(24)
आशा संकोची बैठी रही। महेंद्र ने भी कुछ न कहा। चुपचाप छत पर टहलने लगा। चाँद अभी तक उगा न था। छत के एक कोने में छोटे-से गमले के अंदर रजनीगंधा के दो डंठलों में दो फूल खिले थे। छत पर के आसमान के वे नखत, वह सतभैया, वह काल-पुरुष, उनके जाने कितनी संध्या के एकांत प्रेमाभिनय के मौन गवाह थे - आज वे सब टुकुर-टुकुर ताकते रहे।
महेंद्र सोचने लगा - इधर के इन कई दिनों की इस विप्लव-कथा को इस आसमान के अँधेरे से पोंछ कर ठीक पहले की तरह अगर खुली छत पर चटाई डाले आशा की बगल में उसी सदा की जगह में सहज ही बैठ पाता! कोई सवाल नहीं, कोई जवाबदेही नहीं; वही विश्वास, वही प्रेम, वही सहज आनंद! लेकिन हाय, यहाँ उतनी-सी जगह को फिर लौटने की गुंजाइश नहीं। छत की चटाई पर आशा के पास की जगह का वह हिस्सा महेंद्र ने खो दिया है। अब तक विनोदिनी का महेंद्र से एक स्वाधीन संबंध था, प्यार करने का पागल सुख था, लेकिन अटूट बंधन नहीं था। अब वह विनोदिनी को खुद समाज से छीन कर ले आया है, अब उसे कहीं भी रख आने की, कहीं भी लौटा आने की जगह नहीं रही - महेंद्र ही अब उसका एकमात्र अवलंब है। अब इच्छा हो या न हो, विनोदिनी का सारा भार उसे उठाना ही पड़ेगा।
लंबी उसाँस ले कर महेंद्र ने एक बार आशा की ओर देखा। मौन रुलाई से अपनी छाती भरे आशा तब भी उसी तरह बैठी थी - रात के अँधेरे ने माँ के दामन की तरह उसकी लाज और वेदना लपेट रखी थी।
न जाने क्या कहने के लिए महेंद्र अचानक आशा के पास आ कर खड़ा हुआ। सर्वांग की नसों का लहू आशा के कान में सिमटकर चीखने लगा - उसने आँखें मूंद लीं। महेंद्र सोच नहीं पाया कि वह आखिर क्या कहने आया था - कहने को उस पर है भी क्या? लेकिन, बिना कुछ कहे अब लौट भी न सका। पूछा - कुंजियों का झब्बा कहाँ है?
कुंजियों का झब्बा बिस्तर के नीचे था। आशा उठ कर कमरे में चली गई। महेंद्र उसके पीछे-पीछे गया। बिस्तर के नीचे से कुंजियाँ निकाल कर आशा ने बिस्तर पर रख दीं। झब्बे को ले कर महेंद्र अपने कपड़ों की अलमारी में एक-एक कुंजी लगा कर देखने लगा। आशा रह न सकी। बोल पड़ी - उस अलमारी की कुंजी मेरे पास न थी।
कुंजी किसके पास थी, यह बात उसकी जबान से न निकल सकी, लेकिन महेंद्र ने समझा। आशा जल्दी-जल्दी कमरे के बाहर निगल गई; उसे डर लगा, कहीं महेंद्र के पास ही उसकी रुलाई न छूट पड़े। अंधेरी छत की दीवार के एक कोने की तरफ मुँह फेर कर खड़ी-खड़ी उफनती हुई वह रुलाई दबा कर रोने लगी।
लेकिन रोने का ज्यादा समय न था। एकाएक उसे याद आ गया, महेंद्र के खाने का समय हो गया। तेजी से वह नीचे उतर गई।
राजलक्ष्मी ने आशा से पूछा - महेंद्र कहाँ है, बहू?
आशा ने कहा - ऊपर।
राजलक्ष्मी- और तुम उतर आईं?
आशा ने सिर झुका कर कहा - उनका खाना...
