लीला - (भाग 18) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग 18)

कुछ देर में वे लोग हरिजन थाने में खड़े थे। रिपोर्ट बाक़ायदा नामज़द कराई गई हरिजन एक्ट के तहत। वहाँ से लौटते वक़्त नंगे मास्साब ने कहा, ‘‘कलेक्टर साब से और मिल लो, हरिजनों की अच्छी सुनते हैं!’’ तो वह बेहद कृतज्ञ हो उठी, ‘‘रावण की लंका में आप तो भक्त विभीषण की तरह मिले हैं मुझे...।’’
नेत्र सजल हो उठे थे।
नंगे बोले, ‘‘वो इंसान भी क्या जो म़ौके पर काम ना आए! तुम्हारी तो उमर ही क्या है अभी, हमसे पूछो, बाल पक गए... इसी बुरी दुनिया में एक से एक भलेमानस पड़े हैं।’’
फिर वे घर लौट गए और वह कलेक्ट्रेट चली आई। वहाँ पहले लिखियामंुशी के पास बैठकर बड़़ी सनसनीख़ेज़ दरख़्वास्त लिखाई उसने। उसने लिखाया कि, ‘मैं एक युद्ध-विधवा और जाति से चमार महिला हूँ, इसलिए मुझे पार्षद राघवेन्द्र शर्मा रज्जन उर्प$ रज्जू भय्या ने कई बार अपनी हवस का शिकार बनाना चाहा... मेरे घर पर कब्ज़ा कर लिया और मेरे रिश्तेदार अजान सिंह पर गोली चला दी... मुझे तत्काल सुरक्षा की आवश्यकता है!’
एप्लीकेशन उसने अपने पर्स में रख ली और वेटिंग रूम में आकर बैठ गई। थोड़ी देर में चपरासी पर्चियाँ बाँटने आया तो उसने एक पर्ची लेकर उस पर अपना नाम ‘लीला चमार’ लिखकर उसे वापस पकड़ा दी।
इस अनोखे परिचय वाले उस विजीटिंग कार्ड को देखकर उस युवा कलेक्टर ने फोरन सामने बैठे व्यक्ति से सारी किया और घंटी का बटन दबा दिया। चपरासी तत्काल पुनः भीतर आया तो उसने पर्ची दिखाते हुए कहा, ‘‘इस बाई को भेज दो!’’

