कहते हैं कभी- कभी एक और एक ग्यारह हो जाते हैं। लेकिन वहां तो एक, एक और एक मिलकर हज़ारों हो गए।
ये पहेली तब की है जब कालजयी फ़िल्म "मुगले आज़म" बन रही थी। वैसे तो कोई भी निर्माता अपनी फ़िल्म को ये सोच कर नहीं बनाता कि ये असफल हो जाएगी। सब उसे बेहतरीन मान कर ही बनाते हैं। लेकिन इस फ़िल्म के निर्देशक के. आसिफ़, चरित्र अभिनेता पृथ्वीराज कपूर और नायक दिलीप कुमार तीनों ही "परफेक्शन" के जबरदस्त हिमायती थे। तीनों ही एक बार में एक ही काम पर ध्यान देने के आदी थे। एक - एक संवाद, एक - एक फ़्रेम को सबसे मंज़ूर हो जाने के बाद ही चुना जाता।
ऊपर से फ़िल्म की नायिका मधुबाला भी उस दौर का सबसे चमकदार नाम था।
फ़िल्म के निर्माण में लगभग चौदह साल का समय लगा और ये इतिहास की भव्यतम फ़िल्म अपने आगाज़ के सोलह साल बाद पर्दे का मुंह देख सकी। लेकिन दिलीप साहब का ज़मीर और ईमान इस अत्यंत महत्वाकांक्षी फ़िल्म की किस्मत से भी कहीं ज़्यादा ऊपर था। फ़िल्म के निर्देशक करीमुद्दीन आसिफ़ रिश्ते में दिलीप कुमार के बहनोई ही होते थे। कहते हैं कि एक बार दिलीप साहब के इन जीजा का उनकी पत्नी, यानी दिलीप कुमार की बहन अख़्तर से किसी बात पर झगड़ा हो गया। घर की बात जानकर दिलीप कुमार दोनों के बीच सुलह और बीचबचाव कराने की गरज से वहां पहुंच गए। पर तमतमाए जीजा ने कह दिया कि "तुम अपनी स्टारडम मेरे घर के मामले में बीच में मत लाओ"! दिलीप कुमार का स्वाभिमान अहंकार की इस अपमान जनक टिप्पणी से आहत हो गया और वो आसिफ़ की जिस महान बजट की ऐतिहासिक फ़िल्म के निर्माण में चौदह साल से लगे हुए थे उसके प्रीमियर तक पर नहीं पहुंचे। उन्होंने अपनी व्यावसायिक ज़रूरत को रिश्तों के सामने रत्ती भर भी अहमियत नहीं दी।
ऐसी ही कई घटनाओं व विवादों ने दिलीप कुमार को "दिलीप कुमार" बनाया है!
भारतरत्न स्वर कोकिला लता मंगेशकर के साथ दिलीप कुमार का रिश्ता बहुत भावभीना था। उनकी दर्जनों फ़िल्मों में एक से बढ़कर एक मर्मस्पर्शी गीत गाने वाली लताजी एक तरह से उनकी धर्मबहन ही थीं। दोनों एक दूसरे का बहुत आदर करते थे। लेकिन एक बार इन धर्म भाई बहन में भी अबोला हो गया। हुआ यूं कि दिलीप साहब की उर्दू तो बहुत अच्छी थी। वो तो थे ही पेशावर की पैदाइश। मगर लता मंगेशकर महाराष्ट्रीयन थीं। वैसे तो उन्होंने कई भाषाओं में सैकड़ों गाने गाए फ़िर भी उनका उर्दू का उच्चारण शुरू शुरू में कोई बहुत अच्छा नहीं था। दिलीप कुमार फ़िल्मों में दुखभरी गंभीर भूमिकाएं निभा कर चाहे ट्रैजेडी किंग कहलाते हों पर उनका सेंस ऑफ ह्यूमर बहुत अच्छा था। लता जी ने रिहर्सल के दौरान किसी उर्दू लफ़्ज़ को कुछ ग़लत बोल दिया। भाई बहन की आपसी चुहलबाज़ी की तरह दिलीप साहब बोल पड़े- मराठी लोग उर्दू को दाल चावल की तरह समझते हैं। अपने साथ- साथ पूरे मराठी समाज पर ऐसी टिप्पणी सुन कर लता जी नाराज़ हो गईं। उन्होंने कुपित होकर दिलीप कुमार से बात करना ही बंद कर दिया। कहते हैं दोनों महान हस्तियों का आपस में ये अबोला पूरे तेरह साल तक चला।
इन्हीं दिलीप कुमार के साथ सायरा बानो की जोड़ी लगभग पचपन साल तक फिल्मी दुनिया में छाई रही। दिलीप अभिनय और इंसानियत के एक स्कूल थे, जिसकी गरिमा और तिलिस्म की हिफाज़त सायरा बानो ने उनके दुनिया से जाने तलक की।
दिलीप कुमार फ़िल्मों से अलग हो जाने के बाद भी लगभग ढाई दशक तक रहे। अपने इस दौर में दिलीप साहब एक तरह से बिल्कुल छोटा बच्चा ही बन गए। और इस बच्चे की सख़्त टीचर बन गईं छुईमुई सी सायरा बानो। उन्होंने दिलीप साहब को बिल्कुल किसी बच्चे की तरह ही संभाला। दिन भर उनकी हर बात का ख्याल रखना, समय पर खाना - पीना दवा देना, नींद और आराम का ख़्याल रखना और लगातार उनके स्वास्थ्य की जांच के लिए डॉक्टरों के संपर्क में रहना... सायरा बानो ने इस दिनचर्या को अपनी ज़िंदगी ही बना छोड़ा। धन्य हैं वो!