THOUGHTS OF FEB. 2022 Rudra S. Sharma द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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THOUGHTS OF FEB. 2022

1 FEB. 2022 AT 01:35

“एक समय था जब मैं आत्म अनुभूति नहीं होने पर परमात्मा को जानता नहीं था वरन इसके उसे मानता ही था क्योंकि यह सिद्ध नहीं हुआ था कि परमात्मा हैं कि नहीं परंतु हाँ! यह अवश्य सिद्ध हो गया था कि यदि वह नहीं भी हैं तो भी उसे या उसकी उपस्थिति को माननें में यथा अर्थों में अनंत यानी सभी का हित हैं अतः यदि वह नहीं भी हैं तो भी उसकी उपस्थिति को मानना ही चाहियें; चाहें उसकी उपस्थिति को मानना अंधविश्वास यानी मेरा अज्ञान ही क्यों न हों। अज्ञान यानी भृम में न होनें की सुनिश्चितता करनें से कही अधिक प्राथमिकता योग्य अनंत के सही अर्थों के हित की सुनिश्चितता हैं; सभी का हित हैं और इस प्राथमिकता यानी उद्देश्य की पूर्ति अज्ञान में नहीं रहने के स्थान पर यदि अज्ञान को स्वीकारनें में भी यदि हैं तो अज्ञान को भी स्वीकारना अनुचित्ता नहीं। अनंत का हित जो कि परम् उद्देश्य उससें ज्ञान के लियें भी समझौता नहीं। परमात्मा यदि अज्ञान या भृम हैं भी तो उस परम् भृम यानी अज्ञान को भी होना चाहियें; उसे अज्ञानता नहीं अपितु वास्तविकता होना चाहियें और देखियें आज संतुष्टि का कोई ठिकाना नहीं; आत्म अनुभव के होते ही उसकी उपस्थिति हैं यह भी सिद्ध हों गया; जिसें अज्ञान होने की संभावना होने पर भी मैं स्वीकार करनें को सज्ज था वह ही एकमात्र यथार्थ ज्ञान सिद्ध हो गया। जो हैं वही हैं और नहीं जो वह भी वही यथा अर्थों में अब सिद्ध हो गया।”

1 FEB. 2022 AT 13:21

“वह ज्ञानी ही कैसा जिसें यह ज्ञात नहीं कि ज्ञान अनंत हैं अतः जितना भी प्राप्त कर लों कभी पूर्णतः प्राप्ति नही होगीं।”

2 FEB. 2022 AT 17:53

“सभी कुछ महत्वपूर्ण हैं। अपने समय, अपने स्थान पर सभी सार्थक हैं इसलियें अनुकूल समय, स्थान होने पर सभी को बिना भेद के भाव पर ध्यान दियें समान महत्व देना चाहियें। चाहें निराकारता अर्थात् वास्तविकता यानी सत्य हो या फिर साकारता अर्थात् माया, भृम यानी अज्ञान जो हैं एक हैं; समय, स्थान और अनंत और शून्य अस्तित्व के लियें यदि यथार्थ यानी सही अर्थों में हितकर हैं तो जड़ता और होशपूर्वकता भी समान महत्वपूर्ण हैं, एकमात्रता और अनेकता भी एक ही हैं ' समता ही अनंत की सुंदर और परम् अर्थात् सर्वश्रेष्ठ वास्तविकता हैं '।"

2 FEB. 2022 AT 18:12

“मेरी अभिव्यक्ति की प्राथमिकता सर्वप्रथम अनंत और शून्य अस्तित्व की अर्थ पूर्ति को लेश मात्र भी बाधित नहीं होने देना हैं और फिर दूसरी यह कि यथावत्ता होनी चाहियें; जो जाना, जैसा जाना अभिव्यक्ति वैसी की वैसी होनी चाहियें हाँ! पश्चात इसके जो भी आवश्यकता के आधार पर आधार शेष रह जातें हैं वह प्राथमिक आधार हो सकतें हैं।"

2 FEB. 2022 AT 18:57

“वह यदि हैं तो वह कल्पना हैं और यदि नहीं हैं तो उसकी अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम् से हुयी यथावत्ता नहीं होगी इसलियें यहाँ करना अनुचित्ता हैं।”

