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कैलाश बनवासी-कविता, पेंटिंग, पेड़ कुछ नहीं

पुस्तक समीक्षा             कविता, पेंटिंग, पेड़ कुछ नहीं

राजनारायण बोहरे

 

पुस्तक -कहानी संग्रह %  कविता, पेंटिंग, पेड़ कुछ नहीं

लेखक- कैलाश बनवासी

प्रकाशक  सेतु प्रकाशन नई दिल्ली

मूल्य -200  रूपये 

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       हिन्दी में नयी सदी के पहले दशक में चिन्हित किये गये कुछ युवा लेखकों और समीक्षकों से पहले की एक और पीड़ी थी जो एक लम्बे अरसे से बहुत बेहतर कहानी लिख रही थी । लेकिन इस पीड़ी के तमाम लोग  किसी बड़ी पत्रिका के सम्पादक अथवा कहानी आंदोलन के किसी खास मसीहा या आलोचक वगैरह की मनपसन्द टोली में सम्मिलित नहीं थे। तो दिल्ली में बैठे हुए सम्पादक और कथालोचना के दिग्गज जो कि उन दिनों सदी के या दशक के देश भर के प्रमुख कहानीकार और प्रमुख कहानियों पर महासंग्रह निकालने वालों की याददाश्त में ऐसे रचनाशील कल्पना के धनी प्रतिभाशाली महत्वपूर्ण कहानीकारों का नाम नहीं था। पर ऐसे कथाकारों के अपने पाठक थे। अपना काम था। अपने द्वारा विकसित कहानी का निजी मुहाविरा था व अपनी विशिश्ट  शैली थी। यही नहीं इनके द्वारा लिखी गयी कुछ  ऐसी महत्वपूर्ण कहानियां हिन्दी कहानी के भाण्डागार में थी जिनके दम पर उन्हें एक विलक्षण और अनूठे कहानीकार के रूप में जाना जा सकता है। ऐसे कथाकारों में कैलाश बनवासी का नाम बेहिचक लिया जा सकता है।

       कैलाश बनवासी का पांचवा कथा संग्रह  ’ कविता पैन्टिंग पेड़ कुछ नहीं’ के नाम से सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है ।  जिसमें कैलाश की एकदम ताजा दस कहानियां सम्मिलित हैं। इस संग्रह में उनकी एक लम्बी कहानी ’ अंजाम-ए-मुहब्बत हमें मालूम है लेकिन ’ के साथ नौ दूसरी कहानियां संग्रहीत हैं।

       संग्रह की पहली कहानी ’ बड़ी खबर ’ बच्चों के बचपन को  प्यार करती महत्वपूर्ण कहानी है। कथा यह है कि बैंक के एक ब्रांच कार्यालय में कहानी  प्रवक्ता किसी काम से आया है और भुगतान खिड़की पर अपनी बारी के इंतजार में समय काट रहा है कि देखता है वहां लगे टेलविजन पर सर्जिकल स्ट्राइक की न्यूज बड़ी खबर के रूप में आ रही है लेकिन ताज्जुब है कि वहां मौजूद किसी भी व्यक्ति को इस न्यूज में कोई दिलचस्पी नही है। तभी सहज रूप से ब्रांच में एक युवा व्यक्ति अपने काम से प्रवेश करता है जिसके साथ उसके दो बच्चे हैं-एक की उम्र डेढ़ साल तथा दूसरे की साड़े तीन साल। पिता अपने काम में लग जाता है और बच्चे खेलने में। बच्चों को न यह चिन्ता है कि वे किसी अजनबी और हद दर्जे की फॉर्मल जगह आये हुए हैं  इसलिए उन्हें अपनी जगह पर चुपचाप बैठना चाहिये। वे स्टील की बैन्च पर फिसलने ] कांच के दरवाजे से बाहर-भीतर आने जाने और टाइल के चिकने फर्स पर मैढ़क की तरह फिसलने जैसे मनमर्जी के खेल में निमग्न है,  कैलाश के शब्दों में विधुन रहते हैं। संयोग से आज न बैंक का मुच्छड़ गार्ड है न बैंक कर्मियों को यह फुरसत कि बच्चों को टोकें। बस उन्हें चोट न लग जाये या कोई डांट न दे इस चिन्ता में कथा कहने वाला व्यक्ति प्यार से बरज देता है या वह एक घरेलू महिला जो एक दो बैन्च आगे बैठी हुई  है। इनके अलावा भी कितने सारे लोग हैं लेकिन वे सब निर्पेक्ष बने बैठे हैं न उनके चेहरे पर बच्चों के लिए कोई वात्सल्य है न ही अनुशासन बनाये रखने का कोई भाव। ऐसे निर्पेक्ष लोगों के बारे में कोई टिप्पणी न करके भी लेखक बहुत कुछ कह जाता है। कहानी की अंतिम पंक्ति है-सहसा जाने क्यों मुझे यह बात कोई बहुत बड़ी नेमत सी लगी थी- कि बच्चे खेल रहे हैं। वही टेलिविजन पर बड़ी खबरों का सिलसिला बदस्तूर जारी था (  पृष्ठ 15

