चूक (लघुकथा) Prabodh Kumar Govil द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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चूक (लघुकथा)

पूरी धरती पर तहलका सा मचा हुआ था।


एक विषाणु और इंसानों के बीच जंग छिड़ी हुई थी। एक ओर एक विषाणु के रूप में ख़तरनाक रक्तबीज था और दूसरी ओर मनुष्य जाति।


विषाणु चप्पे- चप्पे पर फ़ैल कर हर इंसान को रोगी बनाना चाहते थे और इंसान तरह- तरह के सतर्कता उपाय अपना कर उनसे बचने की कोशिश में लगे थे। लोगों ने जहां घर से निकलना, एक दूसरे से नजदीक आकर बात करना छोड़ दिया था वहीं विषाणु अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए फैलने के नए- नए रास्ते खोज रहे थे।


रोज़ मनुष्यों के बीच बैठकें होती थीं जिनमें प्रशासन, पुलिस, मीडिया, चिकित्सक आदि लोगों को सावधान रहने के उपाय बताते। कभी निर्णय लिया जाता कि लोग आपस में गले मिलना या हाथ मिलाना छोड़ दें, तो कभी ये फ़ैसला होता कि सभी अपने- अपने मुंह इस तरह ढक कर रखें कि विषाणु उनके मुंह के भीतर प्रवेश न कर सकें।


जब विषाणुओं ने देखा कि उनका समूल दमन करने के लिए इंसान रोज़ाना कड़े कदम उठाने में लगे हैं तो उन्होंने भी यही तरीका अपनाया। वो रोज़ सुबह एक जगह इकट्ठे होकर मीटिंग करते और आपसी चर्चा से ऐसे - ऐसे उपाय खोजते ताकि उनका और फैलाव हो सके और लोग ज़्यादा से ज़्यादा तादाद में उनसे संक्रमित हो जाएं। आख़िर उन्हें भी दुनिया में नकारात्मक शक्तियों को बचा कर अपना अस्तित्व बचाने की चिंता थी।


उनकी बैठकों में भी मनुष्यों की तरह सुझाव मांगे जाते और फ़िर उन्हें अपना कर रोग को और फ़ैला देने की कोशिश की जाती।


ऐसी ही एक बैठक में एक विषाणु ने सुझाव दिया कि मनुष्य जब किताब पढ़ता है तो किताब को अपने मुंह के एकदम सामने रख कर काफ़ी देर तक बैठा पढ़ता रहता है। और ऐसे में उसे कुछ ख्याल भी नहीं होता, वो पूरी तरह खोया रहता है। अगर हम किताबों में छिप कर बैठ जाएं तो हमें मौक़ा देखकर मनुष्य के मुंह में प्रवेश कर जाने का रास्ता आसानी से मिल सकता है।


ये सुझाव सभी विषाणुओं को पसंद आया। किताबों के पन्नों में छिप कर बैठना आसान भी था। क्योंकि किताबों को सब पानी साबुन आदि से बचाकर ही रखते थे।


तुरंत ये प्रयोग कर के देखने का फ़ैसला किया गया। विषाणुओं के दो दल बनाए गए और उन्हें दो अलग - अलग बस्तियों में जाकर किताबों के भीतर छिप कर बैठ जाने का आदेश दिया गया। सभी जगह स्कूल, कॉलेज , पुस्तकालय आदि तो पहले से ही बंद कर दिए गए थे लेकिन लोगों के घरों में किताबें मौजूद थीं। कहीं वो ड्राइंग रूम में सजी रहतीं तो कहीं स्टडी रूम में।


विषाणुओं के दोनों दल अलग- अलग क्षेत्र में जा छिपे ताकि इस कदम का प्रभाव देखा जा सके।


मुश्किल से एक सप्ताह बीता होगा कि एक क्षेत्र में लोगों के तेज़ी से संक्रमित होने की खबरें आने लगीं। वहां डॉक्टरों तथा अन्य चिकित्सा कर्मी परेशान होने लगे। किसी को समझ में नहीं आया कि लोग इतनी तेज़ी से इस रोग की चपेट में क्यों आ रहे हैं। फ़िर भी तेज़ी से उपचार शुरू हो गया।


किन्तु उसके पास वाली दूसरी बस्ती में संक्रमण बिल्कुल नहीं फ़ैला था। ये संतोष की बात थी।


उधर विषाणुओं की सभा में भी इस बात की खूब चर्चा हुई कि उनका उपाय कारगर सिद्ध हो रहा है। लोग लगातार संक्रमित हो रहे हैं। उन्हें किताबों में छिपने का ये अंदाज सफल होता नज़र आया।


पर तभी उनका ध्यान इस बात पर गया कि विषाणु दो बस्तियों में गए थे, जबकि बीमारी का प्रकोप तो केवल एक ही जगह बढ़ रहा है? दूसरी जगह के विषाणु सफल क्यों नहीं हो पा रहे हैं? क्या उनसे संक्रमित न होने का कोई तरीका वहां के लोगों ने ढूंढ़ लिया है?


इस बात की व्यापक जांच करने की मांग की गई। विषाणुओं के कुछ विशेषज्ञों ने छिप कर इस बात का कारण तलाश करने का निर्णय किया कि उनका असर केवल एक बस्ती में ही क्यों दिखाई दे रहा है जबकि उन्होंने हमले की योजना तो दो जगह बनाई थी। जांच के लिए विषाणुओं का एक पैनल बना दिया गया।


ये अनुभवी और सशक्त विषाणु दोनों ही क्षेत्रों में जाकर इस तफ़्तीश में जुट गए।


दो दिन बाद रिपोर्ट आ गई।


जांच दल ने अपने तरीक़े से पता लगा लिया कि विषाणुओं का हमला एक ही बस्ती में क्यों कामयाब हुआ जबकि इसे एकसे तरीक़े से दो जगह अंजाम दिया गया था।


जांच में सामने आया कि एक बस्ती में हिंदी भाषी लोग रहते थे और दूसरी बस्ती में अंग्रेज़ी जानने समझने वाले।


विषाणु तो दोनों ही स्थानों पर छिपे बैठे थे किन्तु हिंदी भाषी लोगों ने किताबें पढ़ी ही नहीं। तो उनमें छिपे विषाणु बैठे - बैठे इंतजार ही करते रह गए। जबकि दूसरी बस्ती में अंग्रेज़ी किताबों में छिपे विषाणुओं ने लोगों को रोगी बना दिया।


टीवी ने उस शाम अपने हर चैनल पर इस बात पर चिंता जताई कि हिंदी वाले कुछ पढ़ते नहीं हैं! और दर्शक हैरान थे कि टीवी चैनल ख़तरनाक वायरस की चिंता छोड़ कर भाषा की बात कर रहे हैं। यहां तक कि हिंदी के अख़बार भी लोगों को अंग्रेज़ी किताबों के विज्ञापन दे कर उन्हें ही पढ़ने के लिए उकसा रहे थे।


- प्रबोध कुमार गोविल