देखी जमाने की यारी Saroj Verma द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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देखी जमाने की यारी

भरभराते हुए इमरती बुआ(नाम पर मत जाइए बिल्कुल भी चासनी जैसी मीठी नहीं है,जहर का प्याला है.. ज़हर का प्याला), दरवाजे से भीतर घुसी और घुसते ही बोल पड़ी__
"ई का हुई गवा लल्ला, कौन ठोक के चला गया तुमको, पुलिस कुछ पता लगा पाई कि ऐसई हाथ पे हाथ धरे बैठी है।।
नहीं बुआ,अभी तक कुछ पता नहीं चला, मैं जैसे ही अपना दर्द बयां करने वाला था कि इमरती बुआ बीच में ही मेरे दर्द को साइड में रखते हुए बोल पड़ी__
"ऊ सब तो ठीक है लल्ला"!! पहिले इ बताओ पांच सौ का छुट्टा हैं,बाहर ऑटो वाला खड़ा है उस को तीन सौ रूपिया देना है...!!
और मेरी सीधी सादी धर्मपत्नी मतलब सीधी सादी वो सिर्फ दुनिया के लिए है लेकिन मेरे लिए नहीं... हां तो मेरी प्राणप्यारी ने फटाफट पांच सौ का नोट निकाला और कद्दू जैसी दिखने वाली इमरती बुआ की ओर बढ़ा दिया__
मै इशारे पर इशारे करता रहा लेकिन मेरी अर्धांगिनी ने कुछ भी नहीं समझा या फिर हो सकता है कि सबके सामने शायद स्त्रियां जानबूझकर पति का इशारा ना समझती हो ,हो सकता वो ऐसा करके अपनी महानता साबित करना चाहती हो।
खैर,जो भी हो बुआ बाहर ऑटो वाले को तीन सौ रुपए दे आई लेकिन उन्होंने ना तो पांच सौ का छुट्टा दिया और ना वो बचे हुए दो सौ रुपए वापस किए।।
और मेरे लिए अनार का जूस रखा था टेबल पर,अंदर आईं और एक सांस में गटक गई, मैं उनकी तरफ असहाय और बेचारा सा बस देखता ही रह गया और कर भी क्या सकता था,टांग जो टूट गई थी मेरी,ऊपर से मेरी टांग को तीस अंश के कोण पर लटका रखा था,अब आप खुद ही कल्पना कर सकते हैं कि कैसी हालत हो रही होगी मेरी,ऊपर से ऐसे खून चूसने वाले रिश्तेदार धीरे धीरे इकट्ठे होने लगे थे।।
अब थोड़ी देर में एक और महान व्यक्ति ने प्रवेश किया,वो तो हमारे पूज्य बड़े मामा जी, बिल्कुल नेता टाइप पर्सनैलिटी, हमेशा बगुले जैसे सफ़ेद कपड़ों में,वो भी खादी का सबकुछ वकायदा कलफ लगा हुआ जूते भी सफ़ेद होते हैं उनके,बस मन काला है कौए के समान,नजर भी बगुले के ही समान है,बस दूसरे का पैसा कैसे भी मिले, हमेशा घात लगाए बैठे रहते हैं।
कुछ ना कुछ मतलब ज़रूर होगा ऐसे नहीं आए होंगे, यहां पर __
पास आकर पूछा, कैसे हो?
मैंने मन में सोचा,टांग टूटे आदमी से पूछ रहे हो कि कैसे हो, आखिर कैसा हो सकता है वो इंसान जो बाथरूम तक भी ना जा पाए फिर भी मैंने जवाब दिया,ठीक हूं!!
फिर उन्होंने पूछा, कुछ पता चला,कौन ठोक के गया,
मैं ने कहा , नहीं!!
हम पता लगवाते हैं,बस पांच हज़ार दे देना काम हो जाएगा और बोले अभी हम जाते हैं बाद में आएंगे,समय नहीं है और भी बहुत से काम है।
मैंने कहा,ठीक है नमस्ते!!
और वो चले गए...ऐसे ही चलता रहता है जब हमें कोई समस्या हो जाती है तो निवारण कोई नहीं करता बस.. लेकिन हमें परेशान जरूर कर देता है..फिर थोड़ी देर बाद एक हमारे मित्र हैं जो थोड़े इर्ष्यालू टाइप के हैं, उनके मुंह से कभी कुछ भी पाज़िटिव निकलता ही नहीं है, उन्होंने बोलना शुरु किया,
यार!इलाज ठीक से हो रहा है ना !ऐसा ना हो पैर की हड्डी ना जुड़ पाए और सारी उम्र व्हील चेयर पर गुजारनी पड़ी,
मैं तो बस सलाह दे रहा था,तू अपना है ना, मेरे दिल के बहुत करीब है इसलिए__
उसकी बात सुनकर तो मन हुआ कि हजार गालियां सुनाऊं और कहूं,तू दोस्त के नाम पर धब्बा है,चला जा अपनी मनहूस सूरत लेकर, लेकिन ऐसे भला कौन कह पाता है, मैं तो बस मन मसोस कर रह गया,ऐसे होते हैं हमदर्द, बस मुझे तो मौहम्मद रफी साहब का वो गाना याद आ गया....
देखी जमाने की यारी.....

The end....
saroj Verma__