            संग्रह की दूसरी कहानी ’झांकी’ है जिसमें अपने सहकर्मी मिश्रा के बेटे का डेंटल कॉलेज में एडमीशन कराने वाले सह बहुत सहज और मध्यवर्गीय सोच के  अधिकारी पुलिस सुंप्रिटेंडेंट के साथ नगर के एक बड़े शिक्षा साम्राज्य को निरखने की आत्मकथात्मक शैली में कहानी कही गयी है। इसमें एक चरित्र को बनवासीजी कह के ही सम्बोधित किया गया है । नगर में दस -बारह साल पहले राईस मिल का कारोबार करने वाले राठी परिवार द्वारा बहुत सोच समझ कर उच्च शिक्षा में किया गया गया निवेश कितनी तेजी से धन की  बाढ़ और यश व सम्बंधों की बड़ी सौगात लेकर आता है उसको बहुत सहज अंदाज में कहा गया है। अपने कॉलज से निकले लोगों के उच्च पदों पर होने समाज सेवक होने और जन कल्याण में लगे होने की सगर्व घोषणा और चिन्हित कराता राठी एक जाना पहचाना सा अमूमन हर कस्बे में मिल जाने वाला शिक्षा इण्डस्ट्री में निवेश करने वाला एक हस्ब मामूल बन्दा लगता है। लेखक बहुत आसानी से बताता है कि सालाना फंक्शन में डेंटल कॉलेज के फायनल इयर के छात्र अतिथियों के भाषण को बड़ी बोरियत में झेल रहे थे भाशण ख्त्म होते ही बाद पूरी मस्ती के साथ डांस करके इंजॉय करते है गाना बज रहा है-मुन्नी बदनाम हुई डार्लिंग तेरे लिए।  

       तीसरी कहानी ’झुलना झूले मोरे ललना’ सत्ता के इर्द गिर्द रहते तमाम दलालों मुँह लगे पिटठू कवियों राजनैतिक जमीन तलाशते युवाओं और उनके बीच चुपचाप रहकर जन जागरण का काम करते लोगों की प्रताड़ना की एक जबरदस्त कहानी है । ऐसी प्रताड़ना जिसे मध्यप्रदेश और छत्तीसगड़ में पिछले पंद्रह साल से भुगत रहे जनवादी चेतना के हर बन्दे को किसी न किसी तरह भुगतना पड़ रही है। नवीन नामक प्रोफेसर अपने छात्रों और पूर्व छात्रों के साथ एक सांस्कृतिक फोरम ’कोरस’ बनाकर समाज में जागरण की गतिविधियां और जनवादी उपक्रम जैसे जनगीत गायन नुक्कड़ नाटक और मौजूदा मुद्दो पर संगोश्ठी आदि के काम में जुंटे रहते हैं। उनकी बढ़ती हुई जनप्रियता साथि यों की आंखों में खटकती है और वे एन केन प्रकारेण नवीन को परेशान करने की साजिश में जुटे  रहते हैं। एक सहयोगी तो मार्क्सवाद समर्थक और नक्सल वादि यों से उनके सम्बंध होने संबंधी उनकी शिकायत थाने में करके उनके यहां रेड तक करवा देता है लेकिन पुलिस को ऐसे कोई साक्ष्य नही मिलते कि उन्हंे हिंसक आंदोलन का समर्थक माना जाये तो पुलिस अधिकारी उन्हें घर जाने की इजाजत दे देते हैं तो वे अपने यहां से जप्त की गयी उन किताबों की सूची जरूर मांगते हैं जिनमें मार्क्स वाद की एक पुस्तक व नामवरसिंह के फोटो छपी एक पुस्तक भी है, यह सूची इस आशय से भी मांगी जाती है कि कल को पुलिस अपनी ओर से कोई आपत्तिजनक पुस्तक या पत्रिका  उनके यहां से बरामद बताकर उनके खिलाफ साक्ष्य न खड़े कर ले। नवीन के विरोधि यों ने इस बार उन पर नया हमला किया है नवीन का तबादला चार सौ किलोमीटर दूर एक नामालूम से कस्बे में कर दिया गया है जिसे निरस्त कराने वे एक मंत्री एक दलाल और एक मंत्री के भतीजे सहित एक संस्कृत विशेशज्ञ से भी मिलते हैं  हर जगह से तबादला निरस्त करा देने के आश्वासन तो मिलते हैं। लेकिन बिना पैसे के लेन देन के यह कार्य होना मुमकिन नही लगता देख नवीन भाई नयी जगह जाने के लिए बोरिया बिस्तर बांधने लगते हैं। राजनीतिक गलियारों मंत्री के भाई भतीजों और दलालों सहित जुगाड़मंद कवियों वगैरह के बारे में इस कहानी में अनायास बहुत कुछ मजेदार तथ्य प्रकट होते हैं।

