आँख की किरकिरी - 23 Rabindranath Tagore द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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आँख की किरकिरी - 23

(23)

बातों-ही-बातों में मजाक साफ चिकोटी गहरी होने लगी। विनोदिनी बिहारी से निहोरा कर आई थी - निहायत ही रोज-रोज लिखते न बने, तो कम-से-कम हफ्ते में दो बार तो दो पंक्तियाँ जरूर लिखे। आज ही बिहारी की चिट्ठी आए, यह उम्मीद नहीं के बराबर ही थी, लेकिन आकांक्षा ऐसी बलवती हो कि वह दूर-संभावना की आशा भी विनोदिनी न छोड़ सकी। उसे लगने लगा, जाने कब से कलकत्ता छूट गया है!

 गाँव में महेंद्र को ले कर किस कदर उसकी निंदा हुई थी, दोस्त-दुश्मन की दया से यह उसकी अजानी न रही। शांति कहाँ!

 गाँव के लोगों से उसने अपने को अछूता रखने की कोशिश की। लोग-बाग इससे और भी बिगड़ उठे। पापिनी को पास पा कर घृणा और पीड़न के विलास सुख से अपने को वे वंचित नहीं रखना चाहते।

 छोटा-सा गाँव - अपने को सबसे छिपाए रखने की कोशिश बेकार है। यहाँ जख्मी हृदय को किसी कोने में दुबका कर अँधेरे में सेवा-जतन की गुंजाइश नहीं - जहाँ-तहाँ से कौतूहल-भरी निगाह जख्म पर आ कर पड़ने लगी। उसका अंतर टोकरी में बंद पड़ी ज़िंदा मछली-सा तड़पने लगा। यहाँ आज़ादी के साथ पूरी तरह दु:ख भोग सकने की भी जगह नहीं।

 दूसरे दिन जब चिट्ठी का समय निकल गया तो कमरा बंद करके विनोदिनी पत्र लिखने बैठी -

 भाई साहब, डरो मत, मैं तुम्हें प्रेम-पत्र लिखने नहीं बैठी हूँ। तुम मेरे विचारक हो, तुम्हें प्रणाम करती हूँ। मैंने जो पाप किया, तुमने उसकी बड़ी सख्त सजा दी। तुम्हारा हुक्म होते ही मैंने उस सजा को माथे पर रख लिया है। अफसोस इसी बात का है कि तुम देख नहीं सके कि यह सजा कितनी कड़ी है। देख पाते, कहीं जान पाते, तो तुम्हारे मन में जो दया होती, मैं उससे भी वंचित रही। तुम्हें याद करके, मन-ही-मन तुम्हारे पाँवों के पास माथा टेके मैं उसे भी बर्दाश्त करूँगी। लेकिन प्रभु, कैदी को क्या खाना भी नसीब नहीं होता? व्यंजन न सही, जितना-भर न मिलने से काम नहीं चल सकता, उतना भोजन तो उसका बँधा होता है? मेरे इस निर्वासन का आहार है तुम्हारी दो पंक्तियाँ - वह भी न बदा हो तो वह निर्वासन-दंड नहीं, प्राण-दंड है। सजा देने वाले मेरी इतनी बड़ी परीक्षा न लो। मेरे पापी मन में दंभ की हद न थी - स्वप्न में भी मुझे यह पता न था कि किसी के आगे मुझे इस कदर सिर झुकाना पड़ेगा। जीत तुम्हारी हुई प्रभो, मैं बगावत न करूँगी। मगर मुझ पर रहम करो, मुझे जीने दो। इस सूने जंगल में रहने का थोड़ा-बहुत सहारा मुझे दिया करना। फिर तो तुम्हारे शासन से मुझे कोई भी किसी भी हालत में डिगा न सकेगा। यही दुखड़ा रोना था। और जो बातें जी में हैं, कहने को कलेजा मुँह को आता है। पर वे बातें तुम्हें न बताऊँगी, मैंने शपथ ली है। उस शपथ को मैंने पूरा किया।

 - तुम्हारी विनोदिनी।

 विनोदिनी ने पत्र डाक में डाल दिया। मुहल्ले के लोग छि:-छि: करने लगे। कमरा बंद किए रहती है, चिट्ठी लिखा करती है, चिट्ठी के लिए डाकिए को जा कर तंग करती है - दो दिन कलकत्ता रहने से क्या लाज-धरम को इस तरह घोल कर पी जाना चाहिए!

