01 MAR. 2022 AT 13:24
“ जब चैतन्य के द्वारा तर्क कर्ता मन से न कोई विचार होगा और भावनात्मक मन से न कोई भाव होगा यानी कल्पना पर लेश मात्र भी नहीं ध्यान होगा, अचेतन में भी भावों और विचारों या हर कल्पनाओं का या कल्पना कर्ता योग्यता का अभाव होगा तब उससे उसका साक्षात्कार होगा; जो होगा वह एक मात्र शून्य आकर होगा यानी तभी सही अर्थों में ॐ आकार से साक्षात्कार होगा।”
08 MAR. 2022 AT 00:46
“कोई भी समाज मन की समझ के दायरों यानी आयामों का परिणाम हैं मतलब परिणामस्वरूप हैं; किसी भी समाज को बदला जा ही नहीं सकता पर हाँ! स्वयं की संकुचितता के आयाम को बदल कर संकुचितता से परे यानी दूर जो समझ का आयाम हैं उसे पाया और फिर उस अपने योग्य समाज में जाया जा सकता हैं।”
10 MAR. 2022 AT 23:33
“ अनंतता का असीमितत्व या अनंतत्व सदैव उससे एक था हैं और सर्वदा रहेगा जिससें अनंतता या असीमितता की पूर्णता के परम् अर्थ की सिद्धि हैं यानी यथा अर्थों के शून्य या शून्यत्व से और यदि अनंतता शून्य से एक नहीं या शून्य के संग के परिणामस्वरूप पूर्ण नहीं तो वह केवल नाम मात्र की अनंता रह जायेगी क्योंकि अनंतता सही अर्थों की पूर्णता हैं अतः उसका अनंतत्व तो उसके पास होगा जो सही अर्थों की शून्यता होगी यानी वहाँ जहाँ शून्यत्व होगा अर्थात् जहाँ निराकारता की घटितता हो रही होगी ठीक उसी भांति शून्य का शून्यत्व यानी शून्यता सदैव उससे एक ही थी हैं और सदैव रहेगी जिससें शून्यता यानी निराकारता के परम् अर्थ की सिद्धि हैं यानी अनंतता सें अतः यदि अनंतत्व से उसकी भी पृथकता घटी तो वह भी नाम मात्र का शून्य रह जायेगा क्योंकि उसका शून्यत्व तो वहाँ होगा जहाँ सही अर्थों की यानी यथा अर्थों वाली अनंता होगी।”
11 MAR. 2022 AT 13:03
“संकुचितता से ग्रसित, होश हीनता से त्रस्त हर किसी के लियें वह ज्ञान का अधिकांश भाग जो वैज्ञानिकी दृष्टिकोण के फलस्वरूप अस्तित्व में आया हो किसी अर्थहीनता युक्त दर्शन से अधिक कुछ नहीं हैं; हो भी क्यों न; उनके अनुसार तो दर्शन और विज्ञान में भी उतना ही अंतर हैं जितना अज्ञान व ज्ञान में हैं, काश वह होशपूर्णता के परिणाम स्वरूप समझ की फलितता से जान सकतें कि हाँ! दर्शन विज्ञान नहीं पर विज्ञान तो एक दर्शन ही हैं।”
19 MAR. 2022 AT 09:24
“जो प्रेम तम या अंधकार का परिणाम हैं वह प्रेम हैं ही नहीं अज्ञान हैं, जो प्रेम लाभ के लालच यानी लोभ के कारण और हानि के भय का परिणाम हैं वह प्रेम तो हैं परंतु उसमें लालच और भय की अशुद्धता हैं जिनसें वह अशुद्ध प्रेम हैं परंतु जो प्रेम प्रेम-ज्ञान अर्थात् प्रेम के कियें अनुभव पर आधारित उसके यथार्थ से परिचय का परिणाम हैं वही शुद्ध परम् प्रेम हैं अतः प्रेम की प्राप्ति उसके अज्ञान, उसकी प्राप्ति से होने वाले लाभ के लालच और उसके नहीं होने की हानि के भय से नहीं होती वरन इसके उसके ज्ञान से परिचय के परिणाम स्वरूप होती हैं; ‛ प्रेम उसे जाननें से सही अर्थों में प्राप्त होता हैं ’ ”
19 MAR. 2022 AT 23:50
“सुंदरता और कुरूपता वास्तविकता के धरातल पर समानता ही तो हैं; क्योंकि अवचेतना की संकुचितता से निकल कर यदि देखा जायें तो यह दोंनों संस्कारों यानी ध्यान में लगी अभ्यस्थता के मोहताज़ हैं। हमारें अवचेतन मन द्वारा बिना वास्तविकता की सूक्ष्मता पर ध्यान दियें जब होश हीनता में संकुचितता के प्रभाव से देखा जाता हैं तो उसी संकुचितता से ग्रसित आकार को सुंदरता और कुरूपता के आयामों में बाट दिया जाता हैं।”
20 MAR. 2022 AT 12:17
“तंत्र यथा अर्थों का पूर्ण अद्वैत वेदांत हैं।”
20 MAR. 2022 AT 12:55
“किसी के भी परिचय की परम् कसौटी क्या हो सकती हैं?
