लीला - (भाग 19) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 19)

लीला वहाँ लगातार छह-सात दिन बनी रही, पर अजान अथाईं पर नहीं फटका। वह मन ही मन उसके लिये हींड़ रही थी। उसे यक़ीन नहीं हो रहा था कि अजान से उसका रिश्ता पानी पर पड़ी लकीर है! घूम-फिर कर वह वहीं आ जाती कि वे इतने डरपोक और ख़ुदग़र्ज़ तो नहीं हैं, फिर क्या हुआ...?
कहीं, बरैया जी अपने भाषणों में जो कहते हैं, वही तो सही नहीं है कि ‘जाति का रोग मिटेगा नहीं हमारे समाज से...। बड़े शहरों की बात अलग है। वहाँ व्यक्ति की जाति से नहीं योग्यता और सामथ्र्य से पहचान होती है। वहाँ के जीवन में स्पर्धा और भागदौड़ अधिक होने से होटलों में खाना खाने, सामान ख़रीदने, सफ़र करने...फ़ैक्टरी-दफ़्तरों में काम करने में छुआछूत या जाति का विचार नहीं आता! किंतु ग्रामीण और कस्बाई समाज आज भी धार्मिक आडम्बर से प्रेरित छूत-अछूत और जातिवादी जड़ता से ग्रस्त है। जाति जो कभी कर्म प्रधान थी, अब जन्म प्रधान हो गई है। पण्डित तो बूट हाउस खोलकर भी पण्डित बना रहता है!’
ऐसा ही तमाम ऊल-जलूल सोच-सोच वह नर्वस हो जाती। उसने पता कर लिया था कि अजान सिंह अपने घर में मस्त है। ...उसे नफ़रत होती! अजान सिंह के सिर पर जब सेक्स का भूत चढ़ा था तब लीला चमार नहीं थी...? गंगा-सी पवित्र और परी-सी सुंदर-सुकुमार थी! उसके हँसने पर फूल झड़ते, रोने पर मोती! और हवस मिट गई तो फिर से...!
उसका दिमाग़ ख़राब रहता। जी में आता कि वो छलिया मिल जाय तो टेंटुआ से लग के ख़ून पी डाले उसका! पर वो अहीर थोक में तो क़दम भी नहीं धर
सकती थी...और अजान को पता था कि वो यहीं है, इसलिए उधर से भूलकर भी न ग़ुज़रता वह।
सो, थक-हारकर वह माइके चली गई और प्रकसा को फिर लिवा लाई अपने साथ। लौटते समय उसे बस में फिर से मितली आने लगी। छोटी-सी, मात्र दस-बारह किलोमीटर की बस यात्रा में ऐसा पहले तो कभी हुआ नहीं था! उसे खुटका हुआ, महीना चढ़ा हुआ है...कहीं पैर भारी तो नहीं हो गए...राम!
और यह ख़्याल आते ही उसे रोना आ गया।
जिसकी खातिर मन ही मन मन्नत माँगी थी, उसी के होने की आशंका पर रोना आ गया! ...और जिस बधाई ने हर्ष की हिलोर से भर दिया था उसे, उसी को गिरा देने के विचार से उसका जी बुरी तरह घबरा उठा।
पर अब कोई उपाय नहीं बचा था उसे बनाए रखने का...। अजान उसके तईं मर गया। और मर गया बड़ौआ जाति के संग रोटी-बेटी के नाते का सलौना सपना भी!

थोड़ी-सी बरसात के बाद दुबारा धूप निकल आने से धरती भभक उठी थी। अच्छे-भलों का जी घबड़ाने लगा। लीला को तो बस में से ही मितली आ रही थी!
उसने स्टैण्ड पर प्रकाश से कहा, ‘‘लला, तुम क्वाटर पे चलियो...हमारी तबियत बिगड़ रही है, दवाई लेके आएँगे!’’
