धागा S Bhagyam Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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धागा

मइंलापुर का सप्ताहिक हाट जहाँ लगता है वहीं एक तरफ कोने के घर में ही गणेश रहता है।

आज गणेश विशेष परेशान था। अपने अंगोछे को झटका कर कंधे पर डाल, यहां वहां घूम रहा था।

सुबह साढ़े दस बजे के करीब उसकी लड़की को देखने लड़के वाले घर आने वाले हैं। पूर्णिमा के लिए कई वर देखे पर कोई ठीक नहीं बैठा। कई फोटो व जन्म पत्रियां देखी पर निराशा ही हाथ लगी।

गणेश व विजया दोनों ने अपने दामाद के लिये जिस स्तर की कल्पना की थी उससे बहुत नीचे उतर कर सामान्य सा ही काफी है सोच कर अब अपनी बेटी पूर्णी के लिए वर ढूंढना शुरू कर दिया। पूर्णी भी अब कहने लगी ‘‘अप्पा बंद करो मेरे लिए वर ढूंढना।’’ ये जो वर अप्पा ने देखा है वह आज उसे देखने के लिए आने वाले है उसके लिए भी पूर्णी देखने दिखाने के लिए बहुत ही बेमन व निराशा के साथ ही राजी हुई। पूर्णी बडी शान्त व अच्छी लड़की है। वह बहुत सुन्दर चित्र बनाती है। सबके साथ प्रेम पूर्वक व मिल कर रहना पसंद करती है।

वह एक पैर को थोड़ा उचका-उचका कर चलती है। पूर्णी में बस यही कमी है। घर में जो भी आता है चाहे वर के घर वाले हो, या कोई अन्य मेहमान भले ही रिश्तेदार जो भी हो वह पूर्णी के पैर के बारे में पूछे तो गणेश को बहुत गुस्सा आता है।

ऐसे समय विजया ही बीच में आकर धैर्य से बात करती है।

पूर्णी ने बहुत सी सुन्दर तस्वीरे बना रखी थी। उनमें से दो कल ही गणेश फ्रेम करवा कर ले आया। एक तस्वीर रामचन्द्र जी के राज्याभिषेक की व दूसरी बाल गोपाल की माक्खन लेकर खाते हुए की। गणेश उसे टकटकी बांधे देख रहा था। ‘‘क्यों जी, ऐसे तस्वीर को टकटकी बांधे बैठ कर देख रहे हो, जाकर काम करो ! काम कौन करेगा ?’’

‘‘विजया तुम कील लेकर आओ। हथौड़े से कील ठोक कर मैं इन दोनों तस्वीरो को इस हॉल (बैठक) में लगा देता हूं। बहुत बढ़िया लगेगा। हम आने वाले लोगों को यह हमारी पूर्णी ने बनाया है कह कर खुश हो लेंगे।’’ गणेश बड़े उत्साह से बोला।

‘‘बेकार की बातें मत किया करो। तुम्हें स्वयं पता है कि हम कील ठोकेगे तो तुरन्त आवाज सुनकर नीचे से बालाजी मकान मालिक ऊपर आकर उसे बंद करवा देंगे। कितनी बार ऐसा हुआ है। इसलिए तो इन कीलो़ को आजतक ठोके बिना ही रख रखा है। हम यहां पर किराये पर रहते है। इसलिए मुंह बंद करके रहना पड़ता है।’’ ‘‘ये बात नहीं है विजया ! मैंने तो तुम्हें पहले ही कह दिया था ना कि ये बालाजी जो मकान मालिक है मेरी अम्मा के दूर के रिश्तेदार लगते है। पर नाना-नानी के पुरानी रंजिश के कारण दूर-दूर रहने के बावजूद आज भी अगर मिले तो कटुता को जौंक की तरह चिपका कर रहने वाले आदमी हैं। पिछली बार जब मेरी अम्मा आई तब बालाजी को देखकर अम्मा बोली ‘‘तुझे यही मकान मिला क्या ?’’

‘‘क्या करे ? अच्छा मकान व अच्छे एरिया में है इसीलिए आ गए। जल्दी से सामान को उठा कर दूसरी जगह जा नहीं सकते।” गणेश ऐसा बोल कर चुप हुआ।

‘‘ठीक है जी ! इसी कारण ये आदमी अपने साथ मेल-जोल नहीं रखता, ऐसा मैं सोचती हूं। तीन साल का एग्रिमेन्ट लिख कर देने के कारण दूसरा कोई उपाय नहीं है। इसलिए वह चुप है ऐसा मुझे लगता है।’’

‘‘कहां चुप है ? ऊपर कुछ छोटी-मोटी आवाज होते ही आदमी ऊपर हाज़िर हो जाता है ? उस दिन छोटी इलायची को जब मैं कूट रहा था तो क्या आवाज है कह कर ऊपर आ गया।’’

‘‘उनकी पत्नी भी ठीक नहीं है। हंसने के लिए भी सोच-सोच कर हँसती हैं। हंसने के लिए भी सोचती है।’’

गणेश अलमारी खोल कर हथौडा व कुछ कीलें लेकर आया।

‘‘आपको क्या हो गया है ? आज कोई समस्या शुरू मत करिये। वे आवाज होते ही यहां आकर चिल्लायेगे जरूर। फिर आपको ये काम बंद करना ही पड़ेगा। क्यों ये सब कर रहे हो ?’’ गणेश  ने विजया की बातों पर ध्यान न देकर, एक तस्वीर को बैठक में बीच में व दूसरी को रसोई की तरफ के दिवार पर टांगने के लिए पेन्सिल से निशान लगाया फिर तेज आवाज के साथ कील को को हथौड़े से ठोकने लगा।

