प्रिय नारायणन .... S Bhagyam Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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प्रिय नारायणन ....

उमा जानकीरामन के तमिल कहानी का अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा

नारायणन जल्दी दफ्तर जाने के लिये तैयार हो रहा था तब ही उसके अम्मा की चिट्टी आई। नीले रंग के इन्लैंड बहुत छाटे-छोटे अक्षरों में लिख कर पत्र पूरा भरा हुआ था। उसमें थोडी सी जगह भी खाली नहीं छूटी थी। जिसे देखकर उसका मन बेचैन हुआ।

मीना ने खिचड़ी की थाली लाकर दी। उसे खाते हुए वह चिट्ठी पढ़ने लगा। “किसका पत्र है ? तिरूवैयार से है क्या ?’’

नारायणन बिना जवाब दिये खा रहा था। उसे चटनी परोस कर दुबारा जब मीना ने पूछा तो उसने हाँ में सिर हिला दिया।

प्यारे बेटे नारायणन,

तुम वहां कुशलता से हो ना ? मीना व बच्चा शिवशू कैसे हैं ? हम दोनों को हमेंषा तुम्हारी याद आती है। यहां तुम्हारे अप्पा को अस्थमा की तकलीफ ज्यादा होने के कारण डॉक्टर को दिखाया। अस्पताल में तीन दिन उन्हें भर्ती कर ट्रीटमेंन्ट करवाया। परसों ही उन्हें घर लेकर आई। पड़ोस के घर के गोपू ने ही अस्पताल व घर दोनों जगह हमें सम्भालकर हमारी मदद की।

बेटा नारायणन, इस महिने तुम्हारे भेजे हुये रूपये डॉक्टर व दवाई में ही खर्च हो गये। अब हाथ में पैसे नहीं है। थोड़ा-थोड़ा कर जो जमा किया था वह भी अस्पताल को देने में खर्च हो गया। अब क्या करूं समझ में नहीं आ रहा है। दूसरा और कोई विकल्प भी नहीं होने के कारण मैं तुम्हें पत्र लिख रहीं हूँ । अप्पा के लिये जो दवाईयां लिखी हैं उसे लेने के लिये व अन्य खर्चेा के लिये रूपये न होने के कारण बड़े दुख व आंसुओं के साथ ये पत्र लिख रही हूं। कृपा कर इस पत्र को तार समझ कर तुरन्त रूपये भेज दोगे ना ?

अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना बेटा। तुम्हारी ममतामयी अम्मा मीना ने भी पीठ पीछे खड़े होकर पत्र को पढ़ लिया। नारायणन ने पत्र को पत्र के स्टैंड में लगा दिया। अम्मा के लिखे पत्रों में हमेंशा ही व्याकरण की गलतियां रहती थीं। वह ण को न लिखेगी व छोटी इ की मात्रा में ई की मात्रा लगायेगीं। इससे वह हमेशा चिढ़ता है।

अम्मा के पत्र आते ही वह जहां-जहां गलती होती वहां-वहां गलतियों को लाल स्याही से गोला बनाता। अब भी पत्र में कई गलतियां थीं,पर उसे इस समय गलती निकालने का मन नहीं था।

‘‘आप क्या करोगे ?’’

‘‘रूपये भेजना है ऐसा निश्चय कर लिया क्या ?’’ मीना गीले हाथों को साड़ी से पोछती हुई बोली।

‘‘बहुत ही असमंजस की स्थिति है मीना।’’

‘‘असमंजस की स्थिति से निकलो निर्मल होकर जवाब लिखो। अपने जो खर्चे हैं उसके बारे में बढ़ा चढ़ा कर भारी लिस्ट बना कर भेजो। फिर भी उन्हें अक्ल आ जाये तो सहीं है। उसके बाद भी हमें इस तरह बार-बार परेषान न करके आराम से जीने देती है क्या ? देखो !’’

‘‘क्या बोलती हो मीना कष्टों को सहन न कर पाने की वजह से ही अम्मा ने ऐसा लिखा है।’’

‘‘पिछले महिने दादी की तिथी थी अतः दो सौ रूपये ज्यादा भेजे थे। बड़ी उम्र हो जाय तो एक न एक बिमारी तो आती रहेगी। इस कारण तुरन्त अस्पताल जाना व भर्ती हो जाना, पैसों को व्यर्थ करना ही तो है। इस महिने शिवाशु को टेंनिस की कक्षा में भर्ती करवाने वाली हूं। इसके लिये अग्रिम जमा राशी सात सौ रूपये जमा करवाने है। मैंने जैसे कहा वैसे पत्र लिख कर डाल दो। फिर चुप रह जाओ।’’

इतना बोल मीना अन्दर गई तो नारायणन भी चप्पल पहन, टिफिन बाक्स को थैले में डाल चल दिया।