 उसके बाद के दिन भी चिट्ठी न मिली। विनोदिनी दिन-भर गुमसुम रही।

 बिहारी का उसके पास कुछ भी न था - एक पंक्ति की चिट्ठी तक नहीं। कुछ भी नहीं। वह शून्य में मानो कोई चीज खोजती फिरने लगी। बिहारी की किसी निशानी को अपने कलेजे से लगा कर सूखी आँखों में वह आँसू लाना चाहती थी। आँसुओं में मन की सारी कठिनता को गला कर, विद्रोह की भभकती आग को बुझा कर, वह बिहारी के कठोर आदेश को अंतर के कोमलतम प्रेम-सिंहासन पर बिठाना चाहती थी। लेकिन सूखे के दिनों की दोपहरी के आसमान-जैसा उसका कलेजा सिर्फ जलने लगा।

 विनोदिनी ने सुन रखा था, हृदय से जिसे पुकारो, उसे आना ही पड़ता है। इसीलिए हाथ बाँधे आँखें मूँद कर वह बिहारी को पुकारने लगी - मेरा जीवन सूना पड़ा है, हृदय सूना है, चारों ओर सुनसान है - इस सूनेपन के बीच तुम एक बार आओ। घड़ी-भर को ही सही - तुम्हें आना पड़ेगा। मैं तुम्हें हर्गिज नहीं छोड़ सकती। हृदय से इस तरह पुकारने से विनोदिनी को मानो सच्चा बल मिला। उसे लगा, प्रेम की पुकार का यह बल बेकार नहीं जाने का।

 साँझ का दीप-विहीन अँधेरा कमरा जब बिहारी के ध्यान से घने तौर पर परिपूर्ण हो उठा, जब दीन-दुनिया, गाँव-समाज, समूचा त्रिभुवन प्रलय में खो गया तो अचानक दरवाजे पर थपकी सुन कर विनोदिनी झट-पट जमीन पर से उठ खड़ी हुई और दृढ़ विश्वास के साथ दौड़ कर दरवाजा खोलती हुई बोली - प्रभु, आ गए? उसे पक्का विश्वास था कि इस घड़ी दूसरा कोई उसके दरवाजे पर नहीं आ सकता।

 महेंद्र ने कहा - हाँ, आ गया विनोद!

 विनोदिनी बेहद खीझ से बोल उठी- चले जाओ, चले जाओ, चले जाओ यहाँ से। अभी चल दो तुरंत।

 महेंद्र को मानो काठ मार गया।

 हाँ री बिन्दी, तेरी ददिया सास अगर कल... कहते-कहते कोई प्रौढ़ा पड़ोसिन विनोदिनी के दरवाजे पर आ कर सहसा हाय राम! कहती हुई लंबा घूँघट काढ़ कर भाग गई।

 टोले में एक हलचल-सी मच गई। देवी थान में इकट्ठे हो कर बड़े-बूढ़ों ने कहा - अब तो बर्दाशत के बाहर है। कलकत्ता के कारनामों को अनसुना भी किया जा सकता था - मगर इसकी यह हिम्मत! लगातार महेंद्र को चिट्ठी लिख-लिख कर उसे बुला कर यहाँ ऐसा खुल कर खेलना, यह बेहयाई! ऐसी पापिन को गाँव में नहीं रहने दिया जा सकता।

 विनोदिनी को विश्वास था कि बिहारी का जवाब आज जरूर आएगा। लेकिन न आया। अपने मन में वह कहने लगी - बिहारी का मुझ पर अधिकार कैसा! मैं उसका हुक्म मानने क्यों गई? मैंने उसे यह क्यों समझने दिया कि वह जैसा कहेगा, सिर झुका कर मैं वही मान लूँगी। उससे तो मेरा महज उतने ही भर का नाता है, जितना-भर उसकी प्यारी आशा को बचाने की जरूरत है। मेरा अपना कोई पावना नहीं, दावा नहीं, मामूली दो पंक्तियों की चिट्ठी भी नहीं - मैं इतनी तुच्छ हूँ? डाह के जहर से विनोदिनी का कलेजा भर गया।

 काठ की मूरत-जैसी सख्त बनी विनोदिनी जब कमरे में बैठी थी, उसकी ददिया सास दामाद के यहाँ से लौटीं और आते ही उससे बोलीं - अरी मुँहजली, यह सब क्या सुन रही हूँ?