शाम का समय था। लीला आश्चर्यचकित-सी उस विराट कक्ष में दाख़िल हुई जिसकी भव्यता देखकर उसकी आँखें चौड़ा गई थीं। बड़ी देर में नज़रें टिकीं और वो उधर बढ़ी जिधर बड़ी-सी मेज़ के पीछे वह तेजस्वी युवा बैठा था...। उसने हाथ बढ़ाकर उसकी दरुख़्वास्त ले ली और कहा, ‘‘पीछे बैठ जाइये...अभी सुनते हैं!’’
लीला सहमी-सी पीछे जाकर बैठ गई। नंगे मास्साब की बात बड़ी आशा बँधा रही थी, ‘इसी बुरी दुनिया में एक-से-एक भले लोग पड़े हैं!’
‘‘बरैया जी,’’ कलेक्टर कह रहा था...
‘अरे! यहाँ तो बरैया जी बैठे हैं!’ उसने पीछे से पहचाना। उसे और बल मिला।
‘‘क्योंकि, माक्र्सवाद में जाति-अंत का विचार नहीं है...’’
बरैया जी ने हामी भरी।
‘‘देश के लिये छुआछूत पूँजीवाद से ज़्यादा घातक है। भारत में राजनीतिक क्रांति से भी महत्वपूर्ण सामाजिक क्रांति है!’’ कलेक्टर ने गंभीरता से कहा।
‘‘हाँ,ये तो है!’’ बरैया जी ने ताईद की, ‘‘हिंदू समाज अनेक जातियों-उपजातियों में बँटा है। यह जाति व्यवस्था ऊँच-नीच के श्रेणीबद्ध विचारों पर आधारित है। हरेक जाति दूसरी को हीन समझती है। हिंदू जाति में वर्ग भावना है ही नहीं। होती तो ग़रीब तबके के सवर्ण और दलित आपस में रोटी-बेटी के सम्बन्ध जोड़ लेते!’’
‘‘हाँ, मैडम! आप कहिये...।’’ बरैया जी को रुकने का इशारा कर कलेक्टर ने सहसा उसे संबोधित किया।
उसे अच्छा लग रहा था। लेकिन कहने के नाम पर उसका गला चिपक गया। थूक घोंटती हुई आगे बढ़ी, मुश्किल से बोल फूटा, ‘‘हरिजन थाने में रिपोर्ट लिखा दी है...आप एप्लीकेशन देख लें-सर! आज पुलिस नहीं पहुँची तो गुण्डे मार डालेंगे...’’
‘‘ऐसे कैसे मार डालेंगे?’’ बरैया जी घूमे। पर उसे पहचान कर चुप रह गए, क्योंकि पहले से जानते थे, पहले भी मदद नहीं कर पाए थे!
‘‘ढिलाई की वज़ह से प्रशासन पर से लोगों का विश्वास उठ गया है,’’ कलेक्टर ने शर्मिन्दा होते हुए कहा, वह दरुख़्वास्त पढ़कर उससे मुख़ातिब हुआ, ‘‘बाई, तू शहीद कालानी में ही रहती है-ना!’’
‘‘जी-साब!’’
‘‘कल मैं ख़ुद आऊँगा! ठीक...।’’
‘‘जी-साब...!’’ वह मुड़ ली। और खड़ी रहती तो रो पड़ती, शायद! लेकिन बाहर आकर शहीद कालोनी की तरफ़ पैर नहीं पड़े। चाहे भगवान भी कहे, क्वार्टर में अब अकेली नहीं रह सकती। ...वहाँ तो जमों का बसेरा है! उसे भरोसा नहीं था कि गुण्डों के ख़िलाफ़ कार्यवाही हो पाएगी!
बस पकड़ कर सीधी गाँव चली आई। अजान की भी ख़ैर-ख़बर लेनी थी!
उन दिनों उसे बार-बार मितली भी आ रही थी। तमाम कुशंकाएँ एक साथ घेर लेतीं। ख़ुद का तो अनुभव नहीं था, पर सुनती रही थी कि सिर धोने के बाद दो-तीन दिन तक दूर रहा जाता है, जबकि होटल में उससे एक पल भी बच पाना कितना मुश्किल था उन दिनों!
उसका मासिक वहीं आ गया था। वे तीन दिन बड़ी मुश्किल से कटने दिये
उसने। और चैथे रोज़ भी वह सिर न धोने का बहाना बनाकर बैठ रही, तो वह पगला गया...। तब वह भी झगड़ कर सोफे पर जा लेटी। वह बेड पर ही मायूस-सा पड़ा रह गया। इससे उसे लगा, प्रान बच गए आज तो! ऐंठ-ऐंठ में दो-एक दिन और निकल जायँ तो भविष्य में एक बड़ी आफत से बच जाएगी...। उबासियाँ लेते-लेते ऊँघने लगी थी, फिर झपक गई...। तभी अचानक लगा कि मसान ने छाती दबा ली है...और वह होश में आई तब तक झपट्टा-सा मार कर तोप के मुख में पलीता धर दिया!
कारवाँ ग़ुज़र गया तो उसने तनिक देर बाद मनुहार की शैली में कहा, ‘‘आज तो आपने बोवनी कर...दी!’’
‘‘सच्ची...?’’ उसकी मूँछें खिल उठीं।
‘‘सऽच्ची!’’ उसने माथा चूम लिया।
‘‘ओऽओ!’’ वह बौरा गया। आवेग में उसने उसके बाल अपनी मुट्ठियों में भरकर उभार चूम लिये, बोला, ‘‘बधाई हो, बेटा होगा!’’
भय और आशंका के बावजूद उसके चेहरे पर मुदित मुस्कान फैल गई जिसे सारी प्रतिकूलताओं के बावजूद तिरोहित नहीं करना चाहती थी, वह! वही सलौना-सा अक्स लिये निश्चिन्त भाव से सो गई।

अजान का अपने घर में अब फिर से विलय हो गया था। उसके लौट आने से पूरा थोक ख़ुश था। सभी ने ढाँढ़स बँधाया कि ‘सुबह का भूला शाम को लौट आए तो भूला नहीं कहाता...।’ और दाऊ खेम सिंह ने तो एक कवित्त सुनाते हुए समझाया था कि ‘नारी प्रसंग सें ज़ोर घटे और रोष घटे मन के समुझाएँ!’ इस पर अजान ने उपहास से देखा उसे कि दाऊ, तुम्हें कब मिला नारी-प्रसंग...और किससे दुश्मनी ठनी तुम्हारी जो रोष उपजता! पर दाऊ उसके मन की बात जाने बिना आगे बोला, ‘‘लउआ, वैसे-बी आपने वाकों निंबुआ-सो निचोरि लओ...अब क्या, मस्त पड़े रहो अपंए घर!’’
तब अजान ने घृणा से देखा, उन बूढ़ी आँखों में अब भी कामुकता लहरा रही थी!
वह हट गया वहाँ से।

(क्रमशः)