राजलक्ष्मी - खाने का इंतजाम मैं कर रही हूँ - तुम जरा हाथ-मुँह धो लो और अपनी वह ढाका वाली साड़ी पहन कर मेरे पास आओ - मैं तुम्हारे बाल सँवार दूँ।
सास के लाड़ को टालना भी मुश्किल था, लेकिन साज-शृंगार के इस प्रस्ताव से वह शर्मा गई। मौत की इच्छा करके भीष्म जैसे चुपचाप तीरों की वर्षा झेल गए थे, उसी प्रकार आशा ने भी बड़े धीरज से सास का सारा साज सिंगार स्वीकार कर लिया। बन-सँवर कर धीमे-धीमे वह ऊपर गई। झाँक कर देखा, महेंद्र छत पर नहीं था। कमरे के दरवाजे से देखा, वह कमरे में भी न था - खाना यों ही पड़ा था।
कुंजी नहीं मिली, सो अलमारी तोड़ कर महेंद्र ने कुछ जरूरी कपड़े और काम की किताबें निकाल लीं और चला गया।
अगले दिन एकादशी थी। नासाज और भारी-भारी-सी राजलक्ष्मी बिस्तर पर लेटी थीं। बाहर घटाएँ घिरी थीं। आंधी-पानी के आसार। आशा धीरे-धीरे कमरे में गई। धीरे से उनके पैरों के पास बैठ कर बोली - तुम्हारे लिए दूध और फल ले आई हूँ माँ, चलो, खा लो!
करुणा-मूर्ति बहू की सेवा की चेष्टा, जिसकी वह आदी न थी, देख कर राजलक्ष्मी की सूखी आँखें उमड़ आईं। वह उठ बैठीं। आशा ने अपनी गोद में खींच कर उसके गीले गाल चूमने लगीं। पूछा - महेंद्र कर क्या रहा है, बहू!
आशा लजा गई। धीमे से कहा - वे चले गए।
राजलक्ष्मी - चला गया? मुझे तो पता भी न चला।
आशा बोली - वे कल रात ही चले गए।
सुनते ही राजलक्ष्मी की कोमलता मानो काफूर हो गई; बहू के प्रति उनके स्नेह-स्पर्श में रस का नाम न रह गया। आशा ने एक मौन लांछन का अनुभव किया और सिर झुकाए चली गई।
रात को जब उसे पटलडाँगा के डेरे पर छोड़ कर महेंद्र अपने कपड़े और किताबें लाने घर चला गया, तो कलकत्ता के अविश्राम जन-स्रोत की हलचल में अकेली बैठी विनोदिनी अपनी बात सोचने लगी। दुनिया में पनाह की जगह काफी तो उसे कभी भी न थी, इतनी जरूर थी कि अगर एक ओर गरम हो जाए, तो दूसरी तरफ करवट बदल कर सो सके। आज लेकिन निर्भर करने की जगह निहायत सँकरी हो गई थी। जिस नाव पर सवार हो कर वह प्रवाह में बह चली है, उसके दाएँ-बाएँ किसी भी तरफ जरा झुक जाने से पानी में गिर पड़ने की नौबत। लिहाजा बड़ी सावधानी से पतवार पकड़नी थी - जरा-सी चूक, जरा-सा हिलना-डुलना भी मुहाल। ऐसी हालत में भला किस औरत का कलेजा नहीं काँपता। पराए मन को मुट्ठी में रखने के लिए जिस चुहल की जरूरत है, जितनी ओट चाहिए, इस सँकरेपन में उसकी गुंजाइश कहाँ! महेंद्र के एकबारगी आमने-सामने रह कर सारी जिंदगी बितानी पड़ेगी। फर्क इतना ही है कि महेंद्र के किनारे लगने की गुंजाइश है, विनोदिनी के लिए वह भी नहीं।
अपनी इस असहाय अवस्था को वह जितना ही समझने लगी, उतना ही उसे बल मिलने लगा। कोई-न-कोई उपाय करना ही पड़ेगा, ऐसे काम नहीं चलने का।
