इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 28 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 28

28

हमारे राजा तो बहुत अच्छे हैं पर...!

राजा कृष्णदेव राय के दरबारियों में तेनालीराम को राजा जितना चाहते थे, प्रजा भी उतना ही पसंद करती थी। बाकी दरबारी तो अपनी शान-शौकत और कद बढ़ाना चाहते थे, पर तेनालीराम हमेशा प्रजा की भलाई की बात सोचता था। इसलिए प्रजा उसे जी-जान से चाहती और प्यार करती थी। लेकिन इसी कारण वह दूसरे दरबारियों की आँख की किरकिरी भी बन गया था। कई बार तो बड़ी अजीबोगरीब घटनाएँ हो जातीं। यहाँ तक कि तेनालीराम को अपमान का घूँट भी पीना पड़ता। पर फिर भी वह अपनी चतुराई से कोई न कोई राह निकाल ही लेता था।

एक बार की बात है, राजा कृष्णदेव राय का दरबार लगा था। पर उस दिन तेनालीराम छुट्टी पर था। दरबार में विजयनगर की प्रजा की हालत को लेकर बात हो रही थी। तभी अचानक मंत्री ने कहा, “महाराज, विजयनगर की प्रजा काफी खुशहाल है। अगर हम थोड़ा कर और बढ़ा दें, तो प्रजा पर ज्यादा भार नहीं पड़ेगा। पर इससे राजकोष बहुत बढ़ जाएगा। तब हम विजयनगर के विकास के लिए और भी बहुत-से काम कर पाएँगे।”

राजा ने दरबारियों से पूछा, तो सभी ने मंत्री की हाँ में हाँ मिलाई। सब दरबारी जानते थे कि तेनालीराम के सामने उनकी चल नहीं पाएगी। इसलिए वे चाहते थे कि उसके पीछे ही फैसला हो जाए।

राजपुरोहित ताताचार्य ने कहा, “महाराज, विजयनगर की प्रजा अच्छी तरह जानती है कि आप तो रात-दिन उसकी भलाई की ही बात सोचते हैं। पर बिना धन के तो कोई भी काम नहीं होता। यह प्रजा भी जानती है। इसलिए अगर आप थोड़ा सा कर बढ़ाएँगे, तो वह विजयनगर की प्रगति के लिए खुशी-खुशी कर देगी, और विजयनगर की तरक्की देखकर आपका प्रशस्ति गान भी गाएगी।”

पर राजा कृष्णदेव राय संकोच में थे। सोच रहे थे, “क्या सचमुच लोग बढ़ा हुआ कर दे पाने की स्थिति में हैं? कहीं हमारी प्रजा में ही कुछ लोग ऐतराज तो न करेंगे?”

उन्होंने अपनी शंका दरबारियों के आगे रखी। इस पर एक मुँहलगे दररबारी ने कहा, “महाराज, इक्का-दुक्का लोग तो ऐतराज करेंगे ही। पर उनकी क्यों चिंता की जाए? अगर ज्यादातर लोग खुश हैं तो गिनती के दो-चार लोग कुछ भी बोलते रहें, कोई फर्क नहीं पड़ता। आखिर थोड़े से लोगों के लिए राज्य का विकास रोका तो नहीं जा सकता न!”

राजा कृष्णदेव राय अब भी पसोपेश में थे। उन्होंने कहा, “कुछ दिन बाद तेनालीराम आ जाएगा। हम उसकी भी राय जान लें। तभी कोई निर्णय ठीक रहेगा।”

इस पर मंत्री ने कहा, “महाराज, आप तो उसकी आदत जानते ही हैं। उसकी वही बाबा आदम के जमाने की पुरानी-धुरानी सोच है, इसलिए वह हर काम में अड़ंगा लगाता है। जरूर इसमें भी वह तीन-पाँच करेगा। मगर महाराज, विजयनगर की तरक्की का सवाल है, जिसे देखने देश-विदेश से हर साल इतने लोग आते हैं। विजयनगर में कोई नयापन न होगा, तो उन्हें कैसा लगेगा? इसलिए महाराज, मैं तो कहता हूँ, बढ़े हुए करों की घोषणा तत्काल कर दी जाए, तो अच्छा रहेगा।”

आखिर राजा कृष्णदेव राय को भी यह बात माननी पड़ी। उसी दिन मुनादी करवा दी गई कि अब विजयनगर की प्रजा को बढ़ा हुआ कर देना होगा।

कुछ दिनों बाद तेनालीराम राजदरबार में आया तो राजा ने कहा, “तेनालीराम, पिछले दिनों हमने प्रजा पर थोड़ा सा कर बढ़ाया है। जरा पता करके बताओ, इस बारे में प्रजा का क्या सोचना है?”