2 FEB. 2022 AT 19:11

“वह दृश्य हैं न ध्वनि हैं; गंध हैं न स्पर्शानुभव ' वह यदि हैं तो शुद्ध अनुभूति कल्पना हैं '।”

3 FEB. 2022 AT 17:43

“बेहोशी से होश संभालने के अभ्यस्त होने से अच्छा हैं होश से बेहोशी को नियंत्रित करनें में अभ्यस्त हुआ जायें।”

3 FEB. 2022 AT 18:17

“दूसरों के समझ के स्तरों जितनी सहूलियत वाली हो सकें ऐसी पहले ही अभिव्यक्ति कर चुका हूँ अब इस जीवन में खुदके लियें लिखता हूँ, उनके लियें लिखता हूँ जो मेरी ही तरह मुझ जितनी समझ के स्तर पर हैं।”

6 FEB. 2022 AT 23:57

“यथार्थ अर्थात् जैसी परमात्मा के सर्वाधिक योग्य सही अर्थों में की अभिव्यक्ति हैं तो वह मात्र परम् अवधूत की अभिव्यक्ति ही हैं, यदि व्यक्त कर्ता परम् अवधूत नहीं हो तो उसकी परम् आत्मा के सर्वाधिक योग्य अभिव्यक्ति यथार्थ हो ही नहीं सकती।”

9 FEB. 2022 AT 22:22

“प्रेम यथा अर्थों में उन्हें ही मिलता हैं जो उसके योग्य होते हैं; उसकी अनंत मूल्यता को अदा करनें के पश्चात ही उसे पातें हैं पर उसें गंभीरता या उस पर पर्याप्त ध्यान वह ही देते हैं या फिर दे पातें हैं जिन्हें अपनी अदा की गयी कीमत या मूल्य ज्ञात हों विपरीत इसके जो प्रेम के बदलें उनके द्वारा अदा कियें अत्यधिक मूल्य को भूल गयें हों वह ही इसें मज़ाक का नाम दें सकनें हैं; वह ही इस पर ध्यान नहीं दें सकतें हैं; वह ही अभागे या कहूँ बेचारें इस अतिमूल्य को, इस अमुल्य को गंभीरता से नहीं लें सकतें। हें सर्वश्रेष्ठ होश, सर्वश्रेष्ठ ध्यान, परम् जागरूकता, परम् चेतन्य, हें परमात्मा! हर उसको जिसें तेरे द्वारा परम् प्रेम की प्राप्ति किसी भी देने वाले तेरे भाग या अंश से हुयी हैं, उन्हें उस प्रेम की सार्थकता, संबंधित सभी हेतु आवश्यकता, महत्वपूर्णता, अतिमूल्यता, उनकी उस योग्यता, उसकी अमूल्यता उसके मायनें या मोल भी ज्ञात रहें जिसकें परिणाम स्वरूप उन्हें प्रेम की प्राप्ति हुयी हैं।”

16 FEB. 2022 AT 21:22

“धारणा से अनंताकारता हैं और ध्यान से शून्याकारता, शून्यता वास्तविकता हैं यही सत्य यानी चेतना यही ज्ञान हैं और अनंतता ही अचेतनता, मिथ्या, माया अर्थात् लीला का परिणाम। जो भी हैं या फिर जो नहीं भी हैं उचित यानी श्रेष्ठ अर्थात् अनुकूल हैं, समान हैं हाँ! समता ही अनंत यानी अचेतनता या अज्ञान की और शून्य अर्थात् चेतना या ज्ञान की भी सुंदर तथा सर्वश्रेष्ठ वास्तविकता हैं।”

18 FEB. 2022 AT 14:04

“संकुचितता के परें यानी सूक्ष्मता की पर्याप्त गहराई में ही यथार्थता यानी परम् स्पष्टता रहती हैं, समझ के आयाम में उसकी अभिव्यक्ति ही तो असमंझस रहितता की सुंदर अनुभूति सदैव देती हैं।”

18 FEB. 2022 AT 15:23

“प्रेम स्वतंत्रता का पर्याय हैं, हाँ! स्वतंत्रता और प्रेम एक ही हैं। स्वतंत्रता के बिना प्रेम का मिल जाना असंभव हैं और प्रेम के बिना स्वतंत्रता भी रह ही नहीं सकती और यदि आपके अनुसार वह हैं तो वह परतंत्रता हैं यानी सही अर्थों में स्वतंत्रता हैं ही नहीं।”

