हम अर्थ अर्थात् धन स्वयं से प्राप्त नहीं करतें वरन इसके जो समय, होश या ध्यान परमात्मा द्वारा हमें दियें हैं उसे धन में परिवर्तित करने की योग्यता को प्राप्त करतें हैं जिस योग्यता की प्राप्ति तब होती हैं जब हमारी जरूरत या आवश्यकता उस योग्य हो जायें की परमात्मा द्वारा दियें समय या होश, चेतना यानी ध्यान को धन में परिवर्तित करवा दें।”
12 APR. 2022 AT 09:41
“मोह स्वार्थ हैं और प्रेम परमार्थ।
जहाँ मोह प्राथमिकता होती हैं वहाँ प्रेम हो जी नहीं सकता और जहाँ प्रेम प्राथमिकता होती हैं वहाँ मोह का कोई स्थान नहीं।
प्रेम यानी वह जिसमें जिससें प्रेम किया जा रहा हैं उसकी संतुष्टि यानी जो सुख का पर्याय हैं उसे प्राथमिकता दी जाती हैं और मोह यानी वह जिसमें जिससें मोह हैं उसकी अपने पास उपस्थिति को प्राथमिकता देने के लियें उसकी स्वतंत्रता, संतुष्टि, सुख के साथ समझौता कर लिया जाता हैं।”
12 APR. 2022 AT 10:02
“मोह कैसें जिससें उसे किया जा रहा हैं उसको फसा देता हैं?
प्रेम अर्थात् किये जाने के बाद जिसमें जिसके लियें किया जा रहा हैं उसकी संतुष्टि या सुख को प्राथमिकता दी जाती हैं जो उस पर से अपने ध्यान को हटाकर मोह को अपना लेता हैं अर्थात् अपने ध्यान को उसे समर्पित कर देता हैं वह क्योंकि उसकी प्राथमिकता हैं वह जिसके मोह में हैं उसके पास रहें चाहें संतुष्ट या असंतुष्ट यानी उसके मन से या बिना उसका मन हुयें इसके लियें वह उसकी स्वतंत्रता को पूर्णतः छीन लेना चाहता हैं यानी उसे स्वयं के मस्तिष्क को, मन को कभी उपयोग नहीं करने देना चाहता और यदि वह कर भी लें तो उसके मन-मस्तिष्क की कभी चलने नहीं देता; इस भय से की कही उसने उसका मन-मस्तिष्क उपयोग किया तो मेरी तरह मेरे मन को प्राथमिकता देने बंद नहीं कर दें, वह उसे उस मादा चिड़िया की तरह चाहता हैं जो अपने बच्चें को ऊँचाई से धकेलती नहीं इस डर यानी मोह से कि कही यह गिर गया तो मुझसें दूर हो जायेगा या कही यह गिरने की जगह उड़ना सिख गया तो इसे मेरी जरूरत नहीं होगी और यह मुझसें दूर हो सकता हैं।”
12 APR. 2022 AT 11:51
“गलती व्यक्ति की होती ही नहीं विकार को स्वयं पर हावी कोने देने के बाद; क्योंकि फिर तो कर्ता वह रह ही नहीं जाता, कर्ता तो उसका विकार जैसे कि क्रोध, मोह, भय आदि में से कोई या सभी हो जाते हैं।”
14 APR. 2022 AT 00:11
“मेरी समझ में प्रेम के सही अर्थों को जानना यानी समझना ही प्रेम करना और इसकी समझ के बारें में किसी को बताना ही उसके लियें अपना प्रेम जताना हैं।”
14 APR. 2022 AT 19:34
“हम जिसकी भी तरह बनना चाहतें हैं वैसा उसका अनुगमन करनें से नहीं बनतें; उसका अनुगमन यानी जो उसनें व्यक्त किया उसका अनुगमन होगा; हो सकता हैं कि हम उसके शब्दों के यथा अर्थों को नहीं समझ सकें यानी शब्दों के माध्यम् से वह जिन अनुभवों की ओर इशारा कियें हैं उनके नहीं होने से हम उसकी अभिव्यक्ति की यथावत्ता से वंचित रह जायें या फिर उसके व्यक्त करनें यानी जो उसनें कहा हैं आप तक पहुँचने में और इस तरह आपको प्राप्त होने में पहुचाने वाले माध्यम् द्वारा अभिव्यक्ति की यथावत्ता यानी कि ज्यों की त्योंता के साथ समझौता कर लिया जायें यानी उसके द्वारा जाने-अन्जाने भ्रष्टाचार हो जाया जा सकता हैं। हम जिसकी या जिनकी भी तरह बनना चाहतें हैं वैसा या उन सभी के जैसा जो उसकी ही तरह हैं पूरी तरह तब बनते हैं जब हम उसका अनुगमन यानी उसको फॉलो करनें हैं जिन्हें उनने या उन जैसों ने किया यानी " खुदको "। हाँ आप जिनकी भी तरह बनना चाहतें हैं यदि उन्होंने भी उनको फॉलो किया; जिन्हें उन्होंने किया यानी " स्वयं को " तो उनकी अपने आदर्श की तरह पूर्णतः हो जाने की संभावना कम हुयी होगी।”
23 APR. 2022 AT 15:50
“अनुकूलता का भान ही हैं,
यथा अर्थों की पहचान ...
तो क्या?
विकार और उनसे यंत्रवत्ता,
परिणाम स्वरूप;
यथा अर्थी की योग्यता सें वंचितता की फलितता,
अर्थात् समस्या!!!