       चौथी कहानी ’नो’ एक ऐसी बैककर्मी युवती की कहानी है जिसने तालीम तो इंजीनियरिंग की ली है लेकिन जॉब नही मिलने के कारण वह एक प्राइवेट बैंक में लिपिकीय पद पर बहाली स्वीकार कर लेती है। गांव की ब्रांच में पोस्टिग पा कर वह देखती है कि यहां के बैंक कर्मी को ब्रांच के लेन देन सीमा से ज्यादा कैश को बड़ी ब्रांच में हस्तातंरण से लेकर अपने ग्राहकों के जन्मदिन पर शुभकामना देने उनके घर जाने तक की डयूटी करना पड़ती है। पहले गांव से कस्बे के लिए अप डाउन करती प्रभा बाद में गांव में ही मकान किराये पर लेकर रहने लगती है तो ब्रांच का निकम्मा मैनेजर उसके कंधो पर काम का वजन बढ़ाता चला जाता है  जिसका प्रभा लगातार विरोध करती है। चूंकि वह योग्य कर्मचारी है तो काम भी उसी को सोंपा जाता है जबकि उससे कम योग्य कर्मचारी सुमन को कोई काम नही बताया जाता। एक दिन सांझ समय किसी जमींदार के घर जाकर जन्मदिन बधाई देने का निर्देश न मानने पर मैनेजर कह देता  है कि अगर डयूटी नही करना होता तो त्यागपत्र दे सकती हो और प्रभा तुरंत ही त्यागपत्र देकर अपने घर को निकल लेती है। घर लौटते हुए उसे ताजा हवा खुला आकाश ओर सूर्यास्त समय के निरभ्र आकाश को देख अपूर्व सुख का अनुभव होता है।  इस कहानी में बीई करने वाले छात्रों से जुड़े बहुत सारे चुटकुले इस कहानी को रोचक बना डालते हैं। वही प्राइवेट बैंकिग की बदमाशियों और सार्वजनिक बैंक के निरीह व अकर्मण्य होते जाने की दशा का वर्णन इस अंदाज में आता है कि पाठक सहज ही बैंक क्षेत्र की वास्तविकताओं से अवगत हो जाता है।