18 FEB. 2022 AT 15:35

“वह जो सही अर्थों में असीम हो उसके यानी उसकी सही अर्थों की पूर्ति के लियें अनुकूल होने पर किसी भी सीमा तो तोड़ना और किसी भी सीमा को स्वीकार लेना इसमें किसी व्यर्थता हो सकती हैं; नहीं! नहीं हो सकती।”

19 FEB. 2022 AT 22:56

“जिनका होना समय के तीनों में से किसी एक आयाम में ही जो हैं और जो नहीं हैं उन सभी के लियें अनुकूल हो उसे उस एक को छोड़ समय के अन्य आयामों में नहीं होना चाहियें।”

20 FEB. 2022 AT 11:58

“मन क्या हैं?

जिसका एक हिस्सा कल्पना कर्ता हैं, जिसमें बुद्धि तुलना करने वाली, चित्त यानी भावों तथा विचारों का संग्रह, अहंकार वह आकर जिसका अनुभव किया जा सकता हैं और इन सभी से परे जिसका अनुभव या गहरी कल्पना नहीं कि जा सकती वह वास्तविक हम हैं यानी अहंकार या हमारें ऐसे हम या मैं का आकार जो वास्तविकता में नहीं हैं; जो हमारा हम या मैं का आकार हमारा भृम यानी अज्ञान हैं उसका विलोम अर्थात् हमारें यथार्थ हम या मैं का आकार ही सही अर्थों में हम हैं।”

20 FEB. 2022 AT 12:31

“मैं कौन हूँ?

यदि मैं जैसा हूँ और जो मुझें होना चाहियें उस आधार पर कहूँ यानी यथार्थ के आधार पर कहूँ तो मेरे समुचित अस्तित्व के लियें जो कि मेरे अनुभव या मेरी अनुभूति के आधार पर शून्य और अनंत हैं मैं वह हूँ जो सर्वाधिक श्रेष्ठ या कहूँ की अच्छा हैं और वह जो इस कदर मेरे अस्तित्व के लियें बुरा या उसके लियें हानिकारक हैं वह हूँ पर समय तथा स्थान और उचितता के अनुकूल होने पर ही और मुझें ऐसा होना भी चाहियें। अच्छा और बुरा, सत्य और असत्य यथार्थ यानी वास्तविक या वैज्ञानिकी दृष्टिकोण को छोड़ सभी दृष्टिकोणों या दर्शनों के अनुसार होता हैं परंतु वास्तविक यानी यथार्थ दृष्टिकोण उसे ही श्रेष्ठ कहता हैं जो परम् सत्य हैं; जो सूक्ष्मता से जानने के परिणाम में जाना गया हैं, जो समय, स्थान और उचितता के अनूकूल हों।”

21 FEB. 2022 AT 14:32

“दर्शन और विज्ञान में अंतर यही हैं कि दर्शन हर एक दृष्टिकोण के अनुसार हैं और विज्ञान सभी दृष्टिकोणों का निष्कर्ष यानी सार हैं। दर्शन के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण हैं हमारें वेद और विज्ञान का हर एक उपनिषद यानी वेदांत। दर्शन देखा जा सकनें वाला या दर्शन किया जाने या जा सकनें वाला हर एक अर्थ हैं और विज्ञान जो वास्तविकता में हैं या जिसे होना चाहियें; समय स्थान और उचितता के अनुकूल अर्थ अर्थात् यथार्थ। दर्शन ऐसे व्यक्त कियें शब्द और उनके अर्थ हो सकतें हैं जिनका आधार बना ज्ञान संकुचितता से प्रभावित हों और नहीं भी हों परंतु विज्ञान वही हैं जो संकुचितता के प्रभाव से परें हैं। दर्शन में उन अर्थों की भी शब्दों के साथ सहितता की जा सकती हैं जो ऐसे ज्ञान पर आधारित हो जो संकुचितता के प्रभाव में हैं और इसमें उन शब्दों तथा उनके अर्थों की भी सहितता हो सकती हैं जिनका आधार यानी ज्ञान संकुचितता के प्रभाव से परें हो यानी प्रभावित नहीं हों। दर्शन विज्ञान हो सकता हैं परंतु विज्ञान दर्शन नहीं हो सकता क्योंकि विज्ञान संकुचितता हीन हैं और दर्शन संकुचितता युक्त भी और उससे परें भी हैं। आधुनिक विज्ञान सही अर्थों में विज्ञान हैं ही नहीं क्योंकि वह संकुचितता के प्रभाव में हैं और तब तक हो भी नहीं सकता जब तक संकुचितता से मुक्ति नहीं पा लें। यह केवल जन्म लेने से मृत्यु होने तक के ज्ञान के आधार पर आधारित हैं; यह संकुचित हैं।”