कोई भी हो, उसके परिचय का सभी से अनुकूल माध्यम् उसके कर्म होते हैं क्योंकि उनसे ही किसी को भी सही अर्थों तथा संभवतः सभी अर्थों में भी जाना जा सकता हैं; उसके संबंध में सभी कुछ आवश्यक ज्ञात किया जा सकता हैं;
किसी के भी मूल संबंधित कर्मों से सभी अर्थों में और किसी भी कर्म से किसी या किन्ही महत्वपूर्ण अर्थों में ज्ञान हो सकता हैं।
मन-मस्तिष्क को ही देख लिजियें इनके कर्मों सें या कहूँ कि इनके कर्मों में इस कदर भिन्नता की शून्यता ज्ञात होती हैं कि इन्हें एक ही कहें जा सकनें की अनुकूलता से भिज्ञ करवाती हैं;
अतः सत्य ही हैं तुलना और कल्पना के संबंध में इतने महत्वपूर्ण तथ्य का ज्ञान करवा सकनें की योग्यता रख सकनें से कर्म ही किसी से भी संबंधित का ज्ञान करनें की परम् कसौटी हैं।”
21 MAR. 2022 AT 14:49
“सुंदरता और कुरूपता समय, स्थान और उचितता के अनुकूलता वालें दृश्टिकोण सें यदि यह दों शब्दों में आपके अनुसार भिन्नता हैं तो यह आपकी अवचेतना के परिणाम स्वरूप हो सकता हैं क्योंकि यदि कर्ता चेतना यानी चैतन्य हैं तो इस संबंध में भी आपके अनुसार समता ही वास्तविकता हैं।”
22 MAR. 2022 AT 20:20
“किसी की भी महत्वपूर्णता सर्वधिक उस पर ही निर्भर करती हैं; कोई अन्य महत्व दें न दें कोई फर्क नहीं पड़ता और पडना भी नही चाहियें। वह महत्वपूर्णता ही क्या जो किसी अन्य के महत्व नहीं देने से कम हों जायें? थोथी! तुम्हें किसी अन्य द्वारा महत्व की आवश्यकता हैं इसका अर्थ तो यही है न कि तुममें महत्व की पूर्णता यानी महत्व की पर्याप्तता ही नहीं हैं और यदि ऐसा नहीं हैं तो तुम जानतें हो न कि सही अर्थों में तुम्हारें क्या मायनें हैं; कोई अन्य तुम्हारें महत्व से अंजान होने के परिणाम स्वरूप तुम्हारें महत्व की यथार्थता को नहीं जानें तो इसमें तुम्हारें लियें क्या अनुचित हैं? कुछ नहीं न . . . किसी को भी महत्व देने का अर्थ हैं उसकी आवश्यकता, उसकी सार्थकता; उसकी उपयोगिता को आवश्यक समझना और क्योंकि समता ही सभी की एक मात्र वास्तविकता हैं अतः इस आधार पर सभी का समान महत्व हुआ, सभी समान आवश्यक हैं; अब यदि कोई किसी को महत्व नहीं देता हैं तो इसका अर्थ हैं कि वह सभी की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं जिससें उसका ही अहित हैं क्योंकि यदि वह उसे आवश्यक नहीं समझेगा जो आवश्यक हैं तो उसमें उसका अहित हैं परंतु क्योंकि किसी ने हमें महत्व नहीं दिया इसलियें यदि हम भी उसे या उन्हें महत्व नहीं देंगे तो हम उस सूर्य की भांति होंगे जो इस लियें महत्वपूर्ण हैं यानी सभी के लियें आवश्यक हैं क्योंकि वह सभी को अपना प्रकाश देता हैं चाहें कोई उसे सहयोग करें या नहीं करें; कोई उसके कोई काम आयें नहीं आयें फिर भी वह सभी को अपना प्रकाश प्रदान करता हैं या उस पुष्प की भांति जो उसें भी अपनी सुगंध देता हैं जिसनें उसके जन्म एवं निर्वहन हेतु उसे जल दिया और उसे भी जो ऐसा नही करता क्योंकि वह ऐसा कर सकता हैं पर वह दूसरों के उसकी आवश्यकता को नहीं समझनें सें ऐसा नहीं करें