खुल जा सिम सिम Prabodh Kumar Govil द्वारा क्लासिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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खुल जा सिम सिम

बाहर गली में बच्चे खेल रहे थे। चौंकिए मत!आप कहेंगे कि बच्चे बाहर कब खेलते हैं, वो तो मोबाइल हाथ में लेकर घर के भीतर ही खेलते हैं।

नहीं, ये आज की बात नहीं है। बरसों पुरानी बात है।
तो बाहर गली में बच्चे खेल रहे थे।
बच्चों का खेल भी मज़ेदार था। कुछ बच्चे काग़ज़ की कतरनों को चिपका कर कोई पुतला बनाने की कोशिश कर रहे थे तो कुछ रंग- रोगन से उसे सुंदर बनाने में जुटे थे। कोई सड़क पर उस जगह की सफ़ाई में जुटा था जहां ये पुतला खड़ा किया जाने वाला था।
कुछ बच्चे आसपास से लकड़ियां, झाड़ियां, घास- फूस ढूंढ कर लाने में भी तल्लीन थे ताकि जब पुतला खड़ा करके उसे फूंकने का समय आए तो आग की अच्छी खासी लपटें उठें। किसी बच्चे की ज़िम्मेदारी उन पटाखों को संभालने की थी जो इस पुतले में भरे जाने थे।
कुछ और बच्चे भी थे।
उनमें कोई बच्चा काम करने वालों का ध्यान रखते हुए उन्हें पास के किसी घर से पीने के पानी का लोटा भर के लाकर देता था तो कोई- कोई केवल खिलवाड़ करते हुए हो रहे काम में बाधा डालता और दोस्तों से डांट खाता।
इन्हीं बच्चों में मैं भी था।
दरअसल उस दिन दशहरे का त्यौहार था और गली के सारे बच्चे यहां रावण का पुतला बनाकर उसे जलाने की तैयारी में व्यस्त थे। पिछले कुछ दिन से अब उन सबका खेल यही हो गया था। इन दिनों कबड्डी, गुल्ली- डंडा, क्रिकेट बाक़ी सब बंद था।
अपनी- अपनी रुचि और क्षमता के अनुसार सभी ने कोई न कोई काम यहां ढूंढ लिया था। और कुछ नहीं तो कोई - कोई बचे हुए फ़ालतू काग़ज़ के टुकड़ों से हवाई जहाज बना कर उड़ाने में ही लगा हुआ था। कोई वहां लाई गई लकड़ियों में से साफ़ सीधी सी डंडी तलाश करके उसे दूर तक फेंकने का मज़ा ले रहा था।
मतलब सब मौज- मस्ती में थे।
तभी सहसा नज़दीक के एक घर का दरवाज़ा खुला और ज़ोर से किसी लड़की के पुकारने की आवाज़ आई।
एक बार सब ने अपना - अपना काम छोड़ कर उधर देखा। लेकिन तुरंत ही केवल मेरे सिवा बाक़ी सब फ़िर से अपने काम में व्यस्त हो गए। क्योंकि वो आवाज़ मेरी बहन की थी और मेरे ही घर के दरवाज़े से आ रही थी।
मैंने अनुमान लगाया कि शायद वो मुझे खाना खाने के लिए बुला रही होगी। लेकिन अभी मुझे बिल्कुल भी भूख नहीं लगी थी क्योंकि सुबह नाश्ता कुछ ज़्यादा ही किया था।
वैसे भी त्यौहार के दिन सुबह से खाना- नाश्ता सब विशेष बनने के कारण भूख नहीं लगी थी। मैं वहीं से हाथ हिलाकर उसे मना करने लगा पर दूर से उसके चेहरे से लगा कि वो कुछ और कहना चाहती है। मैं घर की ओर चला गया।
वहां जाकर देखा कि उसका चेहरा उतरा हुआ है। वह धीरे से फुसफुसा कर मुझे बताने लगी कि पिताजी के पास खबर आई है कि आज ही सुबह सुबह ताऊजी का देहांत हो गया है।