21 FEB. 2022 AT 15:30

“किसी के भी संबंध में पूर्णतः जाने बिना कोई एक मत बना लेना अनुचित हैं।”

21 FEB. 2022 AT 16:09

“योग क्या हैं?
जो हमारा हमारें समुचित अस्तित्व से जुड़ाव हैं चाहें हमारा वह अस्तित्व हमारी वास्तविकता यानी शून्य हो या फिर जो संकुचितता के महत्व के ज्ञान के परिणाम स्वरूप उसे किसी समय और स्थान तथा उचितता के अनुकूल होने पर संकुचितता को स्वीकार लेने पर जो यथार्थ सिद्ध होता हैं वह हमारा अज्ञान अर्थात् अनंत, उसका स्वयं के हर भाग से जो जुड़ाव या जोड़ हैं था और जो अनंत काल तक रहेगा वही जोड़ या जुड़ाव ही योग हैं पर हम हमारें समुचित अस्तित्व के इस जुड़ाव का ज्ञान इस कदर नहीं होने से कि जिससें उसका अनुभव या उसकी अनुभूति भी नहीं की जा सकें जुड़ कर भी हमारें अज्ञान के कारण नहीं जुड़े हैं और इसका कारण यही हैं कि हमनें हमारें समुचित शून्य और अनंत अस्तित्व पर से इस कदर अपना ध्यान हटा रखा हैं कि हम उस पर ध्यान चाह कर भी नहीं दें पातें इसलियें हम सर्वप्रथम हमारें ध्यान को साधते हैं और फिर विभिन्न तरीकों से हमारें अस्तित्व के हर भाग पर ध्यान देते हैं फिर धीरे धीरे हमारा ध्यान हमारें द्वारा हमारें समुचित शून्य और अनंत अस्तित्व पर दिया जाने योग्य हो जाता हैं जिससें कि भिन्नता प्रतीत करवानें वाला अज्ञान मिट जाता हैं और हम अनुभव के आधार पर भी शून्य और अनंत अस्तित्व से एक होकर अनंत और शून्य हो सकते हैं। जो जितना अधिक मानता ही नहीं अपितु माननें के परिणाम स्वरूप स्वयं के पूरे अस्तित्व से जुड़ाव को जानने के आधार पर भी एक हैं वह उतना बड़ा योगी हैं। क्योंकि वास्तविकता में तो हम एक ही हैं पर मान लेने से की हम भिन्न हैं हम एक से अनेक हो गयें अतः यदि हम पुनः मान लें कि हम अनेक नहीं अपितु जो हैं वह और जो नहीं हैं वह भी एक ही हैं तो पुनः एक हो सकतें हैं, पुनः जुड़ सकतें हैं। इस ध्यान योग को कर लेने से ही योग करने के सही अर्थों की पूर्ति हैं; हाँ! इससें ही यथा अर्थों में हमारा हमसें योग हैं यानी जुड़ाव हैं। ध्यान योग ही यथार्थ योग हैं और ध्यान योग से ही यथार्थ योग की सिद्धि हैं। जो जितना अधिक मानता ही नहीं अपितु माननें के परिणाम स्वरूप स्वयं के पूरे अस्तित्व से जुड़ाव को जानने के आधार पर भी एक हैं वह उतना बड़ा योगी हैं। क्योंकि वास्तविकता में तो हम एक ही हैं पर मान लेने से की हम भिन्न हैं हम एक से अनेक हो गयें अतः यदि हम पुनः मान लें कि हम अनेक नहीं अपितु जो हैं वह और जो नहीं हैं वह भी एक ही हैं तो पुनः एक हो सकतें हैं, पुनः जुड़ सकतें हैं। इस ध्यान योग को कर लेने से ही योग करने के सही अर्थों की पूर्ति हैं; हाँ! इससें ही यथा अर्थों में हमारा हमसें योग हैं यानी जुड़ाव हैं। ध्यान योग ही यथार्थ योग हैं और ध्यान योग से ही यथार्थ योग की सिद्धि हैं।”

