इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 22 Prakash Manu द्वारा बाल कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • अनोखा विवाह - 10

    सुहानी - हम अभी आते हैं,,,,,,,, सुहानी को वाशरुम में आधा घंट...

  • मंजिले - भाग 13

     -------------- एक कहानी " मंज़िले " पुस्तक की सब से श्रेष्ठ...

  • I Hate Love - 6

    फ्लैशबैक अंतअपनी सोच से बाहर आती हुई जानवी,,, अपने चेहरे पर...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 47

    पिछले भाग में हम ने देखा कि फीलिक्स को एक औरत बार बार दिखती...

  • इश्क दा मारा - 38

    रानी का सवाल सुन कर राधा गुस्से से रानी की तरफ देखने लगती है...

श्रेणी
शेयर करे

इतिहास का वह सबसे महान विदूषक - 22

22

इत्रफरोशों की पहचान तो तुम्हीं को है!

राजा कृष्णदेव राय वीर योद्धा थे, प्रजावत्सल थे, राजनय और कूटनीति के मर्मज्ञ भी। पर इसके साथ ही वह सौंदर्य-प्रेमी भी थे। उन्हें अच्छे और रुचिकर परिधान पहनने का शौक था। देश-देश के सुंदर वस्त्रों और कलात्मक आभूषणों की उन्हें बहुत अच्छी परख थी, तो साथ ही साथ वे इत्र-फुलेल के भी शौकीन थे। वे दूर से ही सूँघकर बता देते थे कि यह इत्र कहाँ का बना हुआ है और कितना कीमती है। अजमेर के इत्र के तो वे बहुत प्रशंसक थे। अगर राज्य का कोई सभासद या व्यापारी उस दिशा में घूमने जाता, तो वे उससे अजमेर का इत्र जरूर मँगवाते थे। इसी तरह कन्नौज के इत्र की वे बहुत प्रशंसा करते थे।

एक बार राजदरबार में इत्र की चर्चा हो रही थी। राजा कृष्णदेव राय ने इतनी बारीकी से अच्छे इत्र के गुणों की चर्चा की कि सभी चकित रह गए। मंत्री ने पूछा, “महाराज, इत्र बेचने वाले तो विजयनगर में कभी-कभार ही आते हैं। फिर आपको अच्छे इत्र की इतनी गहरी पहचान कैसे हो गई?”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। हँसते-हँसते उन्होंने बचपन का एक प्रसंग सुना दिया। बोले, “बचपन में एक बार कन्नौज का इत्र बेचने वाला आया था। उससे इत्र की कुछ शीशियाँ मैंने खरीदी थीं। वह इत्र लगाने से मुझे लगता, तन तो तन, मन भी महका-महका सा हवा में उड़ रहा है। जब तक वह इत्र था, मैं लगाता रहा। बाद में भी बहुत दिनों तक उन शीशियों को सँभालकर रखा। उन्हें सूँघते ही लगता, जैसे मैं कल्पना की किसी और दुनिया में पहुँच गया हूँ।”

सुनकर दरबारियों को भी आनंद आ रहा था। जैसे वे भी किसी और दुनिया में पहुँच गए हों।

फिर कुछ रुककर राजा कृष्णदेव राया ने बताया, “तब से कन्नौज के इत्र का मैं मुरीद बन गया। पर दुर्भाग्य से बाद में जो वहाँ का इत्र बेचने आए, उनके इत्र में वह बात नहीं थी। मैंने उनसे इत्र लिया। थोड़े दिन लगाया, फिर रख दिया। मन बचपन की उन्हीं खाली शीशियों को खोजता रहा। अहा, उस इत्र में क्या बात थी!”

मंत्री ने फौरन दिमाग दौड़ाया। कहा, “महाराज, कन्नौज कौन सा दूर है? आप कहें तो वहाँ से इत्र की सौ शीशियाँ मँगवा ली जाएँ।...या फिर आप कहें, तो वहाँ के इत्रफरोशों को बुलवा लिया जाए। वे यहीं आकर अपना इत्र तैयार करके हमें दे सकते हैं। बस, आप एक बार हाँ कह दीजिए।”

सुनकर राजा कृष्णदेव राय हँसने लगे। बोले, “हाँ तो कह दूँ, पर डरता हूँ! वह इत्र अगर बचपन के उस इत्र के मुकाबले का न हुआ तो मेरा मन और दुखी हो जाएगा। इसलिए अच्छा है कि बचपन की उस मीठी स्मृति को जस का तस सहेजकर रखे रहूँ। आखिर इसका भी अपना आनंद है।”

इस पर एक पुराना दरबारी नील माधव बोला, “महाराज, इत्र लगाने वाले तो बहुत देखे। पर इत्र का जैसा पारखी मैंने आपको पाया, वैसा तो शायद ही कोई हो। पता नहीं क्यों, आपके इस गुण की अभी तक किसी ने विस्तार से चर्चा नहीं की।”

मंत्री और दरबारियों ने भी हाँ में हाँ मिलाई। कहा, “महाराज, लगता है, आपका बस एक ही रूप हमने देखा है। आपके बहुत-से रूप और कलाएँ तो हमारे आगे कभी आईं ही नहीं!”

