इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 30 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 30

30

और चिड़ियों ने जी भरकर खाया

एक बार की बात, राजा कृष्णदेव राय के दरबार में ज्यादा काम नहीं था। फुर्सत के क्षणों में राजा कृष्णदेव राय दरबारियों से गपशप कर रहे थे। दरबारी भी बीच-बीच में किसी बहाने से अपनी काबलियत और स्वामिभक्ति का बखान कर रहे थे। कुछ ने चाटुकारिता भी शुरू कर दी थी, पर तेनालीराम चुप बैठा था। उसे भला अपने बारे में कहने की क्या जरूरत थी?

मंत्री तथा कुछ और दरबारियों ने तेनालीराम की ओर देखकर छींटाकशी की कोशिश की। पर तेनालीराम तब भी कुछ नहीं बोला। वहीं बैठा चुप-चुप मुसकराता रहा।

इस पर खुद राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम की जमकर तारीफ की। साथ ही यह भी कहा, “तेनालीराम हमारे दरबार का सबसे कीमती हीरा है जिसका मोल अब सारी दुनिया समझ गई है। इशारों-इशारों में बड़ी बात कह देना कोई चाहे तो तेनालीराम से सीख सकता है।”

पर तेनालीराम की इतनी प्रशंसा सुनकर मंत्री और राजपुरोहित दोनों कुढ़ रहे थे। मंत्री ने कहा, “महाराज, तेनालीराम चतुर तो है, पर कंजूस और स्वार्थी भी कम नहीं है।”

राजा चौंके। बोले, “अरे ऐसा! मुझे तो पता नहीं था।”

मंत्री बोला, “महाराज, पुरोहित जी से पूछिए। उन्होंने मुझे तेनालीराम का एक बड़ा अजीब किस्सा सुनाया था।”

इस पर राजा कृष्णदेव राय ने राजपुरोहित की ओर देखा। राजपुरोहित ताताचार्य बोले, “महाराज, एक बार मैं तेनालीराम के साथ भ्रमण के लिए गया था। मौसम अच्छा था। हमने तय किया था कि दिन भर घूमेंगे। कुशा नदी के जल में स्नान करेंगे। बाद में कहीं स्वयं भोजन तैयार करेंगे। फिर खा-पीकर टहलते हुए लौटेंगे। उस दिन तेनालीराम ने मुझे भूखा मार दिया। जो भी भोजन था, अकेले डकार गया।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय ने तेनालीराम से पूछा, “क्यों तेनालीराम, क्या पुरोहित जी ठीक कह रहे हैं?”

तेनालीराम हँसा। बोला, “कुछ ठीक, कुछ बे-ठीक!”

राजा ने झल्लाकर कहा, “भई, पहेलियाँ न बुझाओ। ठीक-ठीक बताओ, तुम कहना क्या चाहते हो?”

तेनालीराम बोला, “महाराज, यह ठीक है कि मैं और पुरोहित जी साथ-साथ घूमने निकले थे। नदी में स्नान करने के बाद मैंने कहा कि चलिए, अब मिलकर भोजन तैयार करें। पर पुरोहित जी ने कहा कि तेनालीराम, न मुझे खाना बनाना आता है, न चूल्हा जलाना आता है। मुझे कुछ भी नहीं आता! इतना कहने के बाद पुरोहित जी मजे में एक पेड़ के नीचे सो गए।”

“फिर क्या हुआ?” राजा ने उत्सुकता से भरकर पूछा।

तेनालीराम बोला, “महाराज, मैंने चूल्हा जलाकर रोटियाँ सेकीं, खूब स्वादिष्ट खीर बनाई, पर पुरोहित जी सोते ही रहे। लिहाजा मैंने आधा खाना एक टोकरी में रखा, बाकी आधा खुद खा लिया। इसके बाद मैं पुरोहित जी को जगाने की सोच ही रहा था कि तभी चीं-चीं-चीं करती बहुत सी चिड़ियाँ और कौए वहाँ आ गए। अचानक मुझे ध्यान आया कि पुरोहित जी ने कहा था कि उन्हें चूल्हा जलाना, खाना बनाना, कुछ भी नहीं आता, तो शायद उन्हें खाना खाना भी न आता हो! केवल हवा पीकर ही रहते हों। फिर वे तो इतने उदार भी हैं कि उनके बजाय अगर मैं चिड़ियों को खिला दूँ तो उन्हें ज्यादा खुशी होगी! लिहाजा सारा खाना मैंने चिड़ियों और कौओं को खिला दिया। बताइए, इसमें मेरी क्या गलती है?”

सुनते ही राजपुरोहित की ओर देख, राजा कृष्णदेव राय और सब सभासद हँसने लगे।

तेनालीराम बोला, “जब पुरोहित जी उठे तो मैंने उन्हें सब कुछ ठीक-ठीक बता दिया। मैंने सोचा था कि चिड़ियों और कौओं को खिलाने की बात सुनकर वे खुश होंगे, पर वे तो उलटे लाठी लेकर मेरे पीछे दौड़े। बड़ी मुश्किल से जान बचाकर मैं दरबार तक आ पाया!”

अब तो राजपुरोहित जी की हालत और भी खराब थी। तेनालीराम की किरकिरी करने चले थे, पर खुद अपनी ही बेइज्जती करा बैठे।

दरबार में सभी तेनालीराम की हाजिरजवाबी की तारीफ कर रहे थे।

राजा कृष्णदेव राय ने हँसते हुए कहा, “यही तो मैं भी कह रहा था कि इशारों-इशारों में बड़ी बात कह देना हमारे दरबार में सिर्फ तेनालीराम को आता है। दूसरे भी चाहें तो उससे सीख सकते हैं।”

सुनकर चाटुकार दरबारियों के चेहरे उतर गए। तेनालीराम मंद-मंद मुसकरा रहा था।