमारी वास्तविकता निराकार ही हैं या क्या निराकार के साथ निराकार की अभिव्यक्ति आकार भी नहीं?

मेरी समझ में जीव को केवल आकार को नियंत्रण में रखना चाहियें उसके नियंत्रण से मुक्त होकर क्योंकि हमारी वास्तविकता के आधे अंश यानी आकार का निराकार पर नियंत्रण रहा तो वह केवल आकार को ही महत्व देगा पर यदि निराकार का आकार पर नियंत्रण रहा तो वह शून्य के साथ हर संबंधित आकार को महत्व दें सकता हैं।

यही मेरे अनुभव में अनुकूल हैं; इसी कारण सही में जो ब्रह्म हैं वह ब्रह्म न ही केवल निराकार हैं और न ही केवल साकार वरन वही सही ब्रह्म हैं जो निराकार होने के साथ ही साकार भी हैं।

आकार मतलब माया निराकार यानी चेतना को अधीन करने पर उसके प्रभाव को महत्व नहीं देती वरन चेतना पर ही अपना पूर्ण प्रभाव चाहती हैं।

तो चेतना माया को अपने अधीन करनें पर भी यदि केवल अपना ही प्रभाव उस पर चाहें और आकार के प्रभाव को पूरी तरह मिटाकर उसे प्रभाव हीन करनें की चाह रखें तो जिस कारण से आकार का नियंत्रण कर्ता होना अनुचित था क्योंकि वह अपने को ही या अपने स्वार्थ को ही महत्व देता था उसी भांति निराकार का नियंत्रण कर्ता होना अनुचित्ता नहीं होगी यदि वह भी केवल स्वयं को ही यानी अपने स्वार्थ को ही महत्व दें?

मैं उचित ही हूँ यह मैं नहीं कहता, बस जो जैसा जानता या अनुभव करता हूँ उसे ही प्राथमिकता देता उचित समझता हूँ क्योंकि दूसरों के अनुभव को बिना स्वयं अनुभव करें प्राथमिकता देना ठीक ऐसा समझ आता हैं जैसे जो स्वयं प्राप्त किया उसे छोड़ उधार को अपना समझना।

मेरा हर निराकारता को ही महत्वपूर्ण समझनें वाली चेतना से निवेदन हैं कि आप भी जब तक आपको भी कोई भी ऐसा अनुभव नहीं हों जिनके संबंध में मैं कह रहा हूँ उन्हें अनुकूल बिल्कुल भी न समझें पर हाँ! मैंने जो जाना यही जाना; इसमें यथावत्ता हैं तो अनुचित भी नहीं समझना मतलब अपनी सत्य की कसौटी पर सदैव जांचते रहें। सही आप हो या मैं किसी को भी जो सही अर्थों का सत्य हैं उससे समझौता नहीं करना पड़ेगा। वही परम् सत्य जो आपकी और मेरी दोनों की पहली प्राथमिकता हैं।

यदि आपके मन में प्रश्न हैं निराकार में स्वार्थ कैसा? निराकार व्यापक अर्थात सर्वत्र पहुँच का होना है तो सत्य!नहीं हैं स्वार्थ पर माया से यदि वह स्वयं को पूरी तरह पृथक कर लेगा तो जो निराकार से अप्रत्यक्ष रूप से संबंधित हैं निराकार की माया की पहुँच से वंचितता नहीं होगी? निःसंदेह होगी।

आप कहतें हैं कि माया कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है, वह भ्रम का दुसरा नाम है; तो सत्य! वह अज्ञान हैं, द्वेत यानी उलझन हैं और इसी कारण उसे जितना भी निराकार महत्व दें कभी पर्याप्त महत्व नहीं दें सकता पर क्या आपकी समझ में यह जाननें के परिणाम से माननें योग्य हैं कि आकार यानी भृम, माया या धोका चैतन्य से संबंधित हैं? यदि हाँ क्योंकि माया या धोका यानी यह अज्ञान से चैतन्य को ही होता हैं तों चैतन्य जैसे खुद को अर्थात् निराकारता को महत्व देता हैं क्योंकि जितनी भी निराकारता हैं वह उससे संबंधित हैं तो यदि वह सकारता को महत्व नहीं दें यह कैसे संगत हैं यानी अनुचित अर्थात् निराकारता का हर आकार के लियें स्वार्थ नहीं? भला हर आकार भी तो उससे ही संबंधित हैं, अप्रत्यक्ष रूप से ही सही। माना कि आकार निराकार की तरह अभिव्यक्ति कर्ता तो नहीं पर अभिव्यक्ति तो हैं न?

क्या अभिव्यक्ति कर्ता का अभिव्यक्ति कर्ता को ही संबंधित जानना फिर उससें मानना और इस आधार पर महत्व देना कि वह उससे संबंधित हैं यह सही हैं? यदि हाँ! तो अभिव्यक्ति कर्ता यानी चैतन्य को अपनी अभिव्यक्ति यानी भृम या माया को भी तो इस आधार पर कि वह उससे ही संबंधित हैं भले ही अप्रत्यक्षत: ही इसलिये महत्व देना चाहियें न? निःसंदेह!

- रुद्र एस. शर्मा / aslirss
समय/दिनांक - २०:२३/२७:०६:२२