जिससें की वह स्वयं ही अपनी महत्वपूर्णता खो देगा और ऐसा उनके कारण नहीं होगा जो उस सूर्य को या उस पुष्प को महत्व नहीं देतें या दें रहें अपितु सूर्य और पुष्प इन दोनों के कारण अतः कोई हमें महत्व दें या नहीं परंतू जितना उसका महत्व हैं हमें उसे देना चाहियें। अब यदि कोई किसी को महत्व नहीं देता हैं तो इसका अर्थ हैं कि वह सभी की वास्तविकता से अनभिज्ञ हैं जिससें उसका ही अहित हैं क्योंकि यदि वह उसे आवश्यक नहीं समझेगा जो आवश्यक हैं तो उसमें उसका अहित हैं परंतु क्योंकि किसी ने हमें महत्व नहीं दिया इसलियें यदि हम भी उसे या उन्हें महत्व नहीं देंगे तो हम उस सूर्य की भांति होंगे जो इस लियें महत्वपूर्ण हैं यानी सभी के लियें आवश्यक हैं क्योंकि वह सभी को अपना प्रकाश देता हैं चाहें कोई उसे सहयोग करें या नहीं करें; कोई उसके कोई काम आयें नहीं आयें फिर भी वह सभी को अपना प्रकाश प्रदान करता हैं या उस पुष्प की भांति जो उसें भी अपनी सुगंध देता हैं जिसनें उसके जन्म एवं निर्वहन हेतु उसे जल दिया और उसे भी जो ऐसा नही करता क्योंकि वह ऐसा कर सकता हैं पर वह दूसरों के उसकी आवश्यकता को नहीं समझनें सें ऐसा नहीं करें जिससें की वह स्वयं ही अपनी महत्वपूर्णता खो देगा और ऐसा उनके कारण नहीं होगा जो उस सूर्य को या उस पुष्प को महत्व नहीं देतें या दें रहें अपितु सूर्य और पुष्प इन दोनों के कारण अतः कोई हमें महत्व दें या नहीं परंतू जितना उसका महत्व हैं हमें उसे देना चाहियें।”
25 MAR. 2022 AT 09:46
“आपरूपता तर्को में आवश्यक हैं जो कयी बार चेष्ठा करनें से या चेष्ठा करनें के बाद आती हैं पर हाँ! यदि स्वतः आयें तो चेष्ठा नहीं करना चाहियें।”
25 MAR. 2022 AT 09:56
“जो अन्तः से, स्वतः ही निकलती है।
प्रेम भाव पर आधारित रहे, विश्वास जिसकी शक्ति है।।
वही मेरी भक्ति है जिसमें, कामनाओं से पूर्णतः मुक्ति है।
सत्य के अतिरिक्त सभी से, पूर्ण रूपेण विरक्ति है।।
मुझे स्वतः ही, करने से इसके मिल जाती।
अनंत आनंद एवं संतुष्टि, यही कर सकती इसके फल की पूर्ति।।
इस भक्ति को परमात्मा की, करने का कारण कोई कामना नहीं।
कामना भी मैं करु मैं क्या?
जो मिला और जिसके लिये मैंने करि, उसके जितनी कोई कामना नहीं कर सकती पूर्ति।।
कहने का अर्थ यही, कि अनंत का सभी।
अनंत आनंद एवं संतुष्टि; जो भक्ति से मिली, उसके समक्ष तुच्छ ही।।
नहीं कर सकता कुछ भी, परिशुद्ध भक्ति की पूर्ति।
उतनी जितनी की करती, अनंत आनंद और संतुष्टि।।
जो मेरे लिये उचित होगा, जिसकी मुझे आवश्यकता होगी।
यदि मुझमें होगी योग्यता, ईश्वर बिना भक्ति के भी कर देंगे पूर्ति।।
आवश्यकता कैसी? मुझे उनसे माँगने की।
मेरे लिये जो भी सही, उन्हें ज्ञात है सभी।।”
25 MAR. 2022 AT 10:47
“जिसके लियें वास्तविकता की सूक्ष्मता को समझना छोड़ रहें हैं या हमनें असमंझस की अधिकता से कभी छोड़ा था; छोड़ने की आवश्यकता उसे नहीं हैं अपितु उसके तरीके को हैं क्योंकि उससें तो स्पष्टता हैं; असमंझस तो उसके तरीके की देन हैं।”
- रुद्र एस. शर्मा (aslirss)