       संग्रह की सबसे लम्बी बड़ी और प्रभावशाली कहानी ’ अंजाम&ए&मुहब्बत हमें मालूम है लेकिन ’ है। इस कहानी में कैलाश बनवासी अपने पूर्ण &रचनात्मक कौशल के साथ विद्यमान हैं। यह कहानी अनेक शेडस के साथ लिखी गयी है, जो कि लम्बी कहानी का औपन्यासिक गुण कहा जाता है। कहानी यह है कि शहर से बीस किलोमीटर दूर के एक स्कूल में एक नयी लड़की का अध्यापक के रूप में पदांकन होता है । कथानायक देवीलाल भी उसी शहर के वासी है जहां से नम्रता को आना जाना करना होगा इसलिए स्वाभाविक रूप से दोनों का साथ-साथ बस से आना-जाना आरंभ होता है। सामान्य शक्लसूरत और निम्न मध्य वर्गीय परिवार का देवीलाल सदा ही लड़कियों से दोस्ती और निकटता के लिए तरसता रहा है, उसे नम्रता के रूप में एक अच्छी अल्हड़ दोस्त मिलती है । जिसे वह डांट भी लेता है स्नेह भी करता है और दोस्त की तरह उससे बतिया भी लेता है कहा यह जाना चाहिए कि नम्रता एक निश्छल और निश्कपट लड़की है जो वर्तमान युग की किशोरी और युवतियों की तरह लड़कों को दोस्त बनाने के पीछे कोई ऐसा वैसा मतलब ही नहीं समझती जैसा लड़की से दोस्ती वैसे लड़के से उसकी कल्पना में दूर  तक कोई  प्रेम प्यार या ऐसी भावना है ही नही।  वह इतनी सरल है कि पिछले दिन मोहल्ले के बच्चों के साथ घर में किए गए हुल्लड़ खेलते हुए नहाने और नाचने तक की बात देवीलाल को बताती है देवीलाल उस पर बलिहारी जाता है। कभी वे लोग बस स्टैण्ड से नम्रता के घर के बाच के एक रेस्टोरेंट में हल्का फुल्का नाश्ता भी करते हैं। लेकिन देवीलाल की हिम्मत तो नम्रता के घर जाकर और उसके अकेली पाकर भी छूने या कोई ऐसी वैसी हरकत करने की नहीं होती है। एक दिन वही सीधी लड़की बस में सहयात्री एक प्रौड़ वय के सरकारी अधिकारी को बुरी तरह लताड़ती है क्योंकि वह उसके घर उसकी उम्र वगैरह वगैरह निजी सवाल पूछने में जुट जाता है। तब देवी को लगता है कि जितनी जरूरत है उतनी चंट चालाक भी है यह लड़की सिर्फ नोनी नहीं है। एक दिन बीच रास्ते में उसकी सा़ड़ी खुलने लगती है तो देवी सलाह देता है कि पास बनी झोंपड़ी के पीछे जाकर साड़ी ठीक कर लो। उन दोनों के लम्बे समय तक साथ रहने की वजह से स्कूल की महिला और पुरूष अध्यापकों में खुसुर पुसुर होती है  दोनों को अलग अलग समझाया जाता है कि एक दूसरे से अलग रहें। देवीलाल  विचारकनुमा प्राणी है। वह नम्रता के व्यक्तित्व विकास के लिए उसे नयी-नयी वैचारिक किताबें पत्रिका और कैसेट उपहार में देता है। लेखक ने कहानी की शुरूआत ऐसे की है- यह देवीलाल यादव के जीवन का वह दौर था जब वे नये-नये प्रगतिशील हो रहे थे अनुभवों और किताबों के जरिए इस दुनिया को जानना समझाना बस शुरू ही किया था।यदि इसे ठीक उन्हीं की भाशा में कहा जाए तो वे धीरे-धीरे सदियों पुरानी सड़़ी-गली मान्यताओं को छोड़ रहे थे, तथा नये क्रांतिकारी विचारों से खुद को जोड़ रहे थे।  पृष्ठ 86 लेकिन देवीलाल के कल्पना में भी प्रेम या विवाह जैसी कोई कल्पना नही है। सब कुछ ठीक चल रहा होता है कि अचानक नम्रता के फुफेरे भाई के द्वारा उन दोनों के साथ साथ समय बिताने और संदेह भरी निकटता की खबर मां बाप को मिलती है तो वे उसे बुरी तरह फटकाते हुए नौकरी तक छुड़ा देने की धमकी देते है और फिर नम्रता उससे दूरी बनाने लगती है  और एक दिन वे दोनों उसी रेस्टोंरेट में मिलते हैं जहां नम्रता अपने पिता की धमकी के बारे में बताती है उसके हावभाव सेलगता है कि वह पिता की बात मान गयी है, अपनी बात कह के तुरंत ही वह देवीलाल की सारी किताबें और कैसेट उसे देकर सदा के लिए सम्बंध तोड़कर वापस चल देती है। अपने अनकहे  अपरिभाषित सामीप्य  दोस्ताना प्यार को टूटते हुए देखकर देवीलाल फूटफूट कर रो उठता है। यह इक्कीसवी सदी का प्यार है और ऐसा प्यार,ऐसी दोस्ती जो इस महादेश में रोज ही करोड़ों लोगों के बीच बन रही और टूट रही है, प्यार घटित हो रहा है। इसमें न कोई जीने  मरने की कसमें है, न दैहिक हद पार करने की गुस्ताखी है न कोई बड़ी दुर्घटनाऐं हैं । जीवन में पहली बार संयोग से मिली एक अच्छी दोस्त या साथी के विछुड़ जाने के गम में नायक देवीलाल दुखी तो हो जाता है पर इस गम में आत्मघात या हिंसक प्रतिकार या बदले की बात नही करता हैं। इस कहानी में चरित्र सीमित हैं पर सभी बहुत ताकतवर व जीवंत है नम्रता के चाचा आजकल यहां वहां दीखते फाकालॉजिस्ट टाइप के बहुत रोचक पात्र है जो आरंभ में कुछ क्षण को आते हैं पर झंका बंका जमा कर गायब हो जाते है।

