लीला - (भाग 20) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 20)

अरविंद का घर मोहल्ले की दूसरी गली में था। माली हालत अच्छी नहीं थी उसकी और दो जवान बेटियाँ थीं घर में। गुण्डों के मारे आए दिन नाक में दम था। सुबह से ही घर घेर लेते। सेठानी किवाड़ दिये लड़कियों को भीतर ठूँसे रखतीं। लेकिन लड़कियाँ ऊबतीं
और छत पर जातीं या खिड़की-दरवाज़े पर तो लफंगे सरेआम फब्तियाँ कसते। गली से बजर उठा ऐसे फेंक उठते उन पर, जैसे, दरवाज़े पर चढ़ आए दूल्हे पर दुल्हन और उसकी सखियाँ चावल फेंकती हैं!
कभी चिट्ठियों में उल्टी-सीधी अश्लील बातें लिख दरवाज़े पर डाल देते और चिढ़ाते हुए कहते, ‘डाकिया डाक लाया!’
मोहल्ले के जरा-जरा से लौंडे तक, जिन्हें अपनी टट्टी धोने का शऊर नहीं, कोई उनके कान खींचने वाला न था। गुण्डे उन्हें शह दिये थे। तीन-चार साल से बनिया बड़ी साँसत में था। अब कम से कम बड़ी का तो निबटारा हुआ जा रहा है...। धर्मशाला में बारात सजने लगी थी।
लीला प्रसन्न-बदन उठकर बैठ गई। अब न सिर में चक्कर था और न शरीर में कोई ख़ास कमज़ोरी। सड़क पर बैंड बज रहा था। चित्रशाला जगमगा रही थी और घोड़ी सज रही थी...।
वह आँगन में निकल कर छत पर चढ़ गई। गली की रौनक काफ़ी बढ़ गई थी। छत से अरविंद जैन के मकान की सजावट भी काफ़ी कुछ दिख रही थी। वहाँ छोटे-छोटे लट्टुओं की रंगीन झालरें झिलमिला रही थीं...और चक्के घूम रहे थे। द्वार पर पाँत हो रही थी, शायद!
प्रकाश ने बताया, ‘‘एक जन का अपना भी नौता है!’’
उसने कहा, ‘‘तुम चले जइयो! कोई हाथ पकड़ के बैठारे तो जीम लियो, नईं तो पुन्न करके चले अइयो। बेट-बिटारू का मामला है।’’
उसने पूछा, ‘‘और कल सवेरे जाके बोहार कर दें-तो!’’
दरअसल, उसे हिचकिचाहट थी। क्या पता, कोई इज़्ज़त से बिठाए, ना बिठाए! और कहीं गुण्डा लोग वहीं हुए-तो? उनके नाम से ही रूह काँपती थी उसकी।
लीला ने सिर हिला दिया, तुम जो ठीक समझो। तभी नीचे अफ़रा-तफ़री मच गई। दूल्हा घोड़ी से गिर पड़ा था। और उसने स्पष्ट देखा, उसे मिर्गी का दौरा पड़ा था! मुँह से झाग निकल रहा था...लेकिन कुछ चुस्त लोग उसे तत्काल धर्मशाला के भीतर उठा ले गए...।
लीला का मन हलचल से भर गया। उसने प्रकाश से कहा, ‘‘हमें अरविंद को ये बात बताना चाहिए...।’’
और उसने हटक दी, ‘‘अपनु को क्या मतलब इन बातन सें! वैसे-बी ग़ैर जात का मामला...।’’
तो वह उसका सपाट चेहरा देखने लगी। कि...यह बड़ा डरपोक और बेवकूफ-सा लौंडा, इतना तेज और समझदार भी है? इसके जाने कुछ भी होता रहे...? यह तो बड़ी भयानक बात है!
‘दूल्हा मिर्गी का मरीज़ है!’
उसे चैन नहीं पड़ रहा था।
उसने प्रकाश से फिर कहा, ‘‘चलो बनिया से कहकर देख लें, नईं तो हमें भी पाप लगेगा। गऊ हत्या से भी बढ़कर होती है कन्या-हत्या!’’
अब वह इन्कार नहीं कर सका। पाप से तो सभी डरते हैं! पर उसका साँवला चेहरा कुछ-कुछ स्याह पड़ गया। बाहर निकलने के लिये दरवाज़ा खोलते-खोलते उसका डर फिर बोला, ‘‘बरात लोकल की है, चार-छह तो बंदूकिया हैं!’’
‘‘खाइ जाइंगे तुमेंऽ!’’ लीला को भक छूटी, ‘‘मोंड़ी काए नईं भए? घर मँढ़तो काहू को!’’
