(12)
और वह कमरे से बाहर चला गया।
और दूसरे ही क्षण फिर अंदर आया। आ कर विनोदिनी से कहा - मुझे माफ कर दो!
विनोदिनी बोली - क्या कुसूर किया है तुमने, लालाजी?
महेंद्र बोला - तुम्हें यों जबरदस्ती यहाँ रोक रखने का हमें कोई अधिकार नहीं।
विनोदिनी हँस कर बोली - जबरदस्ती कहाँ की है? प्यार से सीधी तरह ही तो रहने को कहा - यह जबरदस्ती थोड़े है।
आशा सोलहों आने सहमत हो कर बोली - हर्गिज नहीं।
विनोदिनी ने कहा - भाई साहब, तुम्हारी इच्छा है, मैं रहूँ। मेरे जाने से तुम्हें तकलीफ होगी- यह तो मेरी खुशकिस्मती है। क्यों भई किरकिरी, ऐसे सहृदय दुनिया में मिलते कितने हैं? और दु:ख में दुखी, सुख में सुखी भाग्य से कोई मिला, तो मैं ही उसे छोड़ कर जाने को क्यों उतावली होऊँ?
पति को चुप रहते देख आशा जरा खिन्न मन से बोली - बातों में तुमसे कौन जीते? मेरे स्वामी तो हार मान गए, अब जरा रुक भी जाओ।
महेंद्र फिर तेजी से बाहर हो गया। उधर बिहारी कुछ देर राजलक्ष्मी से बातचीत करके महेंद्र की ओर आ रहा था। दरवाजे पर ज्यों ही बिहारी पर नजर पड़ी, महेंद्र बोल उठा- भाई बिहारी, मुझ-सा नालायक दुनिया में दूसरा नहीं।
उसने कुछ ऐसे कहा कि वह बात कमरे में पहुँच गई।
अंदर से उसी दम पुकार हुई - बिहारी बाबू?
बिहारी ने कहा - अभी आया, विनोद भाभी!
कमरे में जाते ही बिहारी ने तुरंत आशा की तरफ देखा - घूँघट में से जितना-भर दिखाई पड़ा, उसमें विषाद या वेदना की कोई निशानी ही न थी। आशा उठ कर जाने लगी। विनोदिनी उसे पकड़े रही। कहा - यह तो बताएँ भाई साहब, मेरी आँखों की किरकिरी से आपका सौत का नाता है क्या? आपको देखते ही वह भाग क्यों जाना चाहती है?
आशा ने शर्मा कर विनोदिनी को झिड़का।
बिहारी ने हँस कर कहा - इसलिए कि विधाता ने मुझे वैसा खूबसूरत नहीं बनाया है।
विनोदिनी - देख लिया भई किरकिरी, बिहारी बाबू किस कदर बचा कर बात करना जानते हैं! इन्होंने तुम्हारी पसंद को दोष नहीं दिया, दिया विधाता को। लक्ष्मण-जैसे सुलक्षण देवर को पा कर तुझे आदर करना न आया, तेरी ही तकदीर खोटी है।
बिहारी - इस पर तुम्हें अगर तरस आए विनोद भाभी, तो फिर मुझे शिकवा ही क्या रहे!
विनोदिनी - समुद्र तो है ही, फिर भी बादलों के बरसे बिना चातक की प्यास क्यों नहीं मिटती?
आशा को आखिर रोक कर न रखा जा सका। वह जबरदस्ती हाथ छुड़ा कर चली गई। बिहारी भी जाना चाह रहा था। विनोदिनी ने कहा - महेंद्र बाबू को क्या हुआ है, कह सकते हैं आप?
बिहारी ठिठक पड़ा। बोला - मुझे तो कुछ पता नहीं, कुछ हुआ है क्या?
विनोदिनी - पता नहीं, मुझे तो ठीक नहीं दीखता।
उत्सुक हो कर बिहारी कुर्सी पर बैठ गया। पूरी तरह सुन लेने के खयाल से वह उन्मुख हो कर विनोदिनी की ओर ताकता रहा। विनोदिनी कुछ न बोली। मन लगा कर चादर सीने लगी।
कुछ देर रुक कर वह बोला, तुमने महेंद्र में खास कुछ गौर किया क्या?