21 FEB. 2022 AT 22:14

“विचारों को, भावनाओं को, कल्पनाओं को यानी हर एक अनुभव को हम मूल संबंधित कह सकते हैं इस आधार पर कि यह आपको मूल श्रोत अर्थात् आपके मन से प्राप्त हुआ परंतु आप इन्हें इस आधार पर मूल संबंधित नहीं कह सकते कि यह केवल आपका ही हैं या सर्वप्रथम आपको इनका अनुभव हुआ क्योंकि आपसे पहले भी आपको आने वाले हर विचार, भाव, कल्पना का अनुभव यानी कोई भी अनुभव आया था और आपके बाद भी आ सकता हैं।”

23 FEB. 2022 AT 08:39

“ज्ञान के आदान प्रदान हेतु तंत्र यानी व्यवस्था जो प्राकृतिक हैं अर्थात् परिस्थितियों द्वारा हैं वही सही अर्थों में व्यवस्थित है जितनी हमारें द्वारा निर्मित इस हेतु व्यवस्था इस प्राकृतिक व्यवस्था से पृथक होगी उतनी ही अधिक इसमें अनुचित्ता होगी अतः इस पृथकता को मिटाना होना तभी हमारें तंत्र में अनुकूलता हो सकती हैं अन्यथा नहीं।”

27 FEB. 2022 AT 09:11

“तुम यदि इसलियें दंपत्तियों को अपने दाम्पत्य जीवन के संगी के चयन करनें का विकल्प नहीं देते क्योंकि तुम्हारें अनुसार वह अभी इस योग्य नहीं हैं कि वह पर्याप्त अनुकूलता युक्त निर्णय लें सकें और तुम उनके दाम्पत्य जीवन के संगी का निर्णय लेते हों क्योंकि तुम्हारें अनुसार तुम उनके लियें उनसे श्रेष्ठ निर्णय लें सकते हों तो जो अपनी दाम्पत्य जीवन से संबंधित प्रथम निर्णय यानी उसके हेतु अपने संगी के चयन का निर्णय भी सर्वश्रेष्ठता से नहीं लें सकते वह उस जीवन के पड़ाव में जाने के योग्य ही नहीं हैं; हाँ! वह वैवाहिक जीवन को शुरू करने के योग्य ही नहीं हैं, औपचारिक रूप से तुम उनका वह जीवन शुरू कर भी देंगे तो भी सही अर्थों में उनका वह जीवन लेश मात्र भी सार्थकता युक्त नहीं होगा और यदि वह अपने दाम्पत्य से संबंधित निर्णय सही अर्थों में लेने के योग्य हैं तो निः संकोच सर्वश्रेष्ठता से अपने जीवन के इस पड़ाव से संबंधित अपने साथी को चुनने का निर्णय ही नहीं अपितु हर निर्णय लें सकते हैं तुम्हारी मध्यस्थता निरर्थकता या व्यर्थता के अतिरिक्त कुछ भी सिद्ध नहीं होती और यदि तुम्हारें लियें इन समय, स्थान और उचितता के अनुकूल तर्कों का कोई महत्व नहीं हैं यानी तुम्हें तो बस जो तुम्हारा अवचेतन मन कह रहा हैं उसे बिना समझ को महत्व दियें करना हैं तो तुम खुद निर्णय लेने के लियें परिपक्व समझ युक्त निर्णय लेने के योग्य नहीं हों।”

28 FEB. 2022 AT 11:15

“आकार कल्पना का होता हैं जहाँ कल्पना से पृथकता पूर्णतः होती हैं वहाँ निराकारता घट जाती हैं। कल्पना को मन का पर्याय कहा जा सकता हैं; यह मन का मौलिक कर्म हैं और कर्म से ही किसी का भी सर्वाधिक महत्व वाला परिचय हैं इसलियें कल्पना ही मन हैं अतः बुद्धि यानी तर्क कर्ता, चित्त यानी अचेतन मन यानी भावों, विचारों यानी मौलिक रूप से कल्पनाओं को कर सकनें की योग्यता यानी आदतों के संग्रह, अहं या हम यानी मैं का आकार भी इस पर ही निर्भर करता हैं।”

- रुद्र एस. शर्मा