लीला - (भाग 22) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 22)

ज़िंदगी के चढ़ाव उतारों ने उसे ख़ुद विस्मय से भर दिया था!
जाने कैसे किसी पत्रकार को ख़बर लग गई इस काण्ड की और एक संभागीय दैनिक में फोटो सहित पूरा विवरण छप गया! उसे नींद नहीं आ रही थी। नींद सामान्य स्थिति में ही आती है। न सम्मान में, न अपमान में। कतरन उसने सँभाल कर रख ली। कई लोगों ने बधाइयाँ दीं। जैसे पाँड़ेजी ने, नंगे मास्साब ने, बरैया जी ने...। सबने कहा कि उसकी इमेज अब बदल गई है। वह एक दीन-हीन अबला से जुझारू सामाजिक कार्यकर्ता बन गई है। उसे इसी ओर अपने कदम बढ़ाने चाहिए! उस जैसी ‘पर्सनेलिटी’ का यह सामाजिक दायित्व भी बनता है...।
तब वह पहली दफा ख़ुद पर रीझी थी...। और इस आत्ममुग्धता में बार-बार उसे कलेक्टर साब का ख़्याल आ रहा था। वह उनसे मिलने दो बार उनके दफ़्तर भी जा चुकी थी। पर वे दोनों ही बार कहीं न कहीं निकल गए थे। आरजू उसके दिल में ही घुमड़ कर रह गई थी। उनके उपकार में उसका दिल ओर-छोर डूबा हुआ था। उसे हर वक़्त उन्हीं का ख़्याल बना रहता...।

हाईस्कूल परीक्षा बोर्ड में हुई अनियमितताओं के कारण रिजल्ट रुका हुआ था। उन दिनों बैठे-ठाले कुछ और नहीं सूझ रहा था। उसने ब्यूटीशियन का कोर्स ज्वाइन कर लिया था।
शहर के ‘शृंगारिका हर्बल पार्लर’ की ब्यूटीशियन एक तलाकशुदा बामन महिला थी, लीला ने यह बहुत बाद में जाना! और यह जानकर उसे उस पर दया भी आई कि वह उस जगह काम करती है जहाँ औरतों के बाल, पैरों की गंदगी, मालिस और फेशियल के बाद उनके शरीरों और चेहरों से उतरा चिकना पलस्तर जैसा हर तरफ़ बिखरा रहता है।
लेकिन प्रथम दृष्टया वह उसके ड्राइंगरूम को देखकर चकित रह गई थी, जहाँ सीखने की उम्मीदवार दो अन्य लड़कियाँ बैठी एडमीशन फार्म भर रही थीं। उस हाल की शोभा ही न्यारी थी। वहाँ जैसे हरेक चीज़ एक अनुशासन में विद्यमान थी। और वहाँ से निकल कर जब वह रोशनी से लकदक एक छोटे से कमरे में आई तो उसकी आँखें ही चौंधिया गईं। यह पार्लर था। उसकी एक दीवार पर एक बड़ा-सा आईना लगा था, लगभग आधी दीवार को घेरे हुए! औरतों को सुंदर बनाने और उन्हें सजाने-संवारने के सामानों से दीवारों पर लगे रैक्स भरे पड़े थे! शेष दीवारों पर सजी-धजी औरतों की जीवंत तस्वीरें! एक बड़ी-सी घूमने वाली कुर्सी आईने के सामने रखी थी। दरवाज़ों पर मोटे-मोटे परदे लटके थे। एक फेशियल चेयर और दो सोफे दीवारों से सटे हुए रखे थे। कमरे में ख़ुशबू और तड़क-भड़क के बीच दो औरतें बैठी थीं, दोनों दूध की तरह झक्सफेद!