 विनोदिनी ने कहा - जो सुन रही हो, सब सच है।

 ददिया सास बोलीं - तो फिर इस कलंक का बोझा लिए यहाँ आने की क्या पड़ी थी - आई क्यों यहाँ?

 रुँधे क्रोध से विनोदिनी चुप बैठी रही।

 वह बोलीं - मैं कहे देती हूँ, यहाँ तुम नहीं रह सकतीं। अपनी खोटी तकदीर, सब तो मर ही गए - वह दु:ख सह कर भी मैं जिंदा हूँ - तुमने हमारा सिर झुका दिया। तुम तुरंत यहाँ से चली जाओ।

 इतने में बिना नहाया-खाया महेंद्र रूखे-बिखरे बालों से वहाँ आ पहुँचा। तमाम रात जागता रहा था - आँखें लाल-लाल, चेहरा सूखा पड़ा। उसने संकल्प किया था कि मुँह अँधेरे ही आ कर वह विनोदिनी को साथ ले जाने की फिर से कोशिश करेगा। लेकिन पहले दिन विनोदिनी में अभूतपूर्व घृणा देख उसके मन में तरह-तरह की दुविधा होने लगी। धीरे-धीरे जब वेला चढ़ आई, गाड़ी का समय हो आया, तो स्टेशन के मुसाफिरखाने से निकल कर, मन से सारे तर्क-वितर्क दूर करके वह गाड़ी से सीधा विनोदिनी के यहाँ पहुँचा। हया-शर्म छोड़ कर दुस्साहस का काम करने पर आमादा होने से जो एक स्पर्धापूर्ण बल पैदा हो आता है, उसी बल के आवेश में महेंद्र ने एक उद्भ्रांत आनंद का अनुभव किया - उसका सारा अवसाद और दुविधा जाती रही। गाँव के कौतूहल वाले लोग उस उन्मत्त दृष्टि में उसे कागज के निर्जीव पुतले-से लगे। महेंद्र ने किसी तरफ नहीं देखा, सीधा विनोदिनी के पास जा कर बोला - विनोद, इस लोक निंदा के खुले मुँह में तुम्हें अकेला छोड़ जाऊँ, ऐसा कायर मैं नहीं हूँ। जैसे भी हो, तुम्हें यहाँ से ले ही जाना पड़ेगा। बाद में तुम मुझे छोड़ देना चाहो, छोड़ देना! मैं कुछ भी न कहूँगा। तुम्हारा बदन छू कर मैं कसम खाता हूँ, तुम जैसा चाहोगी, वही होगा। दया कर सको, तो जीऊँगा और न कर सको, तो तुम्हारी राह से दूर हट जाऊँगा। दुनिया में अविश्वास के काम मैंने बहुतेरे किए हैं। पर आज तुम मुझ पर अविश्वास न करो। अभी हम कयामत के मुँह पर खड़े हैं, यह धोखे का समय नहीं।

 विनोदिनी ने बड़े ही सहज भाव से दृढ़ हो कर कहा - मुझे अपने साथ ले चलो। गाड़ी है?

 महेंद्र ने कहा - है।

 विनोदिनी की सास ने बाहर आ कर कहा - महेंद्र, तुम मुझे नहीं पहचानते, मगर तुम हम लोगों के बिराने नहीं हो। तुम्हारी माँ राजलक्ष्मी हमारे ही गाँव की लड़की है, गाँव के रिश्ते से मैं उसकी मामी होती हूँ। मैं तुमसे पूछती हूँ, यह तुम्हारा क्या रवैया है! घर में तुम्हारी स्त्री है, माँ है और तुम ऐसे बेहया पागल बने फिरते हो? भले समाज में तुम मुँह कैसे दिखाओगे?

 महेंद्र निरुत्तर हो गया तो बुढ़िया बोली - जाना ही हो तो अभी चल दो, तुरंत। मेरे घर के बरामदे पर खड़े न रहो - पल-भर की भी देर न करो। अब।

 कह कर बुढ़िया भीतर गई और अंदर से दरवाजा बंद कर लिया। बे-नहाई, भूखी, गंदे कपड़े पहने विनोदिनी खाली हाथों गाड़ी पर जा सवार हुई। जब महेंद्र भी चढ़ने लगा तो वह बोली - नहीं, स्टेशन बहुत करीब है, तुम पैदल चलो।

 महेंद्र ने कहा - फिर तो गाँव के सब लोग मुझे देखेंगे।

 विनोदिनी ने कहा - अब भी लाज रह गई है क्या?