वह झेंप गया।
ताला लगाकर वे अरविंद की गली में पहुँच गए। भीड़ कुछ ज़्यादा न थी। समाज के लोग सूर्यास्त तक पंगत से निबट कर चले गए थे। कुछ व्यवहारी, रिश्तेदार और पड़ोसी जमा थे द्वार पर। द्वाराचार की तैयारियाँ चल रही थीं। दरवाज़े पर देहरी के आजू-बाजू बर्तनों के आदमक़द सैट लगे हुए, जिनके ऊपर दीपक जगमगा रहे थे। प्रकाश वहीं रुक गया। लीला अंदर चली गई।
उसने अरविंद की बीवी से कहा, ‘‘सुनो, तुम्हें पता है...लड़का मिरगी का रोगी है!’’
‘‘क्या-कहा?’’ आसपास की मेहमानें भी चौंक गईं। सबके चेहरों पर हैरत और ज़बान पर प्रतिक्रिया थीः
‘‘अरे! जासें तो बिटिया कों कुआँ में ढकेल दे-ओ...अरे-अरे, ऐसो पाप क्यों करौ!’’
‘‘रामऽराम! अरबिंद तूने जे क्या करतूत करी...?’’ बड़ी-बूढ़ियाँ बात ले उड़ीं।
लड़की और उसकी बहनें और उनकी सहेलियाँ दिलों पर बोझ लिये सहमी हुई-सी एक तरफ़ खड़ी-बैठी थीं!
हड़कम्प-सा मच गया।
अरविंद बड़ा दुखी और गुस्से में।
वह दहाड़ा, ‘‘तुम्हें क्या पता ऽ! तुम कौन-सी जात-बिरादरी की हो? कोई पुरानी बोहारी हो उनकी?’’
‘‘हमने अपनी आँखों से देखा है,’’ लीला ने दृढ़ता से कहा, ‘‘दूल्हा घोड़ी से गिर पड़ा,
उसका फसूकर निकल रहा था ऽ!’’
‘‘चलोऽ!...कहोगी जे बात सामूसट्टऽ?’’ ताव में अरविंद की आँखें निकल पड़ीं, उसने हाथ पसार कर पूछा।
और लीला ने जैसे, धान की रुपाई के लिये धोती का कछोटा मारा हो, पल्लू खींचकर कमर में खोंस लिया। आगे-आगे हो ली।
अरविंद और प्रकाश और तमाम लोग पीछे-पीछे थे!
औरतें घबड़ा रही थीं कि ‘इन रण्डो ने बरात लौटवा दी तो कन्या का क्या होगा? ये तो मेहँदी धरे बैठी है... कंकन बँधा है हाथ में!’
इस बीच नंगे मास्टर को भी ख़बर लग चुकी थी, वे भी धर्मशाला पहुँच गए। दूल्हा का बाप बात को दबाने की कोशिश कर रहा था कि ‘पेट में ऐंठा होने से ये घोड़ी से गिर पड़ा है...’
वह बार-बार हाथ जोड़कर झूठी सौगंध खा रहा था कि ‘और कोई बात ही नहीं! आज तक इसे तो बुखार भी नहीं आया...कभी।’
अरविंद ने लीला की ओर उँगली उठा आँखें निकालीं, ‘‘ये तो बता रही हैं कि फसूकर निकल रहा थाऽ!’’
‘‘हाँऽ! निकल रहा था...ऽ!’’ लीला जोश में थी, ‘‘डाक्टरी करवा लो चाहे, उसे तो गारंटी से मिरगी आती हैऽ!’’
तभी, ‘‘तेरीऽतो,’’ कहता हुआ वर पक्ष की ओर से एक गँवार आदमी दाँत मिसमिसाता उठा और उसने, ‘‘चमट्टिया कहीं-की!’’ कहते हुए विद्युत गति से लीला का हाथ पकड़ कर मरोड़ दिया! यह देख मोहल्ले के कई लोग ताव खा गए। सो, हुड़दंग-सा मच गया। बाराती पर लात-घूँसे पड़ उठे। ...प्रकाश और नंगे उसे बाहर खींच लाए। लीला ने दौड़कर क्वार्टर का ताला खोला और उसे बग़ल वाले कमरे में ले जाकर बंद करा दिया। फिर वह उन्हीं पैरों भागती-भागती थाने जा पहुँची। पीछे-पीछे अरविंद, नंगे मास्साब और प्रकाश भी थे...।
लौटने पर उन्हें दूल्हा, बारात, घोड़ी, बेंडबाजा सब नदारद मिले। प्रकाश को यक़ीन नहीं आ रहा था कि बंदूकची भी भाग गए...!
साथ आए सिपाहियों ने क्वार्टर में बंद उस एक मात्र बाराती को अपने कब्ज़े में लिया और चले गए।
मोहल्ला कुतूहल में आधी रात के बाद भी सोया नहीं था। हर आँख हैरत से खुली थी और हर ज़बान उसे ‘‘लीला गुण्डी’’ से ‘‘लीला दी ग्रेट’’ कहने पर आमादा हो रही थी।
(क्रमश:)