विनोदिनी बड़े सहज भाव से बोली - क्या जानें, मुझे तो ठीक नहीं दीखता। मुझे तो अपनी किरकिरी के लिए फिक्र होती है। - और एक लंबी उसाँस ले कर वह सिलाई छोड़ कर जाने लगी।
बिहारी ने व्यस्त हो कर कहा - जरा बैठो, भाभी!
विनोदिनी ने कमरे के सारे खिड़की-किवाड़ खोल दिए। लालटेन की बत्ती बढ़ा दी और सिलाई का सामान लिए बिस्तर के उस छोर पर जा बैठी। बोली - मैं तो यहाँ सदा रहूँगी नहीं- मेरे चले जाने पर मेरी किरकिरी का खयाल रखना- वह बेचारी दुखी न हो।
कह कर मन के उद्वेग को जब्त करने के लिए उसने मुँह फेर लिया।
बिहारी बोल पड़ा- भाभी, तुम्हें रहना ही पड़ेगा। तुम्हारा अपना कहने को कोई नहीं- इस भोली लड़की को सुख-दु:ख में बचाने का भार तुम लो- कहीं तुम छोड़ गई, तो फिर कोई चारा नहीं।
विनोदिनी - भाई साहब, दुनिया का हाल तुमसे छिपा नहीं, मैं यहाँ सदा कैसे रह सकता हूँ? लोग क्या कहेंगे?
बिहारी - लोग जो चाहें कहें, तुम ध्यान ही मत दो! तुम देवी हो, एक असहाय लड़की को दुनिया की ठोकरों से बचाना तुम्हारे ही योग्य काम है।
विनोदिनी का रोआँ-रोआँ पुलकित हो उठा। बिहारी के इस भक्ति-उपहार को वह मन से भी गलत मान कर ठुकरा न सकी, हालाँकि वह छलना कर रही थी। ऐसा व्यवहार उसे कभी किसी से न मिला था। विनोदिनी के आँसू देख कर बिहारी मुश्किल से अपने आँसू जब्त करके महेंद्र के कमरे में चला गया। बिहारी को यह बात बिलकुल समझ में न आई कि महेंद्र ने अचानक अपने आपको नालायक क्यों कह दिया। कमरे में जा कर देखा, महेंद्र नहीं था। पता चला, वह टहलने निकल गया है। पहले बे-वजह वह घर से कभी बाहर नहीं जाया करता था। जाने-पहचाने लोगों के घर से बाहर उसे बड़ी परेशानी होती। बिहारी सोचता हुआ धीरे-धीरे अपने घर चला गया।
विनोदिनी आशा को अपने कमरे में ले आई। उसे छाती से लगा कर छलछलाई आँखों से कहा - भई किरकिरी, मैं बड़ी अभागिन हूँ, बड़ी बदशकुन।
आशा दुखी मन से बोली - ऐसा क्यों कहती हो, बहन?
सुबकते बच्चे की तरह वह आशा की छाती में मुँह गाड़ कर बोली - मैं जहाँ भी रहूँगी, बुरा ही होगा। मुझे छोड़ दे बहन, छुट्टी दे! मैं अपने जंगल में चली जाऊँ।
महेंद्र से बिहारी की मुलाकात न हो सकी, इसलिए कोई बहाना बना कर फिर वह वहाँ आया ताकि आशा और महेंद्र के बीच की आशंका वाली बात को और कुछ साफ तौर से जान सके।
वह विनोदिनी से यह अनुरोध करने का बहाना लिए आया कि कल महेंद्र को अपने यहाँ भोजन के लिए आने को कहे। उसने आवाज दी - विनोद भाभी! और बाहर से ही बत्ती की मद्धम रोशनी में गीली आँखों वाली दोनों सखियों को आलिंगन में देख कर वह ठिठक गया। अचानक आशा के मन में हुआ कि हो न हो, आज बिहारी ने जरूर विनोदिनी से कुछ निंदा की बात कही है, तभी वह जाने की बात कर रही है। यह तो बिहारी बाबू की बड़ी ज्यादती है। ऊँहू, अच्छे मिजाज के नहीं हैं। कुढ़ कर आशा बाहर निकल आई और बिहारी भी विनोदिनी के प्रति मन की भक्ति की ओर बढ़ कर बैरँग वापस हो गया।
रात को महेंद्र ने आशा से कहा - चुन्नी, मैं सुबह की गाड़ी से बनारस चला जाऊँगा।
आशा का कलेजा धक से रह गया। पूछा, क्यों?
