इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 32 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • कोन थी वो?

    वो इक खाब है या हकीकत ये लफ्जों में बयान ना कर सकता है पता न...

  • क से कुत्ते

    हर कुत्ते का दिन आता है, ये कहावत पुरानी है,हर कोई न्याय पात...

  • दिल से दिल तक- 7

    (part-7)अब राहुल भी चिड़चिड़ा सा होने लगा था. एक तो आभा की ब...

  • Venom Mafiya - 1

    पुणे की सड़कों पर रात की ठंडी हवा चल रही थी। चारों ओर सन्नाटा...

  • बारिश की बूंदें और वो - भाग 6

    तकरार एक दिन, आदित्य ने स्नेहा से गंभीरता से कहा, "क्या हम इ...

श्रेणी
शेयर करे

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 32

32

चल नहीं पाया बहुरूपिए का जादू

विजयनगर में अपनी-अपनी विलक्षण कला का प्रदर्शन करने वाले कलावंत अकसर आया करते थे। राजा कृष्णदेव राय उनकी काफी कद्र करते थे और उन्हें उचित पुरस्कार देकर विदा करते थे। पर कभी-कभी बड़ी अजीबोगरीब घटनाएँ भी घट जाती थीं। विजयनगर की प्रजा उन्हें भूलती नहीं थी। लोग बार-बार उन किस्सों को एक-दूसरे को तथा दूसरे राज्यों से आने वाले मेहमानों को सुनाया करते थे।

एक बार ऐसा ही एक मजेदार किस्सा हुआ, जिसे याद करके बाद में भी राजा कृष्णदेव राय और दरबारियों को हँसी आ जाती थी। हुआ यह कि एक बार राजा कृष्णदेव राय के दरबार में एक बहुरूपिया आया। बोला, “महाराज, मैं कमालपुर राज्य से आया हूँ। मुझ जैसा बहुरूपिया दुनिया में कोई और नहीं है। आप कहें, तो मैं अपनी अनोखी कला का प्रदर्शन करूँ?”

राजा ने उसे अगले दिन राज उद्यान में अपना हुनर दिखाने के लिए कहा।

कार्यक्रम के लिए राज उद्यान में विशाल शामियाना लगाया गया। एक विशाल मंच भी बनाया गया, जहाँ बहुरूपिए को अलग-अलग वेश धारण करके, अपनी कला दिखानी थी। राजधानी के प्रमुख कलाकारों, विद्वानों, व्यापारियों और अन्य सम्मानित लोगों को भी आमंत्रित किया गया। राजा और प्रमुख दरबारियों के बैठने के लिए अलग आसन लगे थे।

अगले दिन राजधानी में सैकड़ों लोग बहुरूपिए का खेल देखने आ गए। राजा कृष्णदेव आते दिखाई दिए, तो मंत्री, सेनापति और पुरोहित ने आगे बढ़कर उनका स्वागत करते हुए कहा, “आइए महाराज!”

पर तेनालीराम अपनी जगह पर ही खड़ा रहा।

मंत्री ने उसकी ओर इशारा करते हुए कहा, “महाराज, लगता है, तेनालीराम को आपके आने से खुशी नहीं हुई।”

इस पर भी तेनालीराम कुछ बोला नहीं। अपनी जगह खड़ा-खड़ा मुसकराता रहा।

कुछ देर बाद राजा अपने सिंहासन पर बैठने लगे। तभी तेनालीराम ने आगे आकर कहा, “क्षमा करें, आपकी सही जगह यह नहीं है। आप मंच पर पधारें।”

“क्या मतलब...?” तेनालीराम की बात सुन, मंत्री समेत सबकी त्योरियाँ चढ़ गईं।

“मतलब साफ है।” तेनालीराम ने हँसते हुए कहा, “महाराज के स्थान पर महाराज बैठें और कलाकार अपने मंच पर...!”

इतने में शोर सुनाई दिया, “राजा आ गए...राजा आ गए!”

लोग हैरान थे, राजा तो अभी-अभी आ चुके, तो फिर दूसरे कृष्णदेव राय कहाँ से आ गए।

सामने राजा को अपना प्रतिरूप दिखाई दिया, तो वे चौंके। उन्हें क्रोध में देखा, तो राजा बने बहुरूपिया ने सिर झुकाकर कहा, “महाराज, मैंने अपनी असाधारण कला का प्रदर्शन करने का वायदा किया था। सब पर मेरी कला का जादू चढ़ा, पर अकेला तेनालीराम है, जिसने मुझे पहचान लिया।”

राजा ने सुनकर तेनालीराम की ओर देखा तो वह बोला, “यह तो बहुत आसान था। इसलिए कि मुझे पता है कि हमारे दयानिधान सभा में आते हैं, तो किस तरह हौले से सिर हिलाकर सबका अभिवादन करते हैं। यह बहुरूपिया और कुछ भी सीख ले, पर वह अंदाज...! उसे तो वह सात जन्मों में भी नहीं सीख सकता।”

सुनते ही राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। उन्होंने तेनालीराम को गले से लगा लिया।

बहुरूपिए को अपनी कला के लिए ढेर सारी अशर्फियाँ इनाम में मिलीं, पर तेनालीराम को उससे दोगुना इनाम मिला। मंत्री और दरबारियों के चेहरे देखने लायक थे।

विजयनगर की प्रजा ने भी इस किस्से का खूब आनंद लिया। लोग खूब रस ले-लेकर इस किस्से को आपस में तथा दूसरे राज्यों से आए अतिथियों को सुनाया करते थे।