लीला - (भाग-15) अशोक असफल द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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लीला - (भाग-15)

उसने लजाकर कनखियों से देखा उसे। मगर वह तो ख़ुद वाक़ये से अनजान-सा अपलक स्क्रीन पर नज़रें टिकाए हुए! तब वह उसकी चौड़ी छाती, मांसल भुजाएँ, मोटी-मोटी जाँघें और गोलमटोल मुखड़ा बड़ी ठहरी निगाहों से निरखने लगी...। आइसक्रीम निबटाने के बाद गहने, जैसे, विहँसते हुए उतार कर दराज में रख दिए। मगर बेख़ुदी में श्वेत मोतियों की माला गले में पड़ी रह गई! अजान उसकी चमक आँखों में भर मंद-मंद मुस्कराया, ‘आज इसे नाहक तुड़वाओगी-तुम!’ पर वह नादाँ उस गूढ़ मुस्कान का भेद नहीं जान पाई...सोने-सा पिघलता बदन लिये उसकी बग़लगीर हो रही! तब सिरहाने की ओर हाथ बढ़ा बेडस्विच आफ कर दिया अजान ने। क्षण भर के अँधेरे के बाद, खिड़कियों के रेशमी परदों से छनकर आती रोशनी से रूम में रहस्यमयी उजाला फैल गया। उसकी ओर करवट लिये, गाल हथेली पर टिकाए विहँसती लीला सचमुच जादूगरनी लग रही थी।
दाऊ का कथन बरबस याद हो आया, ‘नारी में नर से छह गुना ज़्यादा इच्छा होती है, जिसे वह लज्जावश दबाए रखती है। पर काम-कला में निपुण पुरुष जब उसका शील तोड़ देता है तो वह गिरह लेती नागिन की तरह बेलि-सी लिपट जाती है।’
दाऊ की युक्ति और अपनी उपलब्धि पर दिल ज़ोर-ज़ोर से हँस रहा था...।
सारे आवेग जब तिरोहित हो गए एक-दूसरे में और अधीरता शून्य में विलीन, तब अपनी माला के मोती बटोर वह हौले से हँस पड़ी, ‘‘दे...खो! इस चीज के लिए हम कहाँ आकर मरे!’’
अजान ने सुना तो मुस्कराकर रह गया।