बिहारी को प्रेम-निवेदित करने के दिन से ही विनोदिनी के धीरज का बाँध टूट गया था। अपने जिस उमगे हुए चुंबन को वह उसके पास लौटा कर ले आई, संसार में और किसी के पास उसे उतार कर नहीं रख सकती। पूजा के चढ़ावे की तरह देवता के लिए उसे रात-दिन ढोने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। उसका मन कभी हथियार डाल देना नहीं जानता, निराशा वह नहीं मानती। उसका मन बार-बार उससे कह रहा था - यह पूजा बिहारी को कबूल करनी ही पड़ेगी।
उसके इस अदम्य प्रेम से उसकी आत्म-रक्षा की आकांक्षा आ कर मिल गई। बिहारी के सिवाय उसके पास और कोई चारा नहीं। महेंद्र को उसने अच्छी तरह समझ लिया था। उस पर टिकना चाहो तो वह भार नहीं सह सकता - छोड़ने पर ही उसे पाया जा सकता है - पकड़ना चाहो कि भाग खड़ा होना चाहता है। लेकिन औरत के लिए जिस एक निश्चिंत, विश्वासी सहारे की नितांत आवश्यकता है, वह सहारा बिहारी ही दे सकता है। अब बिहारी को छोड़ने से उसका काम हर्गिज नहीं चल सकता।
यह सोच कर उसने खिड़की खोली और गैस की रोशनी से दमकते शहर की ओर देखने लगी, बिहारी अभी साँझ को इस शहर में ही है, यहाँ से एकाध रास्ते, दो-चार गलियाँ पार करके अभी-अभी उसके दरवाजे पर मजे में पहुँचा जा सकता है। द्वार के बाद ही नल वाला छोटा-सा अँगना, वही सीढ़ी, वही सजा-सजाया कमरा - सन्नाटे में बिहारी आराम-कुर्सी पर अकेला बैठा - शायद सामने खड़ा ब्राह्मण का वह लड़का, गोल-मटोल, गोरा-गोरा सुंदर-सा वह लड़का नजर गड़ाये तस्वीरों वाली किसी किताब के पन्ने पलट रहा हो - एकाएक सारे चित्र को सुधि में ला कर स्नेह से, प्रेम से विनोदिनी का सर्वांग पुलकित हो उठा। जी चाहे तो अभी वहाँ पहुँच जाया जा सकता है। यह सोच कर विनोदिनी इस इच्छा को छाती से लगाए खेलने लगी। पहले की बात होती, तो शायद वह अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए लपक पड़ती, लेकिन अब आगे-पीछे बहुत सोचना पड़ता है। अब तो महज वासना पूरी करने का सवाल नहीं रहा, उद्देश्य की पूर्ति करनी है। विनोदिनी सोचने लगी - पहले यह देखूँ कि बिहारी जवाब क्या देता है, उसके बाद तय करूँगी कि किस रास्ते जाना है। कुछ समझे बिना बिहारी को तंग करने के लिए जाने की हिम्मत न पड़ी।
इसी तरह सोचते-विचारते जब रात के नौ बज गए तो महेंद्र लौट कर आ गया। ये कई दिन उसे भूखे-प्यासे, बदपरहेजी और उत्तेजना में कटे। आज कामयाब हो कर विनोदिनी को वह अपने डेरे में ले आया; इसीलिए थकावट से मानो चूर-चूर हो गया। दुनिया से, अपने मन की हालत से लड़ने लायक बल उसमें नहीं रह गया था। भारों से लदे उसके भावी जीवन की थकावट ने मानो पहले से ही उसे दबोच लिया।
बाहर से दरवाजे के कड़े खटखटाने में महेंद्र को बड़ी शर्म लगने लगी। जिस पागलपन में दुनिया का कोई खयाल ही न किया, वह पागलपन कहाँ! रास्ते के अचीन्हे-अजाने लोगों की नजर के सामने भी उसका सर्वांग सकुचा क्यों रहा है?