थोड़ी देर में पार्लर वाली अंदर आई।
वह दिन भर बहुत व्यस्त रही।
लगातार कोई न कोई ग्राहक आती ही रही। किसी को कटिंग करानी है तो किसी को वैक्सिंग। किसी को जूड़ा बनवाना है तो किसी को फेशियल करवाना है। उसका अपने ग्राहकों से बातचीत करने का तरीका लीला को बड़ा मोहक लगा! दो चार लफ़्ज़ों में ही वह उन्हें अपना बना लेती थी।
तब एक दिन जब वह अँगूठे और तर्जनी के बीच धागे को पकड़ कर लूप बनाए एक कस्टमर की आइब्रो बना रही थी तो मालकिन ने कहा, ‘‘लीला! आइब्रोज बिगाड़ न देना, आप मिसेज कलक्टर हैं...’’
वह स्तब्ध रह गई। हालाँकि अपनी मेहनत, लगन और कुशल प्रशिक्षक की बदौलत डेढ़-दो महीने के भीतर ही वह एक अच्छी ब्यूटीशियन बन गई थी...तो भी उसके हाथ एकबारगी काँप गए। फिर उसने अपना संतुलन बनाकर और थूक घोंटकर उस लेडी के आइब्रो बनाए। उसके बाद उसे फेशियल चेयर पर लिटाकर उसका फेशियल किया।
उसके साथ वह ब्यूटीशियन की तरह नहीं, बड़ी बहन की तरह पेश आ रही थी। उसने यह भी संकेत दे दिया था कि ‘आगे से आप चाहें तो मुझे वहीं बुलवा लें। छोटे-मोटे काम, जैसे- आईब्रो, ऐड़ियाँ, फेशियल वहाँ भी जो जाया करेगा। कटिंग वग़ैरा के लिये कभी-कभार यहाँ आना अच्छा रहेगा...।’
दरअसल, वह अपने ऊपर किये गए उसके मालिक के उपकार के वशीभूत उसकी सेवा में जुटी थी न कि किसी बड़ी कमाई की चाह में। वैसे भी ये काम उसे जँचता नहीं था। पैसा तो था, पर एक तरह से सेवा ही थी। और सेवक शूद्र कहलाते हैं, बस इसी से उसे चिढ़ थी। आज़ादी के बारे में वह ज़्यादा नहीं जानती थी, पर इतना तो जानती ही थी कि देश अंग्रेजों की अधीनता से आज़ाद हो गया है, पर निम्न जातियाँ अभी उच्च जातियों के वर्चस्व और असमान विचार से मुक्त नहीं हो पाई हैं...। दूसरे शब्दों में वह ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद दोनों से घृणा करती थी...। जबकि उसकी मालकिन बड़े चाव से इस पेशे से चिपकी थी। तलाक़शुदा होने की मजबूरी में नहीं, बल्कि पैसे की ख़ातिर, क्योंकि वो जानती थी कि पैसे में वो शक्ति है कि आप उसे पाकर दूसरों पर राज कर सकते हैं!
यह दुर्भाग्य ही था कि लीला दो बार बंगले पर भी गई बाई साहिबा की सेवा में, पर साहब के दर्शन नहीं हुए। उसे क्या पता कि उन्होंने साहब की अनुपस्थिति में ही बुलवाया था उसे! जैसे, स्त्रिायाँ छुप-छुप के सजने-संवरने में ही यक़ीन रखती हों! ताकि पुरुष उनके असली अनाकर्षक रूप से अनभिज्ञ, उन पर लट्टू बने रहें!’
और उसे मिलना इसलिए भी ज़रूरी हो गया था कि रज्जू की जमानत होने वाली थी...। उसकी ओर से राजीनामे की कोई बात भी नहीं उठी थी। लीला ख़ुद पेशकश करती तो पता नहीं क्या अर्थ लगाया जाता! इसी द्वन्द्व में वह फिर से परेशान हो उठी थी।
अब सिर्फ एक ही रास्ता बचा था, मनोज को बुलवा ले!
यह अक्सर होता है कि किशोरावस्था के मित्र आजीवन मित्र बने रहते हैं। लीला को मनोज की, उन दिनों की बेशुमार बातें याद आती रहतीं।
(क्रमश:)