होटल का रूम जैसे घर बन गया, बल्कि जागीर! और उसका स्टाफ उनका निजी अमला। गोकि यहाँ वे सुख-शांति और स्वतंत्रता से रह सकते थे। यहाँ रहने में चोखा सम्मान भी था। जैसे, बिटिया-दामाद हों! ख़ुशामद हाथोंहाथ हो रही थी। फोन उठाया नहीं कि हर चीज़ हाजिर! कौन जाए स्वर्ग का राजपाट छोड़कर उस नर्क में! वहाँ तो आँखें कौड़ी-सी चिपक जाती हैं देह पर। हर ज़बान चुग़लख़ोर और कान निंदारस के प्यासे बन जाते हैं! पर यहाँ से लौटना तो था एक दिन! यहाँ तो वे दाम के बल पर राज-सुख भोग रहे थे! यह उनकी ज़मीन नहीं थी। यह तो महज़ उड़ान थी...। महीने भर में जब नोटों के बण्डल ख़त्म हो गए तो वे फिर उसी मोहल्ले में लौट आए जिसकी हर खिड़की-दरवाज़े ने उन्हें भर-भर आँख देखा। उंगलियों के इशारों और दबी ज़बानों ने न जाने क्या-क्या कहा? मगर वे तय कर चुके थे कि अब तो खुल्लमखुल्ला मर्द-मेहरिया की तरह रहेंगे। समाज को जिस नज़र से देखना हो, देखे!
लेकिन नज़दीक पहुँचने पर लगा कि क्वार्टर से कुछ तेज आवाज़ें आ रही हैं! वे समझ नहीं पा रहे थे कि हमारे यहाँ कौनसी बारात आ गई! और फिर दरवाज़े पर आने पर यही दिखा कि भीतर कुछ गुण्डे टाइप के लोग बैठे हैं। ...तब लीला और अजान ने एक-दूसरे को सकपका कर देखा। फिर अपने क्वार्टर और उस पर पड़े नम्बर को देखा। और वे विस्मय से भरे अंदर जाने लगे!
बैठक और स्टडी में बैठे लोग यथावत् बैठे रहे, साधिकार। जैसे, पार्लियामेंट में बैठे हों...कुछ कुर्सियों पर और कुछ ज़मीन पर बिछे फर्श पर। इनमें से कुछ परशुराम छात्रावास के दादा टाइप छात्र और कुछ उसी मोहल्ले के नामी लोग थे। पढ़ौवा और गुण्डे लड़के। बेरोज़गार और गुण्डे लड़के। नामचीन और ठलुए लोग।
‘‘माज़रा क्या है?’’
चेहरों पर हवाइयाँ...।
‘‘प्रकसा कहाँ गया?’’
ढूँढ़ती निगाहें...।
‘‘क्वार्टर इन्हें अलाट हो गया क्या?’’
कुशंकाओं की पोटली...।
और वे उन्हीं के बीच डरते हुए-से रास्ता बनाकर बेडरूम का डंडाला खोलकर भीतर आ गए। सामान नीचे पटक दिया। पसीना झर-झर झर रहा था। लीला सर्वाधिक उत्तेजित थी। अजान के रोकते-रोकते वह बीच के दरवाज़े पर आकर कमर पर हाथ धरकर खड़ी हो गई और ताव में बोली, ‘‘जे कोई धरमशाला हैऽ! कैसे आप लोग जा घर पे कब्ज़ा करे बैठे हैं...?’’
‘‘शांत रहिए, शांत!’’ एक हृष्ट-पुष्ट युवक ने गंभीर वाणी में कहा। जिसके गाल पर चाकू का गहरा घाव था...जिसके समर्थन में कुछ लोग और कूद पड़े, ‘‘तुम्हें क्या, तुम फिर निकल जाओ तीर्थ-यात्रा पे...!’’
‘‘अरे! चार रोज़ की तो बात है, खाली है जागो...। वोट गिरे, पेटी खुली, सोई
खाली...’’
फिर चुप्पी...।
‘‘तोऽ! ये-क्या आपको पट्टे पर मिल गया चुनाव कार्यालय के लिए ऽ...।’’ अजान सिंह दहाड़ा।
‘‘एऽ! इतनी ऊँची अवाज नईं!’’ एक ने बेतरह डपट दिया। दो-तीन लोग और झपटे, फिर रह गए। एक थोड़े आवेश में थोड़ी सभ्यता से पेश आया, ‘‘मैडम, ये इस क्वार्टर का भाग्य है जो रज्जू भय्या का चुनावी कार्यालय बना। रट्टा मत पसारो, अपने भय्या से पूछ लो जाके!’’
‘‘उसे भगते ही बना...।’’ एक अन्य पूरी बेशर्मी से हँसा। फिर तीसरे ने कहा, ‘‘रज्जू भय्या की मदद करो, इन्हें पाँड़ेजी पार्षदी में लड़ा रहे हैं!’’
‘‘अरे-क्या,’’ चैथे ने जैसे, पुचकारा, ‘‘आप थोड़े दिन भीतर रह लो...सब समय ऐसे ही कट जागो। रज्जू भय्या-ए निकालने है जा वार्ड सें...!’’
परिस्थिति गंभीर थी। वे घबड़ा गए। सबके सब एक मुँह हो रहे हैं...।
यहाँ गर्मियाँ शुरू हो गई थीं। भीतर के कमरे में बहुत उमस भरी थी। डर भी लग रहा था। वे लोग छत पर निकल आए। तमाम ख़्याल एक साथ चक्कर काट रहे थेः
-रिपोर्ट का ख़्याल!
-बरैया जी की शरण लेने का ख़्याल!
-विधायक से मिलने का ख़्याल!
-गाव से चार लठैत ले आने का ख़्याल!
-कट्टा-बंदूक ख़रीद कर इनका धुआँ उड़ा देने का ख़्याल!
छत से धोबी की छत लगी थी। वे लोग भी ऊपर थे। लीला ने औरत से पूछा, ‘‘हमारे प्रकाश कहाँ गए?’’
वह चुप।
‘‘जे लोग यहाँ कैसे घुसि आए?’’
उसने पीठ फेर ली।
लीला मुँड़ेर फाँदकर आगे पहुँच गई उसके, ‘‘काए, हम सिर्री हैं!’’
‘‘बहन हमें नईं पता...।’’ उसने कहा।
अजान ने आदमी से कहा, ‘‘आख़िर तुम बग़ल में बसत हो! मानो, कल तुम पेई कोई विपदा पड़ जाय तो हमें मोंह दुराइबो शोभा देगो?’’
वह लाउण्ड्री चलाता था। उसकी आँखें भैंगी थीं। उससे नज़रें मिलाना सचमुच टेढ़ी खीर...। वो तुम्हारी तरफ़ देखे और तुम्हें लगे बग़लें झाँक रहा है! सो, वह गला खँखारकर पहले तो कुछ तनतनाया; जैसे, सत्य और न्याय का पाँखी भीतर फड़फड़ाया हो, फिर सहम कर दुबक गया। मानों आँधी से बचने शुतुरमुर्ग ने गर्दन रेत में घुसेड़ ली होः
‘‘हमें कुछ नईं पता साब! ग़रीब आदमी हैं...अपने धंदेई से फुरसत नईं...है।’’

(क्रमशः)