       ‘रोज का एक दिन ’कहानी यू तो रेल से अपडाउन करने वाले कर्मचारियों की आम सी कहानी है जो अमूमन बोर यात्रा ही होती है लेकिन कैलाश वनवासी का रचनात्मक कौशल है कि उन्हांेने इसे विभिन्न रंगों में रंग कर प्रस्तुत कर दिया है।  रायपुर से डोंगरगढ़ जाने वाली पैसेंजर से जाने वाले मनीष और श्रेया की प्रेम कहानी भी इसमें है तो वर्षा  इकबाल संध्या मोटू यानि गौतम अविनाश आदेश जैसे प्रेाइवेट सेक्टर में कार्यरत लोग भी जिनमें से अनेक अभी भी सरकारी और अर्धसरकारी नौकरियों के लिए आवेदन कर रहे हैं। इन लोगों का परस्पर कोई स्वार्थ नहीं है, बस साथ आने जाने में गप्प सड़ाका और दुनिया भर का मजाक कर लेते हैं। ऐसे ही एक सामान्य दिन गुजारने पर लौटती हुयी यात्रा की कहानी है यह। जिसमें होटल में काम करती पोशाकशुदा लड़कियां भी हैं तो उनके आसपास उपस्थित रहने वाले कॉलेजियट छात्र भी हैं, जिनक होने से लड़कियों को कोई फर्क नहीं यह  आधुनिक पीड़ी है और आधुनिक युग के जॉब की दैनिक घटना भी। संध्या जब अपने बैग से पैकेट निकाल कर सबको बिस्कुट खिलाती है तो मनीष सोचता है कि सबका ध्यान रखना तो लड़कियों का ही खास गुण है- देखते देखते मैं एक बार अचानक इन लड़कियों के बारे में सोचने लगता हैूं कि लड़कियां ऐसी ही होती हैं जो हमेशा अपने बैग में दूसरों के लिए कुछ न कुछ रखे होती हैं और कुछ नही तो कोई सस्ती सी टॉफी। संध्या हो या वर्षा श्रेया हो या ज्योतिका। यह आदत हम लड़कों में नही। हम तो तत्काल कुछ दिख  जाए,\ पसंद आ जाए तो खरीद लेते हैं। किंतु बैग में नही रखते। ( पृष्ठ 80  । ग्रुप के लोग एक दूसरे को निंस्संकांच अपने काम बताते हैं जिन्हें वे अपनी डयूटी समझ कर पूरी करते हैं। ग्रुप के अविनाश और आदेश की महत्वाकांक्षा भिलाई स्टील प्लांट में नौकरी करने की थी जब रेल बीएसपी के सामने से निकलती है तो सहसा मनीष को प्राइवेटाइजेशन और ग्लोबलाइजेशन के बहाने दिनोंदिन बंद हो रहे सार्वजनिक उपक्रमों की हालत और दिनोंदिन फॉर्ब्स की पत्रिका अनुसार बढ़ रहे अरबपतियों की संख्या शाइानिंग इंडिया सेंसेक्स में अभूतपूर्व  उछाल आदि याद आते है। मनीष की प्रेमिका श्रेया अगले स्टेशन भिलाई- से जब डिब्बे में चढ़ जाती है तो मनीष को पूरा डिब्बा हरियाली से भरा मैदान या गहरे कत्थई पहाड़ और पीछे झांकते नीला आसमान में पहुंचा हुआ महसूस होने लगता है जहां सब लोग बहुत हंस रहे हैं प्रसन्न हैं और जहां किसी तरह की चिंता नही है।  किसी अपनें के आने से होता यह परिवर्तन मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है जिसके प्रभाव में मनीष के साथ पाठक भी आ जाता है।

       संग्रह की कहानी कविता पेंटिग पेड़ कुछ नही’ जो कि संग्रह की टाइटिल कहानी है  अपने नाम के अनुसार वर्तमान समाज के उस अंधे विकास धर्मान्धता और छुटभैया राजनैतिज्ञों व धर्माधिकारियों की मनमानी की कहानी है जिन्हें समाज में न पेड़ चाहिये न कविता न पेन्टिंग। अनिल नामक एक कवि व सहृदय अपनी परिचित पैन्टर नंदिता जी के घर उनकी मिजाजपुर्सी के लिए जाता है तो नंदिता बताती है कि उनके मुहल्ले में गूलर का एक फलता फूलता पेड़ बिना बात काट दिया गया और नंदिता के बुजुर्ग पिताजी के विरोध करने पर मजदूर रूके नहीं। तब नंदिता अपने मुहल्ले के एक छुटभैया नेता से कहती है जो कि मजदूरों से पूछ कर नंदिता के पिता और मजदूर को लेकर उस व्यक्ति के पास जाते हैं जिसने पेड़ काटने का आदेश दिया है। वह व्यक्ति एक मंदिर का पुजारी या महंत है , जो मौजूद नही मिलता बल्कि कुछ देर बाद आता है तो पता लगता है कि उसके साथ स्थानीय छुटभैये और प्रभावशाली नेता वगैरह भी गाड़ी उतरते हैं जो कि किसी बड़े यज्ञ के लिए चंदा और पैसे के इंतजामात में लगे हैं उन्होंने ही यज्ञकुण्ड के लिए गूलर का पेड़ शुभ बताया जाने से हरा भरा पेड़ कटवाया है। नंदिता के पिता वापस लौट आते है वे बेचारे एक सेवा निवृत्त शिक्षक है जो औरे तो कुछ नही कर पाते बस इस घटना पर एक लंबी कविता लिखते हैं-कल जिन लोगों ने काटा है तुमको वे कभी नही जान सकते एक पेड़ होने का अर्थ जमीन से जुडे होने का मतलब!  जिसमें आगे वे लिखते है- प्रभु  तुम्हारी यह सेना जानती है केवल काटना और  ढहाना क्या वे सुन रहे हैं वह रूदन जो उठ रहा है किसी बस्ती को श्मशान में बदलने के बाद।यह कविता सुना़ते हुए सेवा निव्त्त अध्यापक हांपने लगते हैं। वे  किसी पर्यावरण प्रेमी मानवता के हितचिंतक और असहाय बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते प्रतीत होते हैं।