विजया आधी सीढी उतर कर झांक-झांक कर देखती रही।

सकरी सीढ़ियों से नीचे उतरो तो एक बड़ा चैक दोनों घरों को अलग-अलग करता है। चैक के आगे चलो तो बालाजी के घर में ग्रिल का गेट लगा हुआ है। ग्रिल को खोल कर किसी भी क्षण बालाजी के आने की सम्भावना के साथ वह हथौडे से कील ठोके जा रहा था।

इतने दिनों तक हम सहन करते हुए दबे-दबे से रहे। आज उसे आने दो उसको जवाब देंगे गणेश यही सोच रहा था। गणेश ने इतने दिनों से जो गुस्सा जमा कर रखा था उसे उडेलने को वह तैयार था। पर ये क्या ! उसके दो कीलों को ठोक चुकने के बाद भी जैसे उसने सोचा वैसे बालाजी आया नहीं।

जब तस्वीरे टंग चुकीं तो उसकी सुन्दरता को देख वे फूले नहीं समा रहे थे। उस छोटी सी बैठक में दो तस्वीरों के लगाने से उसकी सुन्दरता में चार चाँद लग गए।

सब कुछ खुशी से निपट चुका। ‘‘कहीं बाहर चले गये होगे। नही तो वे इतनी देर में यहां आकर कितनी ही बातें सुनाते!’’ विजया ऐसे बोलते हुए अंदर चली गई।

समय पर वर पक्ष वाले आ गए। पूर्णी ने पिंक कलर की सिल्क की साड़ी पहनी। विजया ने आकर उसके बालों में फूल लगाया तो पूर्णी आंसू मिश्रित आखों से बोली ‘‘अम्मा ! ये ही मुझे देखने आने वाले आखिरी वर होना चाहिये। यदि ये रिश्ता न बैठे तो अब मैं इस घर की लड़की बन कर पूरी जिंदगी ही यहीं रहूंगी।’’

उसके शब्द पूरे होने के पहले ही विजया ने उसे गले लगा लिया।

बड़े लोगों ने आपस में बात की। वर शेखर ने पूर्णी से अकेले में बात करने की इच्छा व्यक्त की। उसने पूर्णी से कहा ‘‘मैं तुम्हारे गुणों से प्रभावित होकर तुमसे ही शादी करना चाहता हूं।’’ ये बात सुनते ही पूर्णी गदगद हो गई।

वहीं पर उसी समय ‘पान, सुपारी, फूल, फल का अदला-बदली हुई। रिश्ता पक्का कर दिया। सगाई की तारीख भी पक्की कर दी।

गणेश व विजया खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। पूर्णी के चेहरे पर एक शर्मिली मुस्कान छा गई थी। ‘‘मैं हनुमान जी के मन्दिर जाकर आ रहा हूं।’’ गणेश कहता हुआ, शर्ट पहन कर सीढ़ियां उतरने लगा।

बंद पड़ा बालाजी के घर का ग्रिल गेट तेज आवाज के साथ खुला। बनियान पहने हुए बालाजी बाहर आए। बालाजी को आमने-सामने खड़े देख गणेश के मन में कुछ डर सा लगा।

‘‘गणेश, पूर्णी को लड़की देखने आये ये सब मुझे मालुम है। अब क्या हुआ बताओ ’’

‘‘सब कुछ खुशी से निपट चुका बालाजी सर। वे अपनी सहमति देकर थाली बदल कर चले गये। अब शादी का मुहूर्त निकालना ही बाकी है।’’

‘‘बहुत खुशी की बात है गणेश।’’ कह कर आगे बोले ‘‘तुमको एक बात बतानी है गणेश । मेरी अम्मा सुबह दस बजे मर गई। पूर्णी को लड़के वाले देखने, आने वाले है ये बात हमें मालूम थी। अतः हम घर को बंद कर मौन बैठे रहे।’’

गणेश ने भौचक होकर सिर उठाकर देखा। उसकी जीभ सूख गई।

‘‘आने वाले बाहर से ही लौटना नहीं चाहिए ना ? इसीलिए अभी तक अड़ोस-पड़ोस में भी समाचार को नहीं दिया है गणेश ।’’ आगे फिर कहने लगा ‘‘गणेश ! तुम व मैं विरोधी नही हैं। कहीं से आये एक धागे ने यहां-वहां उलझ कर उसी में हमें भी गांठ डालने को मजबूर कर दिया। तीन साल से हम दोनों एक छत के नीचे रहते आए हैं। सभी बातों, सभी शब्दों में हम दोनों का साझा ही है।’’

‘‘करूणा, रोना व खुशी ये सभी कुछ सबके जीवन में आते रहते हैं। वे कभी साथ-साथ भी आ जाते हैं। यहां मेरी अम्मा गुजर गई, उसका भी तुम्हारे ऊपर कुछ न कुछ असर होगा ही आप इससे प्रभावित होगे ही सही। हम दोनो जो दृष्य देखते है वे समान ही है। मन में बेकार के कचरों को भर कर हम अलग-अलग खड़े हो जाते हैं।’’

‘‘क्यों अचानक ऐसा ज्ञान उदय हुआ ? आप सोच रहें होगे। खाने के थाली के सामने बैठी माँ दाल-भात लिए सांभर का इंतजार कर रही थी। सांभर परोसने के पहले ही वह थाली के सामने ही गिर गई सदा के लिए।

मनुष्य का जीवन आँखों के सामने ही देखते ही देखते खत्म हो गया। बालाजी की आँखें भर आईं।

गणेश, उनके पास जाकर कंधे को पकड़ कर अंदर ले गया।

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