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लीला - (भाग 21)

सुबह पाँड़ेजी उधर से निकले, अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘भई, कुछ भी कहो, तुम्हारा ये रोल तो हमें भी बेहद पसंद आया!’’
लीला ने आँखों से उन्हें धन्यवाद दिया और विनम्रता की मूर्ति बनी खड़ी रही।
फिर कुछ देर में वे बाहर से ही लौट गए तो नंगे मास्टर क्वार्टर खुला देखकर भीतर घुस आए। लीला ने बड़ी प्रफुल्लता से उनका हार्दिक स्वागत करते हुए प्रकाश से कहा, ‘‘जरा चाय बना लो!’’
इस पर उन्होंने तुरंत नकार में हाथ हिला दिया, ‘‘न... सत्ताईस साल हो गए नेम लिये! जूते भी तभी छोड़ दिये थे।’’
‘‘और क्या-क्या छोड़ेंगे!’’ आज उसने बहन-बेटी की तरह लड़िया कर पूछा।
वे महात्मा से शांत मुद्रा में बोले, ‘‘देह को धीरे-धीरे छोड़ने का अभ्यास है-ये! बिना निरग्रंथ हुए मुक्ति कहाँ धरी है...’’
उनकी उपस्थिति और मृदुवचनों से क्वार्टर में मंदिर जैसी शांति छा गई। लीला उस अलौकिक आनंद में डूबती-उतराती उनके सन से सफेद बाल और लंबे कान तथा ऊँचा भाल देखती रही...जो थोड़ी देर में कहने लगे, ‘‘कलेक्टर साब ने उसी दिन पुलिस की खिंचाई कर दी थी। दो-तीन दिन की फरारी के बाद रज्जू को हाजिर होना पड़ा। पुलिस ने कोर्ट में चालान पेश किया तो जज ने हवालात में भेज दिया उसे। धारा ग़ैर जमानती है। अब छैः महीने से पहले छूटने की कोई गुंजाइश नहीं!’’
फिर वे थोड़े ठहर कर बोले, ‘‘लेकिन हमें रार नहीं बढ़ानी है। साँप मर जाए और लाठी बची रहे, अपन को क्या...। जादा निहँूं पड़े तो राजीनामा कर लेंगे।’’
लीला ने सहमति में गर्दन हिलाई; सच भी है, वो किसी महाभारत के लिये नहीं बनी...। और फिर मारकाट के बाद भी तो समझौता होगा! सो पहले ही सही...क्यों मारकाट की नौबत आए?
फिर उसने उत्साह से पूछा, ‘‘यहाँ कलेक्टर साब आए थे?’’
‘‘आए थे!’’ कहते उन्होंने हाँ में सिर हिलाया, ‘‘कलेक्टर साब ख़ुद अपनी आँखों से देखने आए थे कि गुण्डों का ठौर छूटा कि नहीं! और हम से बोल कर गए हैं कि उस बाई को वापस बुलवा लेना...। मेरे रहते गुण्डाराज नहीं चलेगा।’’
फिर वे हौले से फुसफुसाए, ‘‘कलेक्साब भी एस.सी. हैं!’’
‘‘अच्छाँ...!’’
सुनकर लीला चौंक गई और सीना गर्व से तन गया उसका। इतिहास उसे अब बदलता नज़र आ रहा था। और तब उसकी आँखों में इतना आत्मविश्वास जगमगा उठा कि नंगे देर तक नज़र नहीं मिला सके।