मंत्री बोला, “महाराज, आप कला-प्रेमी हैं, यह तो विजयनगर में हर कोई जानता है। दूर-दूर तक इसकी खयाति भी है। पर आप ऐसे सौदर्य-प्रेमी हैं, इसकी तो कल्पना भी न थी।”

राजा कृष्णदेव राय मुसकराए। फिर ठिठोली करते हुए बोले, “बहुत दिनों से कन्नौज का कोई अच्छा इत्र वाला आया नहीं। कभी आएगा तो मैं आपको भी उसके इत्र का ऐसा ही पारखी बना दूँगा कि आप आप फिर से जवान हो जाएँगे।!”

सुनकर सभी दरबारी खिलखिलाकर हँसने लगे। इसी आनंद-प्रमोद के बीच दरबार की कार्यवाही पूरी हुई।

इसके कुछ दिन बाद की बात है। राजा कृष्णदेव राय के दरबार में रंग-बिरंगी पगड़ी पहने, काली दाढ़ी वाले दो लोग आए। लंबा कद, भरा-पूरा सेहतमंद शरीर। दोनों ने पीले रंग का चोगा पहना हुआ था, जिस पर जगह-जगह छोटी-छोटी रंग-बिरंगी इत्र की शीशियाँ खुसी हुई थीं। उनके आसपास खुशबुओं का ऐसा घेरा था कि दूर से लगता था, इत्रफरोश ही होंगे।

उन्होंने आते ही राजा कृष्णदेव राय को झुककर प्रणाम किया। फिर उनमें से बड़ी आयु वाला शख्स बोला, “महाराज, हम लोग इत्रफरोश हैं। मेरा नाम लक्खीलाल है, साथ में मेरा छोटा भाई चुन्नीलाल है। हम अजमेर से आए हैं। वहाँ का इत्र सारी दुनिया में मशहूर है। आपके लिए भी कुछ नायाब बानगियाँ लाए हैं। आप लगाकर देखिए, खुश हो जाएँगे!”

अजमेर के इत्र की बात सुनते ही राजा उत्सुक हो उठे। उन्होंने तुरंत इत्र दिखाने को कहा। थोड़ा-सा सूँघा, तो उनका मन वाकई खुश हो गया। बोले, “सचमुच बड़ी नायाब चीज लाए हो तुम लोग। बचपन में एक बार कोई अजमेर का इत्र दे गया था। उसकी याद अब भी मुझे है। मुझे वह इतना अच्छा लगा था कि बड़े दिनों तक मैंने इत्र की खाली शीशियाँ सँभालकर रखी थीं। कुछ दिन पहले मैंने दरबारियों से उसकी चर्चा भी की थी। आज तुम्हारे इत्र ने फिर से बचपन के उस लाजवाब इत्र की याद दिला दी।”

इस पर छोटा इत्रफरोश चुन्नीलाल बोला, “महाराज, आप इत्र लगाकर देखें। बचपन में आपने जो इत्र लगाया था, उसे भूल जाएँगे। फिर यह तो बस एक नमूना ही है। हमारे पास इतने किस्म का इत्र है कि आप अचंभित हो जाएँगे। थोड़ी फुर्सत में आप आजमाकर देखें, तो हमें भी अच्छा लगेगा।”

मंत्री और दरबारियों ने भी इत्र की जमकर तारीफ की। राजा ने इत्र की कई शीशियाँ लीं। कहा, “अब तो मैं बस यही इत्र लगाया करूँगा। देश-विदेश से राजा-महाराजा दुर्लभ उपहार लेकर आते हैं। उन्हें भी उपहार में क्यों न इत्र की ये शीशियाँ दी जाएँ? वे कभी भूल न पाएँगे।”

“हाँ महाराज, इससे दुर्लभ उपहार भला और क्या होगा?” दरबारियों ने भी तरंग में आकर कहा।

इत्र बेचने वाले अपने इत्र की तारीफ और बिक्री से बड़े खुश थे। बड़ा भाई लक्खीलाल बोला, “महाराज, आपकी पसंद नायाब है। हमने आपके गुणों की बहुत चर्चा सुनी थी। इसीलिए बड़ी उम्मीद से यहाँ आए थे। अब आपके गुण गाते हुए जाएँगे और हर जगह आपके गुणों का बखान करेंगे।”

सुनकर राजा आनंदित हो उठे। वे कुछ कहते, इससे पहले ही छोटे भाई चुन्नीलाल ने कहा, “महाराज, हो सकता है, आपको बाद में फिर से ऐसे इत्र की दरकार हो। पर हमारा दावा है, ऐसा इत्र दुनिया में कहीं और नहीं होगा। हाँ, आप चाहें तो विजयनगर में भी इसे तैयार करवा सकते हैं। फिर तो विजयनगर की प्रजा भी इस इत्र की अनोखी खुशबू का आनंद ले सकती है।”

