अंतिम सफर - 3 Parveen Negi द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

अंतिम सफर - 3

कहानी का भाग 3

मेरे साथ दिन में क्या घटा था ।मैं इस वक्त सब भूल चुका था और अपने काम में व्यस्त हो गया था। फिर वही गांव के लोग, दोस्त उनके साथ बातचीत में इतना व्यस्त हो गया की उस पहाड़ की तरह चढ़ते वक्त मेरे साथ क्या हुआ था ।दिमाग से निकल चुका था।

सच बताऊं तो यह हादसा इतनी बुरी तरह से दिमाग से निकला था कि, मैं किसी के सामने भी इस बात की चर्चा नहीं कर पाया था। एकदम जैसे मैं इस बात और हादसे को भूल गया हूं।

शाम होते ही सभी लोग अपने घरों की तरफ जाने लगे थे। पशु चर कर अपने घर आ चुके थे ,बस अब मैं भी अपने घर में बैठकर टीवी देखने का आनंद उठा रहा था।

समय ऐसे ही बीतता रहा था और फिर खाना खाने के बाद मैं भी अपने कमरे में आ गया था ।एक तरफ टेबल पर पड़ी पुस्तक उठाकर, मैंने ऐसे ही उसके दो चार पेज देख लिए थे ।और फिर उसे वापस टेबल पर पटक दिया था।

घड़ी की तरफ नजर उठाकर देखा था। 10:30 बज चुके थे, और मैं लाइट बंद करके अपने पलंग पर लेट गया था, पहले मैं सीधा लेटा था ,और फिर करवट लेकर मैंने कमरे की खिड़की से बाहर अंधकार में फैले पहाड़ों की तरफ देखना शुरू किया था ,जो कि मेरा रोज का प्रिय काम था,

दूर पहाड़ी के ऊपर चंद्रमा मुझे नजर आ रहा था और छोटे-छोटे तारे भी, जो चंद्रमा के आसपास चमकते हुए दिखाई दे रहे थे ।मुझे हमेशा ऐसे ही नींद आ जाती है। बाहर खिड़की से आकाश को देखते हुए।

पर आज मेरी आंखें जैसे नींद को ग्रहण ही नहीं कर रही थी ।

"""अरे यह मुझे क्या हो क्या रहा है, मुझे ऐसा क्यों लग रहा है कि जैसे मेरी सोने की इच्छा इस वक्त खत्म हो गई हो ,मेरी आंखें बिल्कुल भी भारी नहीं हो रहीहैं, जैसे मैं एकदम कहीं जाने के लिए तैयार हूं, ऐसा मुझे क्यों आभास हो रहा है,,""

फिर मैं एकदम से सीधा लेट गया था ।क्योंकि मुझे सुबह के वक्त पहाड़ पर हुई घटना की याद आने लगी थी।

"" मैं तो उस बात को भूल ही गया, वरना अपने यार दोस्तों को इस बारे में बताता ,,शायद उन्होंने भी ऐसा कुछ कभी महसूस किया हो, जैसा मैं महसूस करके आज आया हूं"",

मैं अभी यह बात सोच ही रहा था, तभी मुझे एहसास हुआ जैसे उसी ऊंचे पहाड़ की तरफ कोई चमकदार रोशनी वहां घूम रही हो ।

मैं तेजी से खड़की की तरफ देखने लगा था ।और उठ कर बैठ गया था, दूर वाकई में उस ऊंची पहाड़ी पर एक रोशनी की तरंग घूम रही थी ,जिसका रंग गुलाबी था, मैं तो एकदम से घबरा चुका था, मैंने आज से पहले ऐसा कुछ महशूस नहीं किया था, जैसा आज महसूस कर रहा था।

मेरे बदन में फिर से सिहरन और डर की एक लहर दौड़ गई थी ,जिस से निकल पाना, वह भी रात के वक्त मेरे लिए मुश्किल होने वाला था।