मैं भी बहन की तरह कुछ उदास सा तो हो गया पर मैं ये अब भी नहीं समझा कि ऐसे में मुझे घर में क्यों बुलाया गया है। क्या ये बात मुझे बाद में घर आने पर नहीं बताई जा सकती थी।
लेकिन पल भर में ही मुझे सब समझ में आ गया। घर में अफरा तफरी मची हुई थी। अम्मा ने बताया कि सभी लोग दोपहर की गाड़ी से आगरा चलेंगे। पिताजी, मां, बड़े भाई और बहन सब तैयारी में लगे हुए थे। मुझे भी अपने कपड़े निकाल कर देने के लिए कहा जा रहा था।
लेकिन... मुझे ये समझ में नहीं आया कि सब लोग जा रहे हैं तो अब शाम के रावण दहन कार्यक्रम का क्या होगा? कब से तो हम सब दोस्त इसकी तैयारियों में लगे हुए थे। सारे मोहल्ले में घर घर घूम कर सबसे चंदा मांग कर लाए थे। फ़िर काग़ज़, पटाखे, मिठाई, पूजा का सामान आदि ख़रीदा गया था। सुबह से सब बच्चे इस के लिए जीतोड़ मेहनत कर रहे हैं और अब सब छोड़ छाड़ कर चले जाना... कैसा लगेगा। सब दोस्त टोकेंगे। चंदा मांगते समय मैं ही तो सबसे आगे था। क्या क्या बड़े बड़े प्लान बता कर हमने सबसे पैसे लिए थे। अब मुझे वहां न पाकर लोग क्या क्या सोचेंगे?
पर घर में मेरी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की तरह बज कर रह गई।
पिछले कई दिनों से बीमार ताऊजी के आज ही प्राण पखेरू उड़ गए थे। पिताजी दुखी थे। मां भी गंभीर बनी हुई थीं। सबको जाना ही था।
जब मैंने अपने एक जोड़ी कमीज़ पैंट और एक कुर्ता पायजामा निकाल कर सूटकेस जमा रही अपनी बहन को थमाए तो वह झल्ला पड़ी। ज़ोर से बोली- कुछ पता भी है, हम लोग पूरे पंद्रह दिन बाद वापस आ पाएंगे। ताऊजी की तेरहवीं तक वहीं रहना होगा। तब तक क्या ये एक जोड़ी कपड़े ही लटका कर घूमेगा?
मैं अलमारी में से अपने और कपड़े समेटने चल दिया।
दोपहर का खाना भी जैसे - तैसे खाया गया। पिताजी ने तो खाया ही नहीं। और जब पिताजी ने नहीं खाया तो मां भी कैसे खाती।
सुबह से रसोई में लग कर जो मिठाई - पकवान बनाए गए थे सब खुर्द- बुर्द हो गए। ये पहला मौका था जब ताऊजी के घर बिना कुछ फल- फ्रूट या मिठाई लिए जाना था। सब कुछ वहीं कामवाली बाई और सफाई वाले कर्मचारी को बांट दिया गया। ऐसे दुख भरे समय में न तो वो अडोस- पड़ोस में बांटे जा सकते थे न घर पर छोड़े जा सकते थे। घर भी दो सप्ताह तक बंद ही रहने वाला था।
पर मेरी समझ में ये बात नहीं आई कि ताऊजी का निधन हो जाने के कारण जब हम और पड़ोस के सब लोग मिठाई नहीं खा पा रहे थे तो कामवाली बाई और सफाई वाला लड़का उन्हें कैसे खा सकते थे? शायद वो छोटे लोग थे और दुख छोटे लोगों को नहीं सताता।
मैंने मां से कहा- मैं ये मिठाई अपने दोस्तों को भी खिला कर आ जाऊं? वो भी तो छोटे हैं, बेचारे सुबह से काम कर रहे हैं। असल में मैं दोस्तों को बता कर भी आना चाहता था कि मैं अब जा रहा हूं तो शाम को रावण दहन में नहीं रहूंगा।
मां एकदम बोलीं- नालायक, तेरे सगे ताऊजी गुज़र गए, मोहल्ले भर में मिठाई बांटेगा?
