किलकारी - अंतिम भाग Ratna Pandey द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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किलकारी - अंतिम भाग

अभी तक आपने पढ़ा विजय के लाख समझाने के बाद भी पारस ने अपना फ़ैसला नहीं बदला। उसके इस फ़ैसले और बातें सुनकर अब विमला, अदिति और छोटी बहुत ख़ुश थे।

अदिति ने कहा, "तुम सच कह रहे हो विजय। पारस हमारी जान है और हम पारस की जान। सच कहूँ तो उसके जाने की तैयारियाँ करते वक़्त भी मन के भीतर एक चुभन-सी हो रही थी, बेचैनी हो रही थी, एक दर्द दिल में हो रहा था। ऐसा महसूस हो रहा था, हम अकेले हो जाएँगे। यह बात सता भी रही थी कि पवित्रा की शादी हो जाएगी तो वह तो ससुराल चली जाएगी। कई तरह के ऐसे ख़्याल, ऐसे विचार मन मस्तिष्क में हलचल मचा रहे थे। एक बार बच्चे विदेश के मोह में पड़ जाते हैं तो फिर वापस कभी नहीं आते। वह वहीं के हो जाते हैं, यदा-कदा ही आना होता है।"

" पारस ने यह फ़ैसला क्यों लिया यह तो मैं नहीं जानता पर इतना ज़रूर जानता हूँ कि हमारा ख़ुद का खून भी अगर होता ना तो वह भी ऐसा सुनहरा अवसर हाथ से नहीं जाने देता। लोगों के बच्चे चले ही जाते हैं ना। दो-दो, तीन-तीन, साल तक वापस नहीं आते। बूढ़े माँ-बाप रास्ता देखते- देखते थक जाते हैं। आँखें टकटकी लगाकर निहारती रहती हैं। मन में हर पल ही इंतज़ार होता है। एक ऐसा इंतज़ार जो कभी-कभी तो ख़त्म भी नहीं होता और जीवन ख़त्म हो जाता है। जीवन सुनसान हो जाता है। कभी ना भरने वाला रिक्त स्थान आ जाता है। कभी-कभी तो मृत्यु के बाद कंधा देने तक बच्चे नहीं आ पाते। आना चाहते हैं पर कई बार हालात ऐसे बन जाते हैं कि जब तक वह आते हैं, इधर सब कुछ ख़त्म हो चुका होता है। मिलन की अधूरी आस के साथ ही कई बार माता पिता दुनिया छोड़ जाते हैं।"

"विजय तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो। विदेशों की इस माया नगरी के कई सुखद और कई दुःखद पहलू हैं। हमारे पारस ने उसका वह पहलू चुना है जिसमें हमारे जीवन का हर पल सुखद होगा।"

"हाँ अदिति पहले उसने हमारे सूने आँगन को अपने नन्हे कदमों की आहट दी। अपनी ख़ुशबू से हमारे घर आँगन को महका दिया और अब हमारे बुढ़ापे के आने वाले दिनों को संवारने के लिए इतना बड़ा त्याग भी कर रहा है। मैं जानता हूँ कि वह यह निर्णय केवल हमारे ही कारण ले रहा है।"

"पर अचानक विजय? ऐसा तो क्या हुआ होगा?"

"कुछ नहीं कल मिस्टर राकेश की तबीयत अचानक ख़राब हो गई, उनके तीन बच्चे हैं परंतु तीनों विदेश में उनसे कोसों दूर। शायद इसीलिए उसका मन नहीं मान रहा होगा। यह तो अच्छा हुआ राकेश जी की जान बच गई वरना तो जाने से पहले बच्चों का मुँह तक देखने को नसीब नहीं होता। आज भी उनका बुढ़ापा तो अकेले ही कट रहा है। बच्चे ख़ूब कमा रहे हैं, संपन्न हैं लेकिन माँ-बाप कहाँ ख़ुश हैं। सब कुछ होते हुए भी उनके पास आज कुछ नहीं है, यदि कुछ है तो केवल अकेलापन। शायद इसी बात ने हमारे पारस को रोक लिया हो।"

"अब तो मुझे भी ऐसा लग रहा है कि हमारे देश में भी क्या कमी है। यदि मेहनत करो तो सब कुछ हासिल हो सकता है। विजय सच पूछो तो पारस के जाने के बाद हमारा घर भी सूना हो जाता और फिर पहले जैसी रौनक घर में कभी नहीं आती। चलो इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात और क्या हो सकती है कि अब जीवन भर हम साथ रहेंगे। पारस के बच्चों की किलकारी भी हमारे इसी आँगन में गूँजगी। हमारा परिवार कभी राकेश जी के परिवार की तरह छिन्न-भिन्न नहीं होगा।"

"हाँ अदिति तुम ठीक कह रही हो। वारिस अनाथाश्रम ने तो हमारा पूरा जीवन सुखमय बना दिया और अपने नाम की ही तरह हमें हमारा सच्चा वारिस तोहफ़े में दे दिया। हमारी जवानी किलकारीयों के बीच बीती अब हमारा बुढ़ापा भी किलकारीयों के बीच ही बीतेगा। यह सुख सभी को कहाँ हासिल होता है। याद है अदिति तुम एक छोटी-सी किलकारी के लिए कितना तरसी हो लेकिन पारस की पहली किलकारी ने तुम्हें फिर से हँसना सिखाया था। आज दूसरी बार वह तुम्हें मुस्कुराने की वज़ह दे रहा है शायद उसका अपना सपना छोड़कर।"

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)

समाप्त