       कहानी वाइब्रेंट जगतरा’ एक युवा नेता जगन की कहानी है जो कि पढ़ाई के ध्यान देने की जगह अपने पिता की दुकान सभ्ंाालता है और बाद में उसी क्षेत्र में बढ़ता हुआ ट्रेक्टर एजेंसी लेकर पंचायती राज में अपना कैरियर आरंभ करता है। उपसरपंच रहते हुए झकाझक कपड़े और इनोवा गाड़ी में एक दबंग नेता की तरह चलता है और अपनी पंचायत व गांव जगतरा के विकास करते हुए वाइब्रेंट बना डालता है, अनेक तरह  के विकास कार्य करते हुए अंततः गांव की सारे खेत एक कारखाने को बिकवा देता है जिसमें वायदे के अनुकूल गांव वालों को रोजगार नही मिलता तो गांव वालों के आंदोलन में खुद सम्मिलित होकर गिरफतारी देता है लेकिन इस आंदोलन के वास्तविक नेता जनार्दन तांडी बताते हैं कि यह सब दिखावा है कारखाने में तो स्वयं जगन की तीस प्रतिशत भागीदारी  है। कहानी के अंत में एक और तथ्य पता लगता है कि आंदोलनकारी तो कारखाने तक पहुंच ही न पाये थे कि कारखाने को आग लग गयी यह एक अलग रहस्य है जो कहानी के अंत तक बना रहता है कि फिर किसने आग लगाई। यह कहानी आज के युवा तुर्क नेताओं की कहानी है जिन्हें अपना गोल पता है। उन्हें किस रास्ते से कहां जाना है और वे पूरे इत्मीनान से अपने गोल तक पहुंचते ही है जबकि पढ़ने-लिखने वाले युवक अमूमन क्लर्की और ज्यादा से ज्यादा छोटी मोटी सरकारी नौकरी पकड़ के ऐसे ही नेताओं के अधीनस्थ बन कर काम करते है। जगतरा गांव के बहाने गांव के परंपरागत किसान परचूनी की दुकान वगैरह धंधों की जगह बदलते परिवेश को देखिए- हमारे साथ के वे लड़के जिनका मन पढ़ने में कम लगता था टैम्पोमिनीडोरमेटाडोर या ऑटो चला रहे थे। किसी ने ऑटो पार्टस की दुकान खोल ली थी तो किसी ने स्टेशनरी की। कोई फोटो कॉपी कर रहा था तो कोई प्रिंटिंग। खेती घर के बड़े-बुजुर्ग या ऐसे लोग संभाल रहे थे जो इन कामों में खुद को नही खपा पा रहे थे। पृष्ठ159   

