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हीरोइन - 8

फ़िल्मों के इतिहास में सबसे कठिन, कांटेदार और करामाती मुकाबला रेखा का ही माना जाता है।
जितनी प्रतिद्वंदिता अपनी समकालीन अभिनेत्रियों से रेखा को मिली, वो एक मिसाल है। रेखा सितारों के बीच चांद की तरह एकाएक नहीं दिख गईं। उन्हें ज़ीनत अमान के जुझारूपन, परवीन बॉबी के रूप, रीना रॉय के प्रशिक्षित अभिनय, जया बच्चन की "अपने घर - परिवार की लड़की" की छवि, राखी गुलज़ार की भाव प्रवण अभिव्यक्ति और शबाना आज़मी व स्मिता पाटिल के सार्थक फ़िल्म अभियान से लोहा लेकर अपने को सिद्ध करना पड़ा।
लगभग इसी दौर में योगिता बाली, विद्या सिन्हा, जरीना वहाब ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।
ज़ीनत अमान सौंदर्य प्रतियोगिता जीत कर मॉडलिंग के अनुभव और "मिस एशिया" के खिताब के साथ अत्याधुनिक लड़की के रूप में सत्तर के दशक में आईं। हलचल, हंगामा और हरे राम हरे कृष्ण उनकी फ़िल्मों के नाम भी थे।
एक दौर ऐसा आया जब हर बड़ा निर्माता उन्हें अपनी फ़िल्म में लेने को आतुर दिखा। मनोज कुमार की रोटी कपड़ा और मकान, बी आर चोपड़ा की धुंध, राज कपूर की सत्यम शिवम सुंदरम, संजय खान की अब्दुल्ला, फिरोज़ खान की कुर्बानी, कृष्णा शाह की शालीमार और रशिया के सहयोग से बनने वाली अलीबाबा और चालीस चोर ने ज़ीनत अमान के नाम का डंका बजा दिया। हर फ़िल्म में नई हीरोइन तलाशने वाले देवानंद ने उन्हें अपनी कई फ़िल्मों की कमान सौंपी।
लेकिन फ़िल्म मीडिया डगमगाता रहा। दर्शक सोचते रहे कि अब... बस अब...बस इस फ़िल्म के बाद, ज़ीनत अमान को नंबर वन हीरोइन घोषित कर दिया जाएगा। पर वो दिन नहीं आया।
ट्रेड पंडितों और फ़िल्म समीक्षकों ने इसके कुछ कारण भी बताए।
कहा जाता था कि हिंदी सिनेमा के दर्शकों ने अब तक विदेशी शक्ल सूरत, विदेशी नाम और विदेशी तौर तरीकों वाली किसी अभिनेत्री को फिल्मी दुनिया की सिरमौर नहीं बनाया। यहां नरगिस, मधुबाला,मीना कुमारी ही नहीं, रीना, लीना तक नाम बदल कर आईं।
ज़ीनत ने छवि बदलने के लिए ठेठ देशी और गंवई रोल भी लिए। पर ऐसी भूमिकाओं में उनके खुले वस्त्र विन्यास को दर्शकों ने उनकी छद्म छवि ही माना। एक समीक्षक ने लिखा कि वो बी आर चोपड़ा जैसे निर्देशक के साथ धुंध फ़िल्म में एक कोर्ट ड्रामा में अपने आत्म हत्या के इरादे को ये कह कर जाहिर करती हैं "जज साहब, मेरी इच्छा हुई कि मैं कुछ खाकर सो रहूं", कि जैसे वो कोई स्नैक्स खाकर दोपहर के विश्राम की बात कर रही हों।
परवीन बॉबी के साथ भी कमोबेश यही हुआ। वो अमिताभ बच्चन की हीरोइन बन कर भी अपनी सफलता को भुना न सकीं। बाक़ी सबकी भी कोई न कोई सीमा रही। उन्हें अपने दक्षता क्षेत्र की विशेषज्ञता के साथ "टाइप्ड" माना गया।
उधर रेखा का आगमन बहुत छोटी उम्र में नवीन निश्चल के साथ "सावन भादों" फ़िल्म से हुआ। वो "एक और हीरोइन" के तौर पर ही ढेर सारी फिल्में भी करती रहीं। कुछ सफल,कुछ असफल।
लेकिन इस दक्षिण से आई, सांवली कही जाने वाली हीरोइन ने जीवन में चार असफल प्रेम देख लेने के बाद संजीदा होकर ऐसा चोला बदला कि दर्शक दंग रह गए।
अमिताभ बच्चन से मन ही मन प्रेम करने और उनके साथ एक के बाद एक कई फ़िल्में कर लेने के बाद मुकद्दर का सिकंदर, घर, खूबसूरत और उमराव जान जैसी संजीदा फिल्मों के धुरंधर धमाकों ने रेखा का दरवाज़ा टॉप पोजीशन के लिए खोल दिया और वो हेमा मालिनी का विकल्प बन कर "नंबर वन" क्लब में दाखिल हो गईं।
बॉलीवुड का हर बड़ा एक्टर उनके साथ जोड़ी बनाकर फ़िल्म करने के लिए लालायित रहने लगा।
हेमा मालिनी उन दिनों बाक़ी सभी नायकों से ध्यान हटा कर धर्मेन्द्र में मगन होने लगी थीं। उनका हाल ये था कि वो धर्मेन्द्र के साथ प्रेम - पींग इस तरह बढ़ा रही थीं -
बाजी खेलूं प्रेम की, प्रेम पिया के संग,
मैं जीती तो पिया मेरे, हारी तो पी के संग!
ऐसे में रेखा का नाम बहुत लंबी फ़िल्म श्रृंखला के साथ नरगिस, मधुबाला, मीना कुमारी,वैजयंती माला, साधना, शर्मिला टैगोर, हेमा मालिनी के बाद अगली कड़ी के रूप में जुड़ गया।


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