प्रकाश उससे चाबियों का गुच्छा लेकर थोड़ी परेशानी में पड़ गया। कुछ कहना चाहा उसने...यही कि क्वाटर पे अकेले जाने का दम नहीं है अपना! पिछला अनुभव बड़ा भयानक था। ...पर लीला उसे असमंजस में छोड़कर अस्पताल जाने वाले आटोरिक्शा में चढ़ गई थी। ...जाँच के बाद डाक्टरनी ने उसकी आशंका और अनुमान को सच बता दिया था। उसे डर लगने लगा और वह अंदर टेबिल पर पहुँच गई एक नाजुक संभावना का अंत करवाने, जबकि उस वध में उसका कोई हाथ नहीं था। चुपचाप रोते-रोते इंजेक्शन के ज़ोर से वह बेहोश हो गई। फिर नहीं पता कि कैसे उस अपोरुषेय मानव-भ्रूण को उन ठण्डे और सफेद औज़ारों ने मवाद में बदल दिया...! होश आने पर वह तो प्रसूतिगृह के एक पलंग पर थी। उसे ड्रिप लगी हुई थी।
अस्पताल से लौटकर उसे चक्कर आ रहे थे। बड़ी कमज़ोरी महसूस हो रही थी। देखने वालों को उसका चेहरा पीला, निस्तेज और बीमार दिख रहा था। प्रकाश उसे सहारा देकर भीतर ले आया। उसने बड़ी हैरानी से कहा, ‘‘तुम हमें काहे नईं ले गईं! कितनी देर लग गई...क्या निकला?’’
वह कैसे बताती! उसे ख़ुद पता नहीं था...। कत्ल होता कोई अमूर्त कानों के आसपास चीख रहा था...। उसकी आँखें भर आईं, ‘‘कुछ नहीं...’’ उसने सुबकी रोक कर पलंग पर गिरते हुए किसी तरह कहा, ‘‘ग्लूकोस की एक बोतल चढ़वाई है, चक्कर आ रहे-ते!’’
प्रकाश दूध, फल और परचे की दवाइयाँ लेने बाजार चला गया। लीला की आँख लग गई। ...सपने में किसी अथाह सागर में डूबती-उतराती गोते खाती-खाती पाताल तक जा पहुँची और एक-एक कण खँगाल उठी...। जैसे, बहुत कुछ कीमती खो गया हो, जैसे, साक्षात् प्राण! और वह उसे बेहद व्याकुल, विक्षिप्त होकर ढूँढ़ रही हो! ...थोड़ी देर में शरीर पसीने से तरबतर हो उठा। हिचकी बँध गई। लगा, आँचल से दूध का सोता फूट पड़ा! तो...अँसुओं की झड़ी लग गई! एक छाती नहीं फटी, सातों करम हो गए...।
लौटकर प्रकाश ने कहा, ‘‘पतो-ए, दो-तीन दिना पहलंे अपने यहाँ कलेट्टर साब आए-ते?’’
‘‘हैं-एँ...!’’ लीला की बेहोशी भागने लगी।
प्रकाश की आँखें उत्साह में चमक रही थीं, ‘‘उनकी जीफ अपनेई क्वाटर पे आइके रुकी! कालोनी वारे कहि रए-हैं...।’’
‘‘ओऽ मैया!’’ लीला रोमांचित हो आई। वह तेजस्वी युवा जिलाधीश उसकी आँखों में नाच उठा। खिड़की का परदा खिसका कर सामने की धर्मशाला पर नज़र डाली उसने, भीड़भाड़ तो थी, पर गुण्डे नज़र नहीं आ रहे थे...। प्रकाश ने समाधान किया, ‘‘अरबिंद जैन की बच्ची की सादी है। इसमें बरात ठैरी है!’’ कहते हुए वह खूब मुस्करा रहा था। उसकी भीगती मसों से ख़ुशी छलकी पड़ रही थी।
और अभी वह अपने क्वार्टर में ही बिस्तर पर पड़ी थी, पर स्मृति में दूर किसी दलित नेता का ओजस्वी भाषण गूँज रहा था,
‘मनु ने हत्या जैसे जघन्य अपराध करने पर भी एक ब्राह्मण के लिये मात्र उसके सिर के बाल घुटवाने का प्रावधान किया...जबकि शूद्रों के लिये किसी ब्राह्मण को गाली देने और द्विज कन्या से प्रेम करने जैसे साधारण अपराधों के लिये भी मृत्युदण्ड की व्यवस्था थी। वेद पढ़ने, द्विजों से ज़बान लड़ाने पर जीभ और ओठ काट लेने का प्रावधान था। यहाँ तक कि धोखे से भी शास्त्र सुन लेने पर कानों में पिघला हुआ शीशा भरवा दिया जाता था!’
गया वो ज़माना...अब गया। उसका चेहरा मुस्करा उठा। काफ़ी कुछ स्वस्थ महसूस करने लगी ख़ुद को।
(क्रमशः)