       संग्रह की कहानी चक दे इंडिया और विकास की पंतंग भी नये विशयों पर उठाई गयी हैं। चक दे इंडिया जहां भारत पाकिस्तान के किक्रेट मैच की उत्तेजना को दर्शाती है वहीं विकास की पतंग में घाटे की वजह से बंद हो रही कम्पनियों के कामगारों  के बेराजगार होकर विक्षिप्त हो जाने की हद तक डिस्टर्व होने की कथा है जिसमें विकास नाम का व्यक्ति एक आयरन इण्डस्टीज में इंजीनियर है । चूंकि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद बंद हुए कोयला खनन की वजह से उसकी इण्डस्ट्री घाटे होने के कारण अपने सीनियर कर्मचारियांे की छटनी करने की नीति के तहत विकास को भी हटा देती है तब विकास पहले लम्बे समय तक सुन्न सा  बना रहता है, बाद में एक राजनैतिक दल के कार्यालय में रोज रोज अकारण ही जाने लगता है और अंत में अपनी जमा पूंजी से पार्शद का चुनाव लड़ बैठता है तो घर की हालत बेहद जर्जर हहो जाती है जिसे  सुधारने के लिए उसकी पत्नी को अचार पापड़ बनाने की नौकरी और बेटी को पढ़ाई छोड़ ब्यूटी पार्लर को कोर्स कर जॉब शुरू करना पड़ता है। उच्च वर्ग और विज्ञापन आईकॉन के बारे में कहानी का यह अंश बढ़िया बात कहता है-कंपनी पर कैसी भी आफत आए  उद्योगपतियों के शानोशौकत में कोई फर्म नही आता, कोई कमी नहीं आती। मैं यह बात एक उदाहरण से जानता था कि इधर अरबपति विजय माल्या की कंपनी ‘किंगफिशर एयरलाइंस’ लगातार घाटे में चल रही थी, वहां के कर्मचारियों की कौन कहे, पायलटों को पिछले दस महीने से वेतन नही मिला है, लेकिन विजय माल्या के ऐश-ओ-आराम ,खूब शानो-शौकत वाली जिन्दगी में कही कोई फर्क नही पड़ा था। ..........  दूसरी तरफ माल्या बड़े मजे से बिलकुल मुक्त भाव से अपने बनाये सात सितारा  रिसोर्ट में ऐश कर रहा था, आई.पी.एल. में -रॉयल चैलेंजर्स ऑफ बैंगलुरू’ टीम का मालिक बना हुआ पैसा पानी की तरह बहाते हुए अपने सीजन की सबसे महंगी बोली लगा कर क्रिकेटर युवराजसिंह को चौदह करोड़ में खरीद रहा था। ........ मुझे याद है अपने वेतन को तरसते ये ही कर्मचारी होटल में युवराज सिंह के पास अपना दुखड़ा बताने गये थे इस आग्रह के साथ कि आप हमारा साथ देते हुए यह करार तोड....दो, लेकिन सीजन का सबसे मंहगा क्रिकेटर इनसे एक शब्द कहे बगैर अपनी कार से चलता बना था। ( पृष्ठ 182,183) 

       इस संग्रह की कहानियां कैलाश वनवासी की वे कहानियां है जो बहुत अधिक पुरानी नही है, सब ताजा कहानियां है तो उनके कथानक भी एकदम नये है , जिनमें उपेक्षित बचपन, नये खुलते शिक्षा संस्थान और उनके आर्थिक साम्राज्य, राजनैतिक दलाल, प्राइवेट बैंको में बेराजगारांे का दमन, डेली अपडाउन करते लोग, धार्मिक अनुश्ठान और धार्मिक आयोजन के लिए काटे जा रहे पेड़, किक्रेट मैच, युवा नेता और कॉर्पोरेट जगत में रोजगार की अनिश्चितता के कथानक है जो बनवासी जी ने मन लगाकर लिखे हैं।

       इन कहानियों के चरित्र भी बहुत धैर्य और ध्यान से गढ़े गए है इस कारण कहानी खत्म होने के बाद भी याद रहते हैं। कहानी  झांकी’ का उच्चशिक्षा माफिया राठी और मध्यवर्ग की तरह बात करता हंसोड़ एसपी,, झुलना झूले मोरे ललना का समर्पित प्रोफेसर नवीन व दलाल पारेख और सत्ता की निकटता में मिथ्या प्रतिश्ठा में जीता प्रतिभाहीन कवि, रोज का एक दिन के मनीष,श्रेया, वर्शा आदि की टीम, नो की प्रभा, अंजाम ए मुहब्ब्त के देवीलाल यादव व नम्रता जोशी, वाइब्रंेट जगतरा के जगन तथा विकास की पतंग का विकास देवांगन जैसे चरित्र हमारे आसपास के विश्वसनीय लेकिन यादगार चरित्र है।

       इस कथा गुच्छ का काल वर्तमान काल है, जो बस दो चार साल पहले से अब तक का है । इसलिए समकाल  की राश्ट्रीय घटनाऐं और अवधारणायें जाने अंजाने कहानियों में आ जाती हैं चाहे व पंचायतराज की वजह से गांव में उदित महत्वाकांक्षी नव नेतृत्व हो, विद्यालय में अस्थायी नियुक्ति हो, कोयला खदान से जुड़े सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के प्रभाव से बंद होगये उद्योग और उसके बेरोजगार होकर पागल होते युवा या उनके बदहाल होते परिवार हों या धार्मिक उन्माद का उदय। कहानी ‘सबसे बड़ी खबर’ में कस्बे के बैंक व ‘नो’ में गांव तक पहुंचे प्राइवेट बैंक की कार्यप्रणाली उनकी साज सज्जा और काम के बदलते प्रकार और टास्क सोंपते समय स्त्री पुरूश का भेद न करने की आधुनिक कार्यप्रणाली प्रकट होतीहै।

