साहेब सायराना - 15 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 15

दिलीप कुमार को "अभिनय सम्राट" कहा जाता था।
ये सवाल उठाया जा सकता है कि आख़िर अभिनय सम्राट कोई किस तरह होता है।
सिनेमा में कोई न कोई कथानक होता है, और उसे जीवंत करने के लिए कुछ पात्र होते हैं। आपको उन पात्रों का ही तो अभिनय इस तरह करना होता है कि वो स्वाभाविक लगे। देखने वालों को ऐसा लगे कि आप आप नहीं, बल्कि वो पात्र ही हैं।
उन्नीस सौ सड़सठ में एक फ़िल्म आई -"राम और श्याम"! इसमें दिलीप कुमार दोहरी भूमिका में थे। उनका एक रूप खल पात्र का था, और दूसरा अच्छे आदमी का।
सिनेमा हॉल से फ़िल्म देख कर निकल रहे युवाओं से पूछा गया कि आपको दिलीप साहब का काम कैसा लगा?
- बेहतरीन। अधिकांश का उत्तर था।
- आपको ये कैसे लगा कि दिलीप कुमार बेहतरीन एक्टिंग कर रहे हैं? सवाल किया गया।
एक छात्र का कहना था - फ़िल्म में जब उन्हें मार पड़ी तो मुझे ऐसा लगा जैसे कोई मुझे मार रहा है और जब उन्होंने फ़िल्म के खलनायक को मारा तो मुझे ऐसा लगा कि उस बदमाश को मैं मार रहा हूं।
- लेकिन क्या ये उस खलनायक के अभिनय का कमाल नहीं है?
छात्र ने कहा- जब खलनायक अपने अड्डे पर गुस्से में भरा संवाद बोल रहा था तो लोग हंस रहे थे या मूंगफली खा रहे थे...
हर फ़िल्म की रिलीज़ पर ऐसी ही चर्चा दिलीप कुमार को अपने समय का बहुचर्चित सितारा बनाती थी।
उनके शालीन व्यक्तित्व को देख कर उन्हें मुंबई शहर का शेरिफ़ भी बनाया गया था।
शेरिफ़ का पद एक बहुत गरिमामय पद था। दिलीप कुमार ने इसे और भी ऊंचाइयां दीं। प्रायः राजा- रजवाड़ों का ज़माना ख़त्म हो जाने के बाद ये महसूस किया जाता रहा कि अब सत्ता में लोगों के चुने हुए लोग ही आते हैं। ऐसे में उन्हें हर समय और- और लोकप्रियता कमाने में ही लगे रहना पड़ता है। अतः समाज में ऐसे लोग बहुत ही कम रह गए हैं जो कमाई हुई लोकप्रियता व आदर का आनंद लेते हुए उसका निर्वाह करते हुए जनता के दिल में रह सकें।
दिलीप कुमार एक ऐसा ही व्यक्तित्व बन गए। उन्हें कुछ समय के लिए देश के सर्वोच्च सदन राज्यसभा में भी भेजा गया।
धीर गंभीर दिखने वाले दिलीप कुमार लोगों से मिलने जुलने और मित्रों के बीच हास - परिहास करने के अवसरों का आनंद लेते देखे जाते थे। उनसे मिलने- जुलने आने वाले लोगों में गैर फिल्मी लोगों का जमावड़ा भी रहता था।
एक दिन ऐसी ही एक महफ़िल में बैठे थे कि उनसे बात कर रही एक पत्रकार ने उनसे पूछ लिया - सर, राज साहब, देव साहब और आप की तिकड़ी को फ़िल्मों का पर्याय माना जाता है। आप तीनों बेहतरीन दोस्त भी हैं, बेहतरीन कलाकार भी, और एक दूसरे के कड़े प्रतिस्पर्धी भी। लेकिन ख़ुद आपकी नज़र में आप तीनों में सबसे बड़ा एक्टर कौन है?
इस सीधे सपाट सवाल को सुनकर कोई भी कलाकार सकपका ही जाता। ऐसे सवालों का जवाब देना बड़ा संवेदनशील और दुष्कर होता है। पत्रकार तो ठहरे पत्रकार। क्या पता कब किस बात का बतंगड़ बना दें। किसी दूसरे का नाम लेते ही शेयर बाजार की तरह एक दूसरे के बाज़ार भावों में हलचल मच जाए और ख़ुद अपना नाम लेते ही "अपने मुंह मियां मिट्ठू" कह कर जनता के बीच इमेज ख़राब कर दी जाए।
लेकिन दिलीप साहब ने इस सवाल का जवाब देने में एक पल की भी देर नहीं लगाई। फ़ौरन बोले- मैं!
सुनने वाले इस जवाब को सुन कर सकते में आ गए। पत्रकार महोदया भी बगलें झांकने लगीं।
दिलीप कुमार ने जिस संजीदगी से जवाब दिया, उससे सब चुप हो गए। किसी से कुछ पूछते न बना।
लेकिन तभी दिलीप कुमार ज़ोर से कहकहा लगा कर हंसे और बोले- अरे भई, राजकपूर की पैदाइश उन्नीस सौ चौबीस की है, देवानंद की उन्नीस सौ तेईस की और मैं उन्नीस सौ बाईस में हुआ था...तो बड़ा कौन हुआ?
दिलीप कुमार की इस शातिर बेबाकी पर एक ज़ोरदार ठहाका लगा। लोग देखते रह गए कि दिलीप साहब ने किस तरह असलियत भी बयां कर दी और तत्काल अपना बचाव भी कर ले गए।