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लोगों का काम है कहना

अभी मैं सुबह के कार्यों से निवृत्त होकर नाश्ता लेकर बैठी थी कि तभी मोबाइल बज उठा,देखा तो सरिता का फ़ोन था।थोड़ी देर सामान्य बातों के उपरांत उसने किंचित रोषपूर्ण स्वर में बताना प्रारंभ किया,"अरे लता,तुम्हें पता है, अभी रजत जी को गुजरे 16 दिन हुए हैं और दीपिका ने नर्सिंग होम जाना प्रारंभ कर दिया।ऐसा भी क्या पैसे का हवस कि एक माह पति के गुजरने का शोक भी न मना सकी।और तो औऱ, सफ़ेद साड़ी तो छोड़ो,रँगीन सलवार-कुर्ते में जा रही है, उसपर बिंदी,लिपिस्टिक भी लगा लिया।हद है बेशर्मी की,कम से कम दुनियादारी का ही ख्याल रख लेती।हम भी कम पढ़े-लिखे तो नहीं थे लेकिन सिन्हा जी के गुजरने के पश्चात पूरे साल भर घर से अत्यंत आवश्यक कार्यों के अतिरिक्त बाहर नहीं निकली।

थोड़ी देर औऱ भड़ास निकालने के बाद सरिता ने तो फोन काट दिया, किंतु मैं अन्मयस्क सी सोचने लगी कि सरिता क्या अधिकांश लोगों की मानसिकता ऐसी ही है।दुःख होने से ज्यादा उसका प्रदर्शन आवश्यक होता है, शायद सबसे सहानुभूति पाने का यह आसान सा साधन है।फिर लोगों की मनोवृत्ति दूसरों को दुःखी एवं निरीह देखकर सुकून पाने की होती है, अतः जब कोई स्वाभिमान से बिना सहारे के जीना चाहता है तो सबको यह हज़म नहीं होता और आक्षेपों तथा छिद्रान्वेषण का सिलसिला शुरू हो जाता है।

हम एक अच्छी कॉलोनी में निवास करते हैं,50 से 55 आयुवर्ग की हम 9-10 महिलाओं में अच्छी मित्रता है, सभी उच्च शिक्षित एवं सम्पन्न परिवार से सम्बंधित हैं,जिनमें कुछ गृहणी तथा कुछ सम्मानित पदों पर कार्यरत हैं।एक-दूसरे के घरों में जाकर अनावश्यक वार्तालाप मुझे पसंद नहीं, पार्क में टहलने के दौरान बात-चीत हो जाती है या किसी सार्वजनिक आयोजन अथवा तीज- त्यौहार पर मुलाकात।

रजत-दीपिका चिकित्सक थे,उनका अपना अच्छा चलता हुआ नर्सिंग होम है, उन्होंने पास में इस कॉलोनी में अपना निवास बना रखा है।आज के शिक्षित एवं उच्च-मध्यमवर्गीय परिवारों की भांति वैचारिक भिन्नता के कारण थोड़े मतभेद उनके मध्य भी चलते रहते थे लेकिन कुल मिलाकर सब लगभग ठीक ही था।बड़ा बेटा MBBS कर रहा था और बेटी अभी बारहवीं में थी,वह प्रशासनिक सेवा में जाना चाहती थी।समस्या और दुःख कब किस रूप में सुखद जीवन में सेंध लगा दे,पता ही नहीं चलता।चिकित्सक होने के बावजूद लिवर कैंसर ने रजत को अपनी गिरफ्त में ले लिया, जबकि वह किसी भी नशे से कोसों दूर था।काफ़ी ट्रीटमेंट के बाद भी वह अंततः मौत से हार गया, आखिरी कुछ माह उसके बेहद तकलीफदेह थे।अपने भी उसकी मौत की प्रार्थना कर रहे थे, जिससे उसे इस पीड़ा से निजात मिल सके।

रजत के जाने का अफसोस जितना दीपिका एवं उनके बच्चों को होगा,उससे अधिक औऱ किसी को तो कदापि नहीं होगा।उसकी रिक्तिपूर्ति असम्भव है लेकिन जीवन तो जाने वाले के साथ नहीं रुकती।बात सिर्फ पैसे की नहीं है,नर्सिंग होम में आने वाले रोगियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ना भी तो अनुचित है,उन्हें समुचित चिकित्सा प्रदान कर उनकी तकलीफ़ से छुटकारा दिलाना बेहद सुकून देता है।फिर स्वयं को व्यस्त रखना किसी भी दुःख से जीतने का सर्वोत्तम उपाय है।मेरे विचार से अपने दुःख-तकलीफ़ का ढिंढोरा पीटना सरासर बेवकूफी है।सत्य है कि लोगों के मात्र खोखले सहानुभूतिपूर्ण बोलों से किसी के घाव तो भरेंगे नहीं,बल्कि एक स्वाभिमानी व्यक्ति को अनावश्यक दयाभाव स्वीकार्य नहीं होता।कटु सत्य यही है कि अधिकांश लोग सिर्फ़ बातों के हितैषी होते हैं,वह भी सामने।पीठ पीछे आलोचना-विवेचना, कटुक्ति उनका प्रिय शग़ल होता है।

मैंने दीपिका को कल देखा था,नेचुरल लिपिस्टिक,माथे पर छोटी सी बिंदी लगाए,हाथों में हमेशा पहनने वाले सोने के कड़े,गले में चेन ,एक अंगूठी एवं सुरुचिपूर्ण सूट में वह हमेशा की तरह ग्रेसफुल एवं शालीन दिख रही थी।मैं उसके साहस की मन से कायल हूँ।शायद यही बात लोगों को हज़म नहीं हो रही थी।कितने अफसोस की बात है कि आधुनिकता,बराबरी, स्त्री स्वतंत्रता की बड़ी-बड़ी बातें करने वाले लोगों की मानसिकता अभी भी दकियानूसी ही है।लोग क्यों एक स्त्री को हमेशा दयनीय, दूसरों पर निर्भर देखना चाहते हैं।अफसोस तो यह है कि छिद्रान्वेषण में महिलाएं ही सबसे आगे होती हैं।एक आत्मनिर्भर एवं दृढ़ महिला अपनों-परायों सभी की निगाहों में खटकती है।खैर, लोगों का काम है कहना,हमें सही कदम का सदैव उत्साहवर्धन एवं सराहना करनी चाहिए।

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