महेंद्र बोला - काफी दिन हो गए, चाची से भेंट नहीं हुई। महेंद्र की यह बात सुन कर आशा शर्मिंदा हो गई। उसे यह इससे भी पहले सोचना चाहिए था। अपने सुख-दु:ख के आकर्षण में वह अपनी स्नेहमयी मौसी को भूल गई।
महेंद्र ने कहा - अपने स्नेह की एकमात्र थाती को वह मेरे ही हाथों सौंप गई हैं - उन्हें एक बार देखे बिना मुझे चैन नहीं मिलता।
कहते-कहते महेंद्र का गला भर आया। स्नेह-भरे मौन आशीर्वाद और अव्यक्त मंगल-कामना से वह बार-बार अपना दायाँ हाथ आशा के माथे पर फेरने लगा। अचानक ऐसे उमड़ आए स्नेह का मर्म आशा न समझ सकी। उसका हृदय केवल पिघल कर आँखों से बहने लगा। आज ही शाम को स्नेहवश विनोदिनी ने उसे जो कुछ कहा था, याद आया। इन दोनों में कहीं योग भी है या नहीं, वह समझ न सकी। लेकिन उसे लगा, यह मानो उसके जीवन की कोई सूचना है। अच्छी बुरी, कौन जाने!
भय से व्याकुल हो कर उसने महेंद्र को बाँहों में जकड़ लिया। महेंद्र उसके नाहक संदेह के आवेश को समझ गया। बोला - चुन्नी, तुम पर तुम्हारी पुण्यवती मौसी का आशीर्वाद है। तुम्हें कोई खतरा नहीं। तुम्हारी ही भलाई के लिए वह अपना सर्वस्व छोड़ कर चली गई - तुम्हारा कभी कोई बुरा नहीं हो सकता।
इस पर आशा ने निडर हो कर अपने मन के भय को निकाल फेंका। पति के इस आशीर्वाद को उसने अक्षय कवच के समान ग्रहण किया। मन-ही-मन उसने मौसी के चरणों की धूल को बार-बार अपने माथे से लगाया और एकाग्र हो कर बोली - तुम्हारा आशीर्वाद सदा मेरे स्वामी की रक्षा करे।
दूसरे दिन महेंद्र चला गया। विनोदिनी ने जाते समय कुछ न बोला। विनोदिनी मन में कहने लगी - गलती खुद की और गुस्सा मुझ पर! ऐसा साधु पुरुष तो मैंने नहीं देखा। लेकिन ऐसी साधुता ज्यादा दिन नहीं टिकती!
बहुत दिनों के बाद अचानक महेंद्र को आते देख कर एक ओर तो अन्नपूर्णा गदगद हो गईं और दूसरी ओर उन्हें यह शंका हुई कि शायद आशा की माँ से फिर कुछ चख-चख हो गई है - महेंद्र उसी की शिकायत पर दिलासा देने आया है। छुटपन से ही महेंद्र मुसीबत पड़ने पर अपनी चाची की शरण में जाता रहा है। कभी किसी पर उसे गुस्सा आया, तो चाची ने उसे शांत कर दिया और कभी उसे कोई तकलीफ हुई तो चाची ने धीरज से सहने की नसीहत दी। लेकिन विवाह के बाद से जो सबसे बड़ा संकट महेंद्र पर आ पड़ा, उसके प्रतिकार की कोशिश तो दूर रही - सांत्वना देने तक में वह असमर्थ रहीं। इसके बारे में जब वह यह समझ गईं कि चाहे जैसे भी वह हाथ डालें, घर की अशांति दुगुनी हो जाएगी, तो उन्होंने घर ही छोड़ दिया। बीमार बच्चा जब पानी के लिए चीखता-रोता है और पानी देने की मनाही होती है, तो दुखिया माँ जैसे दूसरे कमरे में चली जाती है, अन्नपूर्णा ठीक वैसे ही काशी चली गई थीं। सुदूर तीर्थ में रह कर धर्म-कर्म में ध्यान-मन लगा कर दीन-दुखिया को कुछ भुलाया था - महेंद्र क्या फिर उन्हीं झगड़े-झंझटों की चर्चा से उनके छिपे घाव पर चोट करने आया है?
