बारह साल की उम्र से सायराबानो के दिल में बसी ख्वाहिश आख़िर ज़माने के सिर चढ़ कर बोली। मां नसीमबानो की देखरेख में सफ़लता की पायदान चढ़ती सायरा को अंततः दिलीप कुमार के परिवार ने भी बहू के रूप में पसंद कर लिया।
धूमधाम से उन्नीस सौ छियासठ में दोनों का विवाह संपन्न हुआ। भारतीय फ़िल्मजगत की एक अविस्मरणीय घटना की तरह ये निकाह संपन्न हो गया और नई नवेली दुल्हन सायराबानो बांद्रा स्थित दिलीप कुमार के बंगले में भरे पूरे उनके परिवार के बीच रहने के लिए आ गईं।
दिलीप कुमार के फिल्मी कैरियर में यह दौर एक मध्यांतर की तरह था जब उनकी नए मिजाज़ की हल्की- फुल्की फ़िल्मों का नया दौर शुरू हुआ। दिलीप कुमार की दुल्हन बन जाने के बाद सायरा को उनके साथ फिल्मी पर्दे पर भी अनुबंधित करने के लिए गोपी, बैराग, सगीना जैसी फ़िल्मों के फिल्मकार दौड़ पड़े।
दर्शक ये देख कर हैरान रह गए कि कभी उड़न खटोला, अंदाज़ और मधुमति जैसी फ़िल्मों से ज़माने को अपने नाम कर लेने वाले दिलीप कुमार का मानो एक नया अभिनयक्रम शुरू हो गया।
कभी जिन दिलीप की उड़ती जुल्फ़ें देख कर देशभर में एक उन्मादी आल्हाद उफन गया था वो ख़ुद अब हमेशा के लिए सायरा बानो की जुल्फ़ों के कैदी हो गए।
दिलीप सायरा की कहानी में एक और नयापन भी था।सेल्युलॉयड की इस रंगीन दुनिया में अधिकतर साथ- साथ काम करते हुए हीरो हीरोइन के बीच प्यार पनपता है और फिर वे शादी कर लेते हैं। फ़िर कई मामलों में शादी के बाद उनका फिल्मी सफ़र थम जाता है। दुल्हन बन कर नायिका फ़िल्मों में काम करना छोड़ देती है। नायक का भी बाजार गिरता है। किंतु दिलीप कुमार और सायराबानो के मामले में ये कहानी उल्टी चली। उन दोनों ने शादी होने तक साथ में कोई फ़िल्म नहीं की पर विवाह के बाद साथ में काम किया।
भारतीय दर्शकों ने इस जज़्बे का सम्मान किया।
फ़िल्म के पर्दे के इन "साहेब" को सायराबानो ने भी हमेशा "साहेब" ही कहा, और साहेब ही समझा।
ये सम्मान उम्र के अंतर से आया, अभिनय दक्षता के अंतर से आया या बचपन से मिले संस्कारों के चलते आया, कोई नहीं जानता।
इस तब्दीली का खुलासा ख़ुद दिलीप साहब ने फिल्मी पर्दे पर "साला मैं तो साहब बन गया" गाकर किया। लंदन से पढ़ कर आईं चुलबुली सायरा को उन्होंने "गोरी गांव की" बना डाला और खुद बन गए बाबू जैंटलमैन! और इस तरह ये पूरब और पश्चिम एक हो गए।
दिलीप कुमार जो कभी यूसुफ खान थे उन्होंने हिंदी फ़िल्मों का पहला शहंशाह बन कर मानो हिंदू मुस्लिम के भेद को ही मिटा दिया। कौन भूल सकता है फ़िल्म गोपी के उन दिलीप कुमार को जो घर में सजे मंदिर के सामने झूम- झूम कर गा रहे हैं- सुख के सब साथी, दुख में न कोय, तेरा नाम एक सांचा... राम.. मेरे राम!
इस तरह सातवां दशक बीतते- बीतते सायरा बानो पर्दे पर भी दिलीप कुमार की नायिका बन गईं। उन्होंने गोपी, सगीना, बैराग जैसी फ़िल्मों में साथ काम किया। यद्यपि फ़िल्म समीक्षक हमेशा से ये मानते रहे कि दिलीप कुमार और सायरा बानो के अभिनय दायरे एक दूसरे से अब तक बहुत दूर होकर गुजरते रहे थे और नायक- नायिका के रूप में उनका किसी एक कहानी में फिट होना सहज नहीं था फ़िर भी सायरा बानो की लोकप्रियता कम से कम इस सातवें दशक के अंत तक किसी तरह कम नहीं थी। वो राजकपूर के साथ दीवाना, देवानंद के साथ प्यार मोहब्बत, राजेंद्र कुमार के साथ अमन और झुक गया आसमान जैसी फ़िल्में लगातार करती रही थीं। इतना ही नहीं बल्कि सुनील दत्त के साथ पड़ोसन की कामयाबी तो एक ब्लॉकबस्टर सफ़लता थी। अतः कोई कारण नहीं था कि वो दिलीप कुमार के साथ कोई फ़िल्म न करें। उधर दिलीप कुमार भी लीना चंदावरकर व मुमताज़ जैसी युवा अभिनेत्रियों के साथ काम कर ही रहे थे।
तो दिलीप सायरा की जोड़ी भी काफी पसंद की गई।