मैंने खिड़की को बंद कर दिया था और अब आराम से बिस्तर पर लेट गया था ।ठंड थी इसलिए रजाई के अंदर दुबक गया था, पर अब जो ठंड रोज रजाई के अंदर जाते ही खत्म हो जाती थी आज वह ठंड खत्म होने का नाम नहीं ले रही थी,, ऐसा लगने लगा था, जैसे सारी बर्फ रजाई के अंदर ही आ गई हो।

इस बर्फीली सर्दी का भय मेरे दिमाग में प्रवेश करता जा रहा था, मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूं ,,और इस ठंड से कैसे छुटकारा पाऊँ, रजाई के अंदर से निकलकर बाहर आने की मेरी इच्छा नहीं हो रही थी ,,,।

और यह इच्छा पता नहीं क्यों हो रही थी, शायद डर की वजह से या फिर ठंड की वजह से, मुझे समझ नहीं आ रहा था,,,,

पर अब ठंड हद से ज्यादा रजाई के अंदर प्रवेश कर चुकी थी ।मुझे मेरे पैर जकड़ते हुए महसूस हो रहे थे ,और वह ठंड पैरों के रास्ते आगे की तरफ बढ़ रही थी ।मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मेरे पैर बर्फ के रूप में बदल चुके हो ।और अब मेरा शरीर बर्फीला बनता जा रहा हो।

अब मेरे बर्दाश्त की सीमा बाहर हो चुकी थी और मैंने एकदम से रजाई को एक तरफ उठाकर फेंक दिया था। फिर अपने पैरों को देखने लगा था ,पर अंधेरा होने की वजह से मुझे मेरे पैर नजर नहीं आए थे ,फिर जल्दी से मैं बिस्तर से उतरकर लाइट जला बैठा था ।मेरे पैर बर्फ में नहीं बदले थे और ना ही अब वह मुझे ठंडे लग रहे थे,

""यह तो बिल्कुल नॉर्मल है जैसे रजाई के अंदर पैर गर्म हो जाते हैं बिल्कुल वैसे ही""

पहाड़ों में रात की ठंड बहुत जल्दी बदन में चढ़ती है, पर इस वक्त मुझे ऐसा कुछ नहीं हो रहा था ,बेशक मैं कमरे में था और मैं हमेशा अपनी खिड़की खोल कर ही सो जाता था, पर आज ऐसा नहीं था, मेरी खिड़की बंद थी कमरे का दरवाजा बंद था ,रजाई पलंग से नीचे पड़ी थी ,और मैं जाने किस भय से खुद को देख रहा था,,,

"मैं यह क्या कर रहा हूं क्यों अपने आप को खुद डरा रहा हूं,"",, इस बार मैं अपने आप को हौसला देते हुए ,थोड़ा सा हंस पड़ा था ,और मैंने रजाई उठाकर पलंग पर रखी थी, और फिर जंप लेकर खुद भी रजाई के अंदर प्रवेश कर गया था,,।

""अरे यार, लाइट तो बंद की ही नहीं,, अब फिर रजाई से बाहर निकलना पड़ेगा,"",,,, मैं खुद पर ही गुस्सा हो रहा था, कि मैंने लाइट बंद क्यों नहीं की ,,या फिर मुझे अब खुशी हो रही थी कि, मेरे कमरे की लाइट जल रही है, कम से कम यह जलता हुआ बल्ब मुझे एक डर से दूर तो रखेगा ,मैं मन ही मन खुश हो गया और फिर रजाई को गले तक ओढ़ कर आंखें बंद कर ली,,,,

और अब मुझे महसूस हो रहा था ,मेरे दिमाग में नींद नाम की कोई चीज नहीं है ।और इसकी वजह थी मेरे दिमाग में घूम रहा डर ,जो अभी भी मेरे साथ था ,मैंने अपनी आंखें खोल ली थी ,और एक लंबी सांस लेकर ,छत की तरफ देखने लगा था,,,

क्रमशः