खैर!
तिमिर की गहरायी,
पर ..
आस भी विश्वास भी
यानि,
घोर अंधकार में उपस्तिथि प्रकाश की!!!
पर्याप्त हैं;
आस हैं विश्वास हैं ....
चैतन्य हैं तो,
समस्या से समाधान भी हैं।”
23 APR. 2022 AT 19:59
“जो मीठा हों, वह ज़हर नहीं हों और जो कड़वा हो वह ज़हर ही हों ऐसा जरूरी तो नहीं पर यदि समय, स्थान और उचितता के आधार पर आवश्यकता हों तो कोई सी भी भोजन संबंधी सामग्री गृहणानुकूल होती हैं, उदाहरण के लियें ज़हर भी कयी बार औसधी हेतु उपयोग होकर गृहण योग्य सिद्ध हो जाता है अतः भोजन का त्याग अनुचित्ता होगी; हमारा स्वाद के लियें ही त्याग को स्वीकार कर लेना सही समझ आता हैं।”
24 APR. 2022 AT 19:23
“एक समय आता हैं; जब उन पक्षियों की तरह अभिभावकों को हो जाना चाहियें जो अपनें बच्चों को ऊँचाई से धकेल देते हैं; ऐसा नहीं कि उन्हें उनके बच्चों से प्रेम नहीं; हाँ! मोह नहीं जिसके कारण ही वह सही अर्थों का प्रेम या स्वतंत्रता उन्हें दें सकते हैं; उन्हें धकेल देकर दोनों विकल्पों को देकर यानि कि या तो वह उड़ने में पूरी तरह सही तरीके से अपने होश का उपयोग करें नहीं तो सदैव के लियें उन्हें उनका होश खोना होगा। जब करों या मरों की स्तथि उनके समक्ष आती हैं उस समय की तरह जब उनके जन्म लेते समय आयी थी और वह यह कि यदि बाहर निकलने में जाने-अनजानें होश नहीं लगाया तो माँ की कोख से इस दुनिया में प्रवेश करतें समय ही मृत्यु से आलिंगन करना होगा तो वह सफलता पूर्वक जैसे तब कोख से बाहर निकल पायें थें और जीवन लेने में सफल हो गयें थें वैसे ही अब भी उड़ने और जीवित रहने में सफल हो पाते हैं विपरीत इसके मोह से ग्रसित जो अभिभावक यदि हों तो वह इस भय से कि कही उनकी संतान उनसे दूर नहीं हो जायें उन्हें हर उनके करने योग्य काम स्वयं से नहीं करने देते जिनमें जोखिम हों संतान के दूर जाने का, अपने पैरों पर खड़ने का विकल्प ही नहीं देना चाहते है और आ जीवन संतान को स्वयं पर निर्भर रखते हैं; उन्हें आत्म निर्भर नहीं होने पर कोसते हैं; जिससे उन पर संतान की निर्भरता का उसे याद रहें और इस भय से वह उनसे दूर जाने की सोचें भी नहीं।”
25 APR. 2022 AT 21:55
“मुझें अनुमान नहीं यथावत्ता चाहियें यही कारण हैं कि जितना मैं अनुमान को महत्व देता हूँ उतना ही उनकी सटीकता से भी समझौता नहीं कर सकता।”
26 APR. 2022 AT 9:35
“वैसे तो हो सकें तो स्वयं के अतिरिक्त किसी अन्य से अपेक्षा रखनी ही नहि चाहियें और यदि समय और स्तिथि की अनुकूलता होने पर रखना पड़ भी जायें तो इस बात की अपेक्षा कि वह हमारी अपेक्षा को अपनी स्वयं की इच्छा जितने मायनें देगा ही ऐसी भी चाह करना अज्ञानता का ही परिणाम होगा यानी अपेक्षा रख ली ठीक पर वह अपेक्षा उसके द्वारा पूरी की ही जायें इसकी इच्छा नहीं रखना चाहियें और किसी भी अन्य से हो सकें तो तब ही सहयोग की अपेक्षा करनी चाहियें या उसके देने की इक्छुकया होने पर लेना चाहियें जब जो हमें चाहियें उसे उन्हें देने में उसके कर्म में थोड़ी सी भी बाधा नहीं हों और यदि समय स्तिथि और उचितता की आवश्यकता होने पर यदि उसके अपने कर्म को बाधित करनें के पश्चात भी यदि उससें लेना पड़ जायें तो उसके कर्म की महत्वपूर्णता या मायनें भी हमारें लियें भी ठीक वैसे ही होने चाहियें जैसे कि जितना उसका उतना हमारा भी कर्म या कर्तव्य हों। )”
26 APR. 2022 AT 9:41
“योग्यता में सही अर्थों में यथावत्ता होती हैं तो सफलता ऐसे प्राप्त होती हैं जैसे दो में चार जोड़ने पर छः की स्वतः ही प्राप्ति हो जाती हैं।”
26 APR. 2022 AT 9:45
“परमात्मा की यथा अर्थों की भक्ति और ज्ञान उसी की प्रेम पूर्ण अनुकंपा से फलित हो सकती हैं।”
29 APR. 2022 AT 21:50
“दूसरों के लियें ऐसे बनों जैसा तुम्हारें लियें तुम दूसरों को चाहतें हों।”
29 APR. 2022 AT 21:53
“अनंत और शून्य महत्वाकांक्षी और योग्यता पूर्ति कर्ता भी वही मेरा; मैं! ही ...”
- रुद्र एस. शर्मा (aslirss)