 और गाड़ी का दरवाजा बंद करके विनोदिनी ने गाड़ीवान से कहा - स्टेशन चलो!

 गाड़ीवान ने पूछा - बाबू नहीं चलेंगे?

 महेंद्र जरा आगा-पीछा करने के बाद जाने की हिम्मत न कर सका। गाड़ी चल दी। गाँव की गैल छोड़ कर महेंद्र सिर झुकाए खेतों के रास्ते चला।

 गाँव की बहुओं का नहाना-खाना हो चुका था। जिन प्रौढ़ाओं को देर से फुरसत मिली, केवल वही अँगोछा और तेल का कटोरा लिए बौराए आम के महमह बगीचे की राह घाट को जा रही थीं।

 महेंद्र कहाँ चला गया, इस आशंका से राजलक्ष्मी ने खाना-सोना छोड़ दिया। संभव-असंभव सभी जगहों में साधुचरण उसे ढूँढ़ता फिरने लगा - ऐसे में विनोदिनी को ले कर महेंद्र कलकत्ता आया। पटलडाँगा के मकान में उसे रख कर वह अपने घर गया।

 माँ के कमरे में जा कर देखा, कमरा लगभग अँधेरा है। लालटेन की ओट दी गई है। राजलक्ष्मी मरीज जैसी बिस्तर पर पड़ी है और पायताने बैठी आशा उनके पाँव सहला रही है। इतने दिनों के बाद घर की बहू को सास के पैरों का अधिकार मिला है।

 महेंद्र के आते ही आशा चौंकी और कमरे से बाहर चली गई। महेंद्र ने जोर दे कर सारी दुविधा हटा कर कहा - माँ, मुझे यहाँ पढ़ने में सुविधा नहीं होती, इसलिए मैंने कॉलेज के पास एक डेरा ले लिया है। वहीं रहूँगा।

 बिस्तर के एक ओर का इशारा करके राजलक्ष्मी ने कहा - जरा बैठ जा।

 महेंद्र सकुचाता हुआ बिस्तर पर बैठ गया। बोलीं - जहाँ तेरा जी चाहे, तू रह। मगर मेरी बहू को तकलीफ मत देना!

 महेंद्र चुप रहा।

 राजलक्ष्मी बोलीं - अपना भाग ही खोटा है, तभी मैंने अपनी अच्छी बहू को नहीं पहचाना। कहते-कहते राजलक्ष्मी का गला भर आया - लेकिन इतने दिनों तक समझता, प्यार करके तूने उसे इस तकलीफ में कैसे डाला?

 राजलक्ष्मी से और न रहा गया। रो पड़ीं।

 वहाँ से उठ भागे तो जी जाए महेंद्र। लेकिन तुरंत भागते न बना। माँ के बिस्तर के एक किनारे चुपचाप बैठा रहा।

 बड़ी देर के बाद राजलक्ष्मी ने पूछा - आज रात तो यहीं रहेगा न?

 महेंद्र ने कहा - नहीं।

 राजलक्ष्मी ने पूछा - कब जाओगे?

 महेंद्र बोला - बस अभी।

 तकलीफ से राजलक्ष्मी उठीं। कहा - अभी? बहू से एक बार मिलेगा भी नहीं? अरे बेहया, तेरी बेरहमी से मेरा तो कलेजा फट गया।

 कह कर राजलक्ष्मी टूटी डाल-सी बिस्तर पर लेट गईं।

 महेंद्र उठ कर बाहर निकला। दबे पाँव सीढ़ियाँ चढ़ कर वह अपने ऊपर के कमरे की ओर चला। वह चाहता नहीं था कि आशा से भेंट हो।

 ऊपर पहुँचते ही उसकी नजर पड़ी, कमरे के सामने सायबान वाले बरामदे में आशा जमीन पर ही पड़ी थी। उसने महेंद्र के पैरों की आहट नहीं सुनी थी, अचानक उसे सामने देख कपड़े संभाल कर उठ बैठी। इस समय कहीं एक बार भी महेंद्र ने चुन्नी कह कर पुकारा होता, तो वह महेंद्र के सारे अपराधों को अपने सिर ले कर माफ की गई अपराधिनी की तरह उसके दोनों पैर पकड़ कर जीवन-भर का रोना रो लेती। लेकिन महेंद्र वह नाम ले कर न पुकार सका है।