भाग 5
मैं रजाई ओढ़ कर सोया हुआ था और मुझे खिड़की पर जो गर्म सांस का एहसास हुआ था उसका एहसास होने लगा था पर अब वह एहसास बेहद डरावना ना होकर सुखद लग रहा था।
मुझे ऐसा लगने लगा था कि रजाई का वजन खत्म हो चुका हो और मैं उस मीठे अहसास में फिर से सो गया।
अपने उठने के वक्त 7:00 बजे के करीब मेरी आंख खुली थी मुझे बेहद तेज प्यास लगी हुई थी गला ऐसे सूखा हुआ था ,जैसे मैं कहीं तपती रेत में से चलकर आया हूं मेरा बदन पूरी तरह से पसीने से भीगा हुआ था, बदन बेहद थका हुआ महसूस करने लगा था।
यह देख कर फिर से एक बार मेरे ऊपर डर हावी हो गया था बाहर चिड़ियों के चहचहाने की आवाज मुझे सुनाई दे रही थी ,पर उसका कोई फायदा मेरे दिमाग में नहीं हो रहा था, मैं तेजी से उठकर दरवाजे के पास पहुंच गया था।
और दरवाजा खोलते ही मेरे अंदर का सारा डर ऐसे उड़ गया था, जैसे तेज आंधी में सूखे पत्ते उड़ जाते हैं ,मेरे चेहरे पर अब बड़ी सी मुस्कान आ गई थी बाहर बूंदाबांदी अभी भी चल रही थी, मौसम सारा भीगा हुआ था ,
घर के अधिकतर सदस्य उठ गए थे, और पशुओं के काम में लगे हुए थे,
मेरा गला सूख रहा इसलिए मैं सीधा रसोई की तरफ बढ़ गया और फिर कलश में से मैंने पीने का पानी निकाला था।
पर यह क्या मेरे दिल की धड़कन बढ़ गई थी ,मेरी सांसे फिर से चढ़ने लगी थी मैंने गिलास को मुंह से लगाया था पर पानी गिलास में था ही नहीं,, मेरा गला बहुत बुरी तरह से सूख रहा था, मैंने कलश में से फिर गिलास में पानी भरा अपने डर को एक तरफ फेंक कर ।
मेरी आंखें गिलास के पानी पर जम गई थी और मैं उस पानी को देखते हुए गिलास को अपने होठों पर लगा चुका था, पर जैसे ही गिलास को मैंने टेढ़ा किया था मुझे एहसास हो गया था कि गिलास फिर से खाली हो चुका है।
मैंने फिर से गिलास के अंदर डरते हुए देखा था और इस बार मैं हैरान रह गया था गिलास पानी का भरा हुआ था ।
मैंने उस गिलास को फिर अपने होठों से लगाया था पर मेरी तृष्णा बुझाने के लिए उसके अंदर पानी था ही नहीं, मेरा गला सूख रहा था जीभ तालू एक दूसरे से चिपकने लगे थे।
बोलने के लिए मेरा गला बिल्कुल भी तर नहीं था वह इतनी बुरी तरह से सूखा हुवा था।
मैंने जल्दी से गिलास को एक तरफ रखा था और उसमें से पानी छलक कर गिर पड़ा था, मेरे दोनों हाथों में कलश को उठा लिया था और उसे अपने मुंह के पास लाकर पलट दिया था ।
पर हुआ वही था जो गिलास के मेरे हाथ में होने पर हुआ था,,, मेरी प्यास कलश का पानी नहीं बुझा पाया,, कलश से पानी निकल कर मेरे होठो पर नहीं गिर रहा था।
मैं अब काफी डर चुका था और कलश भी मेरे हाथ से छूट कर बड़ी जोर से फर्श से जा टकराया था ,पानी उछलकर रसोई में चारों तरफ फैल गया था ।
और मैं तेजी से रसोई से बाहर आ गया था मेरी प्यास अभी भी वही थी मेरे हाथ मेरे गले पर आ चुके थे, और फिर मैं बिना कुछ सोचे समझे आकाश की तरफ मुंह खोल कर खड़ा हो गया था, बाहर चल रही रिमझिम बारिश की बूंदे मेरे होठों से और जीभ से आ टकराई थी जिसने मेरी प्यास को और भी ज्यादा भड़का दिया था।
मेरे परिवार के सभी लोग काम पर लगे हुए थे पर किसी का भी ध्यान मेरे ऊपर नहीं था कि मैं क्या कर रहा हूं, मुझे यह बड़ा अजीब सा लगा था, रसोई में इतना बड़ा कलश मेरे हाथ से फर्श पर गिरा था ,उसके शोर से मुझे उम्मीद थी कि पूरा परिवार रसोई में जमा हो जाएगा पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था।
मैं अब हैरानी से उन सभी को देख रहा था जो मजे से अपने अपने कामों में लगे हुए थे, मुझे समझ में नहीं आ रहा था ऐसा क्यों हो रहा है।
तभी एक तरफ बैठा हमारा पालतू कुत्ता दूसरे जानवरों को देखकर बड़ी जोर से भोकने लगा था और फिर वह भागते हुए मेरे पैरों पर अपने पंजे मारने लगा था ,,
एकदम से मेरा ध्यान उस पर गया था और मैं हैरान रह गया था, क्योंकि मैं इस वक्त अपने कमरे के दरवाजे से दो चार कदम बाहर ही खड़ा था और बाहर आई तेज धूप को देख रहा था ।
""अरे बाहर तो बारिश आ रही थी पर यह क्या है ऐसा तो कोई भी निशान मुझे अब नजर नहीं आ रहा है,और मुझे तो बहुत तेज प्यास भी लगी थी, पर अब मेरा गला प्यासा नहीं हैं "'
मेरा दिमाग और शरीर बेहद डर गए थे, मैं अभी तक क्या देख रहा था मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा था ,परिवार के सभी सदस्यों पर मेरी नजर पड़ी थी, सभी अपने काम में व्यस्त थे।
मैं तेजी से चलकर अब रसोई में आ पहुंचा था ,गिलास में पानी भरा हुआ था ,और कलश फर्श पर गिरा हुआ था, मैंने जल्दी से कलश को उठाकर वापस उसकी जगह पर रखा था।
और तभी रसोई में मेरे परिवार के सदस्य आ पहुंचे थे और मुझे बर्तन गिराने के लिए उलाहना देना शुरू कर बैठे थे,,
मैंने पानी का गिलास उठाया और उनकी बातों को अनसुना करते हुए ,जल्दी से उस पानी को पीने लगा था, मैं बड़े आराम से उस पानी को पी गया था।
और फिर तेजी से वापस बाहर आ गया था, सूरज की किरणें चारों तरफ फैली हुई थी और मौसम को खुशनुमा बना रही थी ,आकाश में बादल का कोई नामोनिशान नहीं था, धूप सेकने के लिए लोग अपनी छतों पर चढ़े हुए थे।
मैं भी अपने दैनिक कार्यों में लग गया था ,पर मेरा ध्यान रात वाली बारिश पर अटका हुआ था ,टॉर्च की रोशनी मैं दूर जाते उड़ते हुए अदृश्य शरीर पर लटका हुआ था, उन गर्म सांसो के ख्याल में अटका हुआ था जो मुझे खुशी दे देगी थी, बारिश से अपनी प्यास बुझाने पर ही अटका हुआ था, कलश के गिरने पर अटका हुआ था ।
""पता नहीं मैं खुद किस उलझन में अटका हुआ था""।
क्रमशः