हम लोग चले गए।
आगरा पहुंच कर मुझे पता चला कि मेरे ताऊजी का निधन ठीक दशहरे के दिन हुआ है इसलिए अब हमारे परिवार में दशहरा कभी नहीं मनाया जाएगा।
वहां पूजा पाठ कराने आए पंडित ने बताया कि हमारा दशहरा ढक गया है। अब हम कभी ये पर्व नहीं मना सकेंगे।
हमारा पूरा परिवार ताऊजी के घर इकट्ठा हो गया था। दूर पास के सब रिश्तेदार आकर वहां इकट्ठे हो गए थे। घर में सादा फीका बेस्वाद सा खाना बनता था। रोज़ शाम को गीता का पाठ होता था। घर में सब गंभीर रहते थे। घर में टीवी- रेडियो भी नहीं बजता था।
मैं भी अनमना सा रहता था।
दिन भर किसी के पास कोई काम न होने से सब घर में रहते थे। आसपास के लोग मिलने और बैठने आते रहते थे।
मैं कई बार सोचता था कि लोग दशहरे को असत्य पर सत्य की विजय का त्यौहार कहते हैं। तो क्या अब से हमारे परिवार में सच झूठ पर कभी नहीं जीतेगा? क्या हम ये पर्व कभी नहीं मना पाएंगे? क्या ताऊजी के निधन से वर्षों पूर्व राम की रावण पर जीत धुंधली हो गई? तो ताऊजी की मौत को लोग हरि- इच्छा क्यों कह रहे हैं? मैं कई बार कमरे में पंडित जी को अकेला देख कर उनसे पूछता- पंडित जी, क्या मैं अब अपने दोस्तों के साथ रावण नहीं जला सकता? आपने हमारा त्यौहार क्यों ढक दिया?
पंडित जी कुछ हंसकर कहते- बहुत शैतान है तू, ये ले... और मेरे हाथ में कभी सेब, कभी केला या कभी बर्फ़ी का टुकड़ा पकड़ा देते।
हम ताऊजी की तेरहवीं के बाद वापस लौट आए। वर्षों से हमारे घर में दशहरा नहीं मनाया जाता।
अब बरसों बीत चुके हैं। मेरी उम्र भी अब सत्तर पार है। अब घर में कोई किसी से ये नहीं पूछता कि ये पर्व हम क्यों नहीं मनाते? शायद पिछली तीन पीढियां तो ये जानती भी नहीं हैं कि इसका क्या कारण है।
आज अचानक आस्ट्रेलिया में रह रहे मेरे छोटे भाई का संदेश मिला कि वो वहां के एक भव्य- विशाल मंदिर में एक बहुत बड़ा अनुष्ठान करवा रहा है। उसमें बहुत बड़ी पूजा होगी। कहते हैं कि अगर ढके हुए त्यौहार के दिन ही परिवार में कोई नया जन्म हो जाए तो फ़िर आगे से त्यौहार पर लगी रोक हट जाती है। भाई के परिवार में एक बच्चे का जन्म होने वाला था जिसे सीजेरियन क्रिया द्वारा उसी दिन संपन्न करवाया जाना था। कई बड़े - बड़े विद्वान पंडित इस अनुष्ठान से हमारे परिवार में दशहरा पर्व फ़िर से मनाने की परम्परा आरंभ करवा देंगे। बहुत बड़ा समारोह होगा। लाखों रुपए ख़र्च किए जाएंगे।
भाई चाहता था कि इस शुभ मौक़े पर मैं भी वहां आऊं। वो वहां विदेश में परिवार के सभी लोगों को आमंत्रित कर रहा है। मैंने घर में सबको, बेटे - बहू- बेटी - दामाद सभी को उसकी इस पूजा के बारे में बताया कि किस तरह हमारे परिवार में कभी इस पर्व पर अकस्मात ये रोक लग गई थी और अब पूजा पाठ व भाई के प्रयास से ये हट जाए तो अच्छा ही है। अब स्वास्थ्य कारणों से मेरा वहां जाना तो संभव नहीं होगा पर भाई को शुभकामनाएं मैंने भेज दीं।
मैं सुबह- सुबह अपने कमरे में बैठा हुआ नाश्ता कर रहा था कि मेरा छोटा पोता मेरे पास चला आया। वह मुझसे बोला- दद्दू, दशहरा फेस्टिवल ढका हुआ था तो छोटे दद्दू की तरह इसका ढक्कन आपने क्यों नहीं हटाया?
मैंने अपनी प्लेट से सेव का एक टुकड़ा उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा- बड़ा शैतान है रे तू...!