       कैलाश बनवासी अपनी कहानियों की भाशा पर खूब काम करते हैं । कहानी लिखते लिखते अनजाने में से अपने अंचल के तमाम शब्द इन कहानियों में लिख डालते हैं, जो अपनी अलग चमक छोड़ते हैं जैसे  खेल में विधुन ( पृष्ठ 13)  एक और नोनी आ गई      ( पृष्ठ 89) ...आदिकालीन महाउपयोग, , सब्जी का टोकरा बोहे ( पृष्ठ 184) । कैलाश की मेहनत वहां साफ तौर पर झलकती है जहां उनकी कहानियां के पात्र अपने परिवेश  की भाशा  बोलते मिलते हैं। कहानी रोज का एक दिन में टेन में घर वापसी कर रहे एक सेल्स एक्जीक्यूटिव अविनास की फोन पर बातचीत देखिए-‘यस अविनास श्रीवास्तव हियर...। ओ यस सर... गुडमॉर्निंग सर!  डिलेवरी मिल गयी? ओ.के.सर...। सर आपको कहने की बिलकुल जरूरत नहीं। आप तो हमारी कंपनी के रेप्युटेड डीलर हैं सर! कंपनी आपको नाराज करके कैसे बिजनेस करेगी। डिस्कांउट ? ... वो दिया है न सर! आप बिल देख लीजिये प्लीज, कम्पनी ने आपको अपने रूल्ज के मुताबिक फिफटी परसेंट का डिस्कांउट दिया है। बिल में लेस किया होगा... आप देखिए प्लीज... और सर आपके कहने से खास आपके लिए एक परसेंट और लेस किया है... एक्सटा। सर इसके लिए मुझे अपने सेल्स मैनेजर  से स्पेशल बात करनी पड़ी थी। सर, अब इससे ज्यादा तो पॉसिवल नहीं है...। ओवर आल, हमारी कम्पनी ब्रांडेड है... आप जानते हैं, सर। आपको कोई नुकसान नही होगा सर। शायद नेक्स्ट टाइम कम्पनी और बेस्ट ऑफर दे। आपके नेक्स्ट ऑर्डर का इंतजार रहेगा। ओके मैं चेक कलैक्ट करने कल ही आ जाता हूं। ओकेसर। थैंक्यू वेरी मच सर थैंक्यू ।’ ( पृष्ठ 76) इस वाक्यांश में आज के कार्पोरेट जगत और बाजार के वे सारे वाक्य हैं जो वे लोग सामान्यतः उपयोग करते हैं लेकिन उपरोक्त वार्ता को बहुत ध्यान देकर हम पढ़ें  तो हम पायेंगे कि इसमें कम्पनी का प्रतिनिधि अपने ग्राहक से पूरी विनम्रता के साथ माल की पहुंच की जानकारी लेता है उसको कंपनी में रेप्यूटेड मानने के गर्व से भर देता है उसको दिये गये डिस्कांउट को विशेश उल्लेख के साथ गिनवाता है और अतिरिक्त लाभ देने के खुद के प्रयास को भी जोर देकर बताता है और  अगले ऑर्डर के साथ भुगतान के लिए अगले ही दिन आने का तकादा कर देता है। यह भाशा एक सेल्स एग्जीक्यूटिव की उपयुक्त और सांगोपांग भाषा है।

       कहानी में आये प्रसंग के बहाने कैलाश अपनी विचारधारा , अपना अध्ययन, वैश्विक और भारतीय विमर्श व वर्तमान परिस्थितयों का निर्पेक्ष और तार्किक विश्लेशण करने से नहीं चूकते, चाहे सबसे बड़ी खबर में बैंक  प्रणाली हो, झांकी में उच्च शिक्षा के नये कंेद्र हों झुलना झूले के राजनैतिक दल्ले हों या विकास की पतंग और रोज एक दिन में भिलाई स्टील प्लांट के बहाने सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों की उपेक्षा के बिन्दु हों, इस तरह हम कथा पढ़ते हुए विभिन्न विमर्शो से दो-चार होते हुए चलते हैं।

       कैलाश की यह कहानियां उनकी ताजा और उत्कृश्ट  कहानियां हैं जो अपने समय के साक्ष्य और महत्वपूर्ण विमर्श कलात्मक प्रस्तुति के लिए गिनी जायेंगी ।

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