अंदर नया नौकर सो गया था। दरवाजा खुलवाने के लिए बड़ा हंगामा करना पड़ा। अपरिचित नए डेरे के अँधेरे में पहुँचाने पर महेंद्र का मन ढीला पड़ ही गया। माँ का लाड़ला महेंद्र जिन विलास-उपकरणों - पंखे, कुर्सी, सोफे - का आदी रहा है, उसका अभाव यहाँ साफ दिख गया। इन कमी-खामियों को मिटाना ही पड़ेगा। डेरे के सारे इंतजाम का भार उसी पर था। महेंद्र ने आज तक कभी अपने या किसी के आराम के फिक्र नहीं की - आज से उसे एक नए और अधूरे संसार का तीली-तीली भार उठाना। सीढ़ी पर एक ढिबरी धुआँ उगलती हुई टिमटिमा रही थी; वहाँ के लिए एक लैंप लाना पड़ेगा। बरामदे से सीढ़ी को जाने वाला रास्ता नल के पानी से चिपचिपाता रहता, मिस्त्री बुला कर सीमेंट से उसकी मरम्मत करानी पड़ेगी। सड़क की तरफ के दो कमरे जूतों की दुकान वालों के जिम्मे थे, उन्होंने अभी तक उन्हें खाली नहीं किया - मकान-मालिक से इसके लिए लड़ेगा। सारा काम खुद ही करना पड़ेगा - लम्हे-भर में यह बात दिमाग में आई और उसकी थकावट के भार पर और भी बोझ लद गया।
सीढ़ी पर कुछ देर खड़े रह कर महेंद्र ने अपने को सँभाल लिया - विनोदिनी के प्रति जो प्रेम था, उसे उभारा। अपने-आपको समझाया कि आज तक सारी दुनिया को भूल कर उसने जो चाहा था, वह मिल गया - दोनों के बीच अब अड़चन की कोई दीवार नहीं - आज तो महेंद्र की खुशी का दिन है। कोई अड़चन नहीं थी - लेकिन सबसे बड़ी अड़चन यही थी- आज वह आप ही अपनी बाधा था।
रास्ते में महेंद्र को देख कर विनोदिनी ध्यान के आसन से उठी। कमरे में रोशनी जलाई। सिलाई का काम ले कर नजर झुकाए बैठ गई। सिलाई उसकी एक ओट थी। उसकी आड़ में मानो उसका एक आश्रय था।
कमरे में आ कर महेंद्र बोला - यहाँ, जरूर तुम्हें बड़ी असुविधा हो रही है, विनोद!
अपनी सिलाई में लगी-लगी बोली - बिलकुल नहीं।
महेंद्र बोला - दो ही तीन दिनों में मैं सारा सामान ले आऊँगा। कुछ दिन तुम्हें थोड़ी तकलीफ होगी।
विनोदिनी बोली - नहीं, वह न होगा - तुम अब एक भी सामान और न लाओ - जो है, वही मेरी जरूरत से कहीं ज्यादा है।
महेंद्र ने कहा - मैं अभागा भी क्या उससे कहीं ज्यादा में हूँ?
विनोदिनी - अपने को उतना ज्यादा लगाना ठीक नहीं, कुछ विनय रहनी चाहिए।
दीये की जोत में सूने कमरे में सिर झुकाए विनोदिनी की उस आत्म-तल्लीन मूर्ति को देख कर महेंद्र के मन में फिर उसी मोह का संचार हुआ।
घर में होता तो दौड़ कर विनोदिनी के पैरों में गिर पड़ता - मगर यह घर तो था नहीं, इसलिए वैसा न कर सका। आज विनोदिनी बड़ी बेचारी थी, बिलकुल महेंद्र की मुट्ठी में- आज अपने को संयत न रखे तो बड़ी कायरता होगी।
विनोदिनी ने कहा - अपने किताब-कपड़े यहाँ क्यों ले आए?
महेंद्र ने कहा - उन्हें मैं अपने लिए जरूरी सामान मानता हूँ- वे कहीं ज्यादा वाले वर्ग में नहीं हैं...
विनोदिनी - मालूम है, मगर यहाँ क्यों?
महेंद्र - ठीक है, आवश्यक चीजें यहाँ नहीं सोहतीं - विनोद, इन किताबों-विताबों को उठा कर रास्ते पर फेंक देना, मैं चूँ भी न करूँगा - केवल उनके साथ मुझे भी मत उठा फेंकना।
इतना कह कर महेंद्र थोड़ा खिसक आया और कपड़ों में बँधी किताबों की गाँठ को विनोदिनी के पैरों के पास रख दिया।