अरविंद के घर में मरी-सी पड़ी थी। दहेज का सामान एक कोने में इकट्ठा कर दिया गया था, जैसे, मरियत की सामग्री! और कल तक जिसे बन्नो-बन्नो कहा जा रहा था और जिसके नाम पर मंगल गीत गाए जा रहे थे, वह अब भीतर के कमरे में छोटी-सी खाट पर गुड़ी-मुड़ी पड़ी दुख के अथाह सागर में डूब-उतरा रही थी।
मेहमानों से घर भरा था, जिनकी अपनी-अपनी राय थी। पर सभी इस बात पर एकमत थे कि ‘कंकन नहीं छुरवाया जाय! मण्डप गड़ा रहे! चाहे आठ दिन लग जाएँ, वर खोजो, वर! जैसा भी मिले, हाथ पीले कर दो-बस!’
बहनोई के साथ अरविंद सुबह का ही निकला हुआ था। आसपास दो-तीन लड़के मरे-टूटे थे। ...एक ठेला लगाता, एक स्वू$टर मिकेनिक था और एक लड़का था तो सम्पन्न, पर एक पैर पोलियो ग्रस्त था उसका।
सो, उन्हें कोई जम नहीं रहा था। लड़की से दुश्मनी नहीं होती बाप की! बार-बार उसका ध्यान उसी लड़के पर पहुँच जाता, जिसे धन के अभाव में पहले छोड़ चुका था। उसके पास जीप थी। डग्गामारी करता और साई बाँध लेता साहलग में। साल में ग़ुज़र-बसर लायक कमा लेता। एक छोटा-मोटा मकान भी था उसके पास...। पर उसका बाप बड़ा चीमड़ बनिया था। वह दस तोला सोने से कम में राजी न था।
रात को अरविंद ने घर आकर सिर पटक दिया। थोड़ा बहुत पैसा था सो इंतज़ाम में उठ गया। सगाई में पहली पार्टी को वह रकम भर ही चुका था। कर्ज से लदा अब करता क्या? उसके घर औंधे नगाड़े पड़े थे।
‘‘रण्डो अब चैन से बैठी होंगी...।’’ उसकी बड़ी साली ने लीला को गाली दी।
उसकी बीवी पहले से ही करम से हाथ लगाए बैठी थी, वह उदास स्वर में बोली, ‘‘सब भाग्य का खेल है, किसी को नाहक दोष क्यों धरो...’’
थोड़ी देर में अरविंद बोला, ‘‘वो अगर मौवे़$ पे न बताती तो बेटू को उमर भर को फाँसी हो जाती!’’
‘‘वो-तो सब ठीक भओ,’’ साली ने फिर हस्तक्षेप किया, ‘‘अब जे नैया कैसे किनारे लगे...?’’
इसका तो कोई उत्तर नहीं था किसी के पास। पल-पल, छिन-छिन देर हो रही थी। संकट गहराता ही जा रहा था। रात को नंगे मास्साब भी देर तक बैठे रहे। जाति-बिरादरी का मामला था! वे यही सलाह देकर गए कि आपस में इंतज़ाम कर करा के हाथ पीले करो जल्दी से...।
इधर फ़िक्र लीला को भी लगी थी कि अब लड़की का क्या हो रहा है...। वह भी जानती थी कि कंकन नहीं छुरवाया जा सकता। लेकिन दीगर समाज की बात थी...वह कर भी क्या सकती है!
दो-तीन दिन यों ही बीत गए।
शहर में शादियाँ लगातार चल रही थीं। वह छत से अरविंद की गली और उसका घर देखा करती। सजावट कब की उखड़ गई थी! उसे उदासी घेर लेती। प्रकाश कहता,‘इसमें तुम्हारा क्या कसूर है? अपने जाने अपुन ने तो भलाई करी-ती...’ पर लीला ख़ुद को अपराधिन महसूस कर रही थी। जैसे, सिर्फ युद्ध नहीं, पुनर्निर्माण भी उसी के जिम्मे हो!
और सुबह उसने नंगे मास्साब को अपने क्वार्टर पर बुलवाया। अरविंद की स्थिति का पता किया और पूछा, ‘‘अब क्या उपाय किया जाए?’’
वे थोड़े झेंपे, फिर बोले, ‘‘पहले जो लड़का देखा था, वो अभी खाली है...है तो अच्छा, पर टीका में दस तोला सोना माँगते हैं...इनपे भुँजी भाँग नहीं हेगी!’’
‘‘कहाँ से होगी!’’ उसने ताईद की, ‘‘बिचारों पे जो कुछ था भी, सो हिल्ले लग गया!’’ कहते सहसा उसे ‘जेमा’ का ख़्याल सूझ गया।
चेहरे पर गंभीर मान झलक उठा, उसने पूछा, ‘‘आज छुट्टी तो नहीं है?’’
नंगे ने हैरत से देखा, ‘‘क्यों?’’
‘‘हम इंतज़ाम करें दे रहे...फण्ड की हाल के साल एफ.डी. बनवा दई-ती। बस, बैंक खुली होने चहिए!’’
नंगे फिर चौंक गए। और फिर एक बार उससे नज़रें नहीं मिला पाए...। वे उत्साह के अतिरेक में भागे-भागे अरविंद के घर जा पहुँचे। तब कुछ ही देर में सारा परिवार ख़ुशी में नहा गया। अरविंद दौड़ा-दौड़ा गया लड़के वाले के घर और वायदा कर आया। दोपहर बाद लीला ने नंगे मास्साब को बुलवाकर रकम उनके हाथ सौंप दी।
अगले दिन फिर उसी धर्मशाला के द्वार पर बैंड बज रहा था। चित्रशाला जगमगा रही थी, घोड़ी सज रही थी...।
और लीला इस बार अपनी छत पर नहीं थी। वह अरविंद के घर, मोहल्ले की अन्य स्त्रियों के साथ ढोलक धरे बैठी थी!
(क्रमश:)


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