लेकिन महेंद्र ने आशा के संबंध में अपनी माँ से कोई शिकायत नहीं की। फिर तो उनकी शंका दूसरी ओर बढ़ी। जिस महेंद्र के लिए आशा को छोड़ कर कॉलेज तक जाना गवारा न था, वह चाची की खोज-खबर लेने के लिए काशी कैसे आ पहुँचा? तो क्या आशा के प्रति उसका आकर्षण ढीला पड़ रहा है?
उन्होंने पूछा - मेरे सिर की कसम महेंद्र, ठीक-ठीक बताना, चुन्नी कैसी है?
महेंद्र बोला - वह तो खासे मजे में है, चाची!
आजकल वह करती क्या है, बेटे! तुम लोग अभी तक वैसे ही बच्चों-जैसे हो या घर-गिरस्ती का भी ध्यान रखते हो अब?
महेंद्र ने कहा - बचपना तो बिलकुल बंद है, चाची! सारे झंझटों की जड़ तो किताब थी - चारुपाठ - वह जाने कहाँ गायब हो गई, अब ढूँढ़े भी नहीं मिलती, कहीं।
- अरे, बिहारी क्या कर रहा है?
महेंद्र ने कहा - अपना जो काम है, उसे छोड़ कर वह सब कुछ कर रहा है। पटवारी-गुमाश्ते उसकी जायदाद की देख-भाल करते हैं। वे क्या देख-भाल करते हैं, खुदा जाने। बिहारी का हमेशा यही हाल रहा। उसका अपना काम दूसरे लोग देखते हैं, दूसरों का काम वह खुद देखता है।
अन्नपूर्णा ने पूछा - विवाह नहीं करेगा क्या?
महेंद्र जरा हँस कर बोला - कहाँ, ऐसा कुछ तो दिखाई नहीं पड़ता।
अन्नपूर्णा को अंतर के गोपन स्थान में एक चोट-सी लगी।
महेंद्र ने कभी मजाक से, कभी गंभीर हो कर अपनी गिरस्ती का मौजूदा हाल उन्हें सुनाया, केवल विनोदिनी का कोई जिक्र उसने नहीं किया।
कॉलेज अभी खुला था। महेंद्र के ज्यादा दिन काशी में रहने की गुंजाइश न थी। लेकिन सख्त बीमारी के बाद अच्छी आबोहवा में सेहत सुधारने की जो तृप्ति होती है, काशी में अन्नपूर्णा के पास महेंद्र को हर रोज उसी तृप्ति का अनुभव हो रहा था - लिहाजा दिन बीतने लगे। अपने आप ही से विरोध की जो स्थिति हो गई थी, वह मिट गई। इन कई दिनों तक धर्मप्राण अन्नपूर्णा के साथ रह कर दुनियादारी के फर्ज़ ऐसे सहज और सुख देने वाले लगे कि महेंद्र को उनके हौआ लगने की पिछली बात हँसी उड़ाने-जैसी लगी। उसे लगा - विनोदिनी कुछ नहीं। यहाँ तक कि उसकी शक्ल भी वह साफ-साफ याद नहीं कर पाता। आखिरकार बड़ी दृढ़ता से महेंद्र मन-ही-मन बोला - आशा को मेरे हृदय से बाल-भर भी खिसका सके, ऐसा तो मैं किसी को, कहीं भी नहीं देख पाता।
उसने अन्नपूर्णा से कहा - चाची, मेरे कॉलेज का हर्ज हो रहा है, अब इस बार तो मैं चलूँ! तुम संसार की माया छोड़ कर यहाँ आ बसी हो अकेले में, फिर भी अनुमति दो कि बीच-बीच में तुम्हारे चरणों की धूल ले जाया करूँ!