“हाँ, यह तो अच्छा सुझाव है।” राजा कृष्णदेव राय कुछ सोचते हुए बोले।

मंत्री और दरबारियों ने भी कहा, “महाराज, ऐसा बढ़िया इत्र विजयनगर में ही आसानी से उपलब्ध हो जाए, इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता।”

इस पर राजा ने खुशी-खुशी अतिथिशाला में दोनों इत्रफरोशों के ठहरने की व्यवस्था कर दी। उनके लिए जरूरत की सभी चीजें भी मँगवा दीं।

एक-एक कर दस दिन बीते। राजा ने उत्सुकता से इत्रफरोशों को बुलवाकर पूछा, “इत्र कब तक तैयार हो जाएगा?...आपको कोई मुश्किल तो नहीं आ रही? किसी चीज की जरूरत हो तो बताएँ।”

इत्रफरोशों ने विनम्रता से जवाब दिया, “महाराज, बस थोड़ा समय और इंतजार करें। कल तक ऐसा नायाब इत्र तैयार हो जाएगा कि आप उम्र भर याद करेंगे।...पर महाराज, आपसे विनती है, जब इत्र तैयार हो जाए, तो पहले खुद आप आकर देखें कि इत्र कैसा है! आप इत्र के गुणों के सच्चे पारखी हैं। आपका मन प्रसन्न होगा तो राजदरबार में भी उसकी खूब रौनक रहेगी।”

सुनकर राजा मुसकराने लगे।

अगले दिन दोनों इत्रफरोशों ने राजदरबार में आकर कहा, “महाराज, वह अनोखा इत्र तैयार है। आप आएँ, आकर खुद देख लें कि इत्र कैसा है! फिर हम राजदरबार में भी उसका प्रदर्शन करेंगे, ताकि सभी उसका आनंद उठाएँ।”

“ठीक है!” कहकर राजा मुसकराते हुए साथ चल दिए।

अतिथिशाला में जाकर इत्र-फुलेल बेचने वालों ने एक बड़ी-सी लाल रंग की पेटी खोली। उसमें एक और सुंदर पेटी थी। उसे खोलने पर अंदर से फिर एक चाँदी की पेटी निकली। उसमें एक नीले काँच की गोल डिब्बी थी। उस डिब्बी के अंदर छोटी-सी काँच की एक शीशी थी। उसे निकालकर राजा को देते हुए बड़ा इत्रफरोश लक्खीलाल बोला, “महाराज, इसी में है वह बेशकीमती इत्र। जरा आप सूँघिए तो! आपको आनंद आ जाएगा।”

राजा कृष्णदेव राय आगे बढ़ें, इससे पहले ही बड़े जोर की कड़क आवाज सुनाई दी, “ठहरिए, महाराज! अभी रुकिए। मेरे पास इससे भी अच्छा इत्र है। एकदम नायाब और पुरअसर। पहले जरा वह इन्हें सूँघने दीजिए।”

और उसके साथ ही विजयनगर के सैनिक धप-धप करके कूद पड़े। उन्होंने झट दोनों इत्रफरोशों को पकड़कर बेड़ियों में जकड़ दिया।

राजा कृष्णदेव राय अचंभे में थे। तभी तेनालीराम सामने आया। बोला, “महाराज, इत्र वाकई नायाब है। जरा आप खुद इनके अनोखे इत्र का कमाल देखें।”

जैसे ही उन इत्रफरोशों को उस छोटी शीशी का इत्र सुँघाया गया, दोनों बेहोश होकर गिर पड़े।

देखकर राजा कृष्णदेव राय हक्के-बक्के रह गए।

उनके पूछने पर तेनालीराम हँसकर बोला, “महाराज, मुझे कल ही शक हो गया था, जब इन दोनों ने आपको अलग से बुलाकर इत्र को आजमाने के लिए कहा था। तब इन्होंने एक-दूसरे की ओर देखकर आँखों में इशारा किया था। वह मैंने देख लिया। इसी लिए आपके पीछे-पीछे मैं भी आ गया, ताकि आप किसी संकट में न पड़ जाएँ।”

राजा ने तेनालीराम को गले से लगा लिया। फिर हँसकर बोले, “तेनालीराम हमें खुद पर बड़ा गर्व था कि हमें इत्र की अच्छी पहचान है। भले ही इत्र की पहचान हमें ज्यादा हो, पर इत्रफरोशों की पहचान तो तुम्हीं को है। इसीलिए तो यह हादसा टल गया।”

सुनकर तेनालीराम भी हँस पड़ा।

अब तो पूरे विजयनगर में तेनालीराम की खूब वाहवाही हो रही थी। राजदरबार में भी मंत्री, राजपुरोहित और सेनापति ने तेनालीराम की तारीफ करते हुए कहा, “हमें तेनालीराम पर गर्व है। इस जैसा चतुर और चौकन्ना शख्स विजयनगर में शायद ही कोई और हो!”