इस पर तेनालीराम एक क्षण के लिए चुप रहा। फिर बोला, “महाराज, मैंने तो पता कर लिया। जिस समय कर बढ़ाने की घोषणा की गई थी, मैं गाँव में ही था। वाकई विजयनगर की प्रजा इतनी खुशहाल है कि आपकी प्रशंसा करते नहीं थकती। आप चाहें तो खुद चलकर अपनी आँखों से देख लें।”

राजा ने खुश होकर कहा, “अच्छा, तब तो कल ही मैं तुम्हारे साथ चलूँगा।”

तेनालीराम बोला, “महाराज, अच्छा हो अगर आप दरबारियों को साथ न लें, बगैर लाव-लश्कर के चलें। तब आप प्रजा के हृदय की बात सुन पाएँगे।”

राजा कृष्णदेव राय को बात जँच गई। बोले, “ठीक है तेनालीराम। कल जरूर चलेंगे। और हमारी यात्रा भी गोपन ही रहेगी।”

अगले दिन राजा कृष्णदेव राय और तेनालीराम वेश बदलकर निकले। दोनों अपने-अपने घोड़े पर सवार। तेजी से घोड़ा दौड़ाते हुए राजा आसपास हर जगह नजर डाल रहे थे। पर गाँवों में वैसी खुशहाली तो कहीं भी न थी, जिसकी बात तेनालीराम ने कही थी। तो क्या तेनालीराम ने सच नहीं कहा था?

एक जगह गाँव के किसान-मजदूर बैठे बात कर रहे थे। तेनालीराम ने इशारा किया तो राजा कृष्णदेव राय भी घोड़े से उतर पड़े। दोनों दीवार की ओट में खड़े होकर बातें सुनने लगे। मैले और फटे-पुराने कपड़े पहने एक आदमी ने कहा, “इस बार कर बढ़ाकर राजा ने अच्छा नहीं किया। लगता है, कर देते-देते कमर टूट जाएगी।”

दूसरे ने कुछ सोचते हुए कहा, “हमारे राजा तो बहुत अच्छे हैं, पर लगता है, किसी चाटुकार दरबारी ने उन्हें गलत सलाह दे दी है। अकसर दरबारों में ऐसे चाटुकार दरबारी ही जनता की मुसीबत बढ़ा देते हैं।”

तीसरे ने कहा, “जो भी कहो भैया, मुसीबत अब सिर पर आ गई, तो कुछ न कुछ तो करना ही होगा। पहले साल में दो जोड़ी कपड़े खरीदते थे। अब एक ही ले पाएँगे। थिगलियाँ लगाकर उसी में गुजारा कर लेंगे।” कहते-कहते उसकी आवाज रोने जैसी हो गई।

चौथे ने दुखी होकर कहा, “बस भाई, क्या कहें? पहले कभी-कभार घी-दूध के दर्शन हो जाते थे। अब सूखी पर ही गुजारा करेंगे।”

पाँचवें ने एक आह भरते हुए अपनी मजबूरी बताई, “बेटी का विवाह सिर पर है और महँगाई अभी से बढ़ गई। पता नहीं क्या होगा? अब तो भगवान का ही सहारा है।”

उनमें एक बूढ़ा आदमी भी था। बोला, “देखो भाई, मैं राजा कृष्णदेव राय से बस एक ही बार मिला हूँ, जब वे फागुनी मेले के समय इस गाँव में आए थे। तब उन्होंने थोड़ी देर मुझसे बात की थी और गाँव के हालचाल पूछे थे। उसी से मैं समझ गया कि वे दिल के बहुत अच्छे हैं। इसलिए सच्ची पूछो तो भाई, मुझे अब भी लगता है, हमारे दयानिधान राजा कृष्णदेव राय फिर से सोचेंगे। वे प्रजा का दुख देख ही नहीं सकते।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय द्रवित हो गए। उन्होंने तेनालीराम को इशारा किया। दोनों वापस राजदरबार में लौट आए। राजा ने तुरंत बढ़ा हुआ कर वापस लेने की घोषणा करवा दी।

मंत्री और चाटुकार दरबारी हैरान थे कि एकाएक उनकी सारी मेहनत कैसे बेकार हो गई। वे चाहते थे, जनता परेशान होकर उनके पास आए और नाक रगड़े। तब मदद के नाम पर वे उनसे और पैसा झटकें। साथ ही राजा से कहकर अपना वेतन और भत्ते भी बढ़वा लें।...पर आखिर सब गुड़ गोबर हो गया। जरूर तेनालीराम ने ही कोई उलटा मंत्र पढ़ा होगा।

उधर जनता भी बिन कहे समझ रही थी कि यह तेनालीराम का ही करिश्मा है। तभी तो अचानक राजा का मन बदल गया और उन्होंने प्रजा का खयाल करके, बढ़ा हुआ कर वापस ले लिया। घर-घर राजा कृष्णदेव राय और तेनालीराम की प्रशंसा में गीत गाए जा रहे थे।