बस पकड़ कर आफिस पहुंचने तक मन में तरह-तरह के विचार आते रहें। अम्मा व अप्पा बहुत पहले से लिए, तिरूवैयार के पुराने मकान में रह कर तथा खेती से मिलने वाली बहुत कम आमदानी से और वो जो भेजता है उन रूपयों से ही अपनी गुजर-बसर करते हैं। परन्तु जब कभी ऐसे अधिक खर्चे आ जाय तो घर में समस्या हो जाती है। अम्मा भी बार-बार ऐसे मांग कर किट-किट करने वालों में से नहीं है। उसका एक ही बेटा नारायणन है उससे मदद न मांगे तो किससे मांगेगी ? फिर भी बहुत सारे अन्य खर्चे बराबर आँखों के सामने खड़े हैं। ऐसे में नारायणन को भी रूपये भेजने का मन नहीं था। सोच-सोच कर पत्र में क्या लिखना चाहिये पत्नी मीना से मिलकर सलाह लेकर उस दिन रात को चैक मे बैठ कर नारायणन ने पत्र लिखा। अम्मा, एक महिने पहले बच्चे शिवाशु को फ्लू बुखार ज्यादा होने के कारण दो दिन अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा था। जाने कब की घटी हुई घटना को बहुत ही दर्दनाक ढंग से दुख का वर्णन कर लिखा। दो दिन को एक हफ्ता अस्पताल में रहा बताया। उसके भर्ती का खर्चा, ड्रिप चढ़ाने का, दवाईयों का व गोलियों का खर्चा आदि बहुत ही अधिक बढ़ा-चढ़ा कर बताया। इसीलिये रूपये भेजने की हालात में नहीं हूं कह कर खूब वर्णन कर लिख दिया।

अम्मा ! शिवाशु बीमार होने के कारण बहुत कमजोर हो गया। बच्चे को अच्छी खुराक देने के लिए डॉक्टर ने निर्देश दिया है। मैं अच्छी खुराक देने व टॅानिक लेकर देने की हालात में नहीं हूं। ये तो तुम्हें पता ही है ना !

हजारों वेदनाएं मन में लिए हुए मैं इस पत्र को लिख रहा हूं। इस समय मैं तुम्हें रूपये नहीं भेज सकता अम्मा। मुझे माफ कर दो।

नारायणन

पत्र को दुबारा पढ़कर देखा तो उसे ऐसा लगा बिलकुल ठीक से लिख दिया है। पर मन के किसी कोने में कुछ अजीब सी टीस जरूर हुई, पर कहीं तो इसे रोकना पडे़गा। अतः टीस कुछ देर में गायब हो गई।

रात में ही जाकर पत्र को पोस्ट कर आया।

उसके बाद बीस दिन तक पोस्टमैन की घण्टी की आवाज सुनते ही उसे अजीब सी घबराहट होती। उसे लगता है कि अम्मा ने शायद जवाब दिया हो ? किस तरह के जवाब की मैं प्रतीक्षा कर रहा हूं ? ये भी उसे समझ नहीं आया ?

उस हफ्ते के ही आखीर में वह दफ्तर के लिए जब रवाना हो रहा था तब ‘सर-पोस्ट’ की आवाज आई। ‘‘मनीआर्डर आया है सर। अपना हस्ताक्षर कर ले लीजिये।’’ पोस्टमेन के कहते ही बिना समझे असमंजस की स्थिति में उसने मनीआर्डर के फार्म को देखा तो पता चला अम्मा ने ही तिरूवैयार से 1000 रूपये भेजे हैं। रूपयों को गिनकर ले लिया। फार्म में छोटे-छोटे अक्षरों में अम्मा ने जो लिखा था उसे बाहर आकर रोशनी में ऊपर करके दुखी होकर पढ़ा।

प्यारे नारायणन,

इसके साथ बच्चे शिवाशु के दवाई के खर्चे के लिये हजार रूपये भेज रही हूं। खाने के गुजारे के लिये जो खेत रखा था उसका एक भाग बेच कर मुझसे जो बना वह बिना देर किये भेज रही हूं।

हम तो सूखे हुए पत्ते है। शिवाशु तो वह कोपल है जिसे अभी बढ़ना है व एक पेड़ बनना है। फलना फूलना है। बच्चे की तबियत का ख्याल रखना। हम रोज भगवान से यहीं प्रार्थना करते हैं।

तुम्हारी अम्मा

पढ़ते ही उसके मन में अजीब सा दर्द होने लगा वह एकदम मुरझा गया। फिर पत्र को दुबारा पढ़ने की कोशिश की ........पर पढ़ नहीं पाया क्योंकि आँखों को आँसुओं ने ढ़क लिया था। व्याकरण की अशुद्धियां अब नारायणन की आँखों को दिखाई नहीं दे रहीं थीं।

उमा जानकीरामन के तमिल कहानी का अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा

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