दिलीप कुमार की कहानी केवल एक मौसम के सहारे पूरी नहीं होती। इसे असरदार तरीके से मुकम्मल होने के लिए धूप- छांव में जाना ही पड़ता है।
कहने का तात्पर्य यह है कि किसी व्यक्ति में केवल और केवल सारी खूबियां या अच्छाइयां ही नहीं होती। हर शख़्स में कोई न कोई कमी तो होती ही है। यदि ऐसा न हो तो वो दुनिया की नज़र में इंसान नहीं बल्कि देवता हो जाए।
उदाहरण के लिए फ़िल्मजगत में ऐसी मिसालें मौजूद हैं जब किसी बेहतरीन कलाकार ने अपनी बेहतरी को दुनिया की नज़र में और ज़्यादा बेहतर दिखाने के लिए अन्य लोगों के साथ थोड़ा बहुत छल किया हो।
कहा जाता है कि एक महान गायिका अपने ज़माने में किसी अन्य प्रतिभाशाली गायिका को आसानी से उभरने नहीं देती थीं। वो इसके लिए अपने संपर्कों और रसूख का बेजा इस्तेमाल करने से भी नहीं हिचकिचाती थीं।
दिलीप कुमार पर भी कभी कुछ इस तरह के आरोप लगे। खासकर तब, जबकि उनका करियर ऊंची उड़ान के बाद कुछ ढलान पर था। कहा जाता है कि दिलीप अपनी एक- एक फ़िल्म बहुत सोच समझ कर साइन करते थे और फ़िल्म के एक- एक फ़्रेम में दखल देते थे। उन्होंने अपने प्रभाव और लोकप्रियता का फ़ायदा उठा कर कभी- कभी अन्य समकक्ष अभिनेताओं के रोल्स में भी काट - छांट करवाने से गुरेज़ नहीं किया। वो अपने संवाद भी अपने मनमाफिक करवा लेने के लिए संवाद लेखक के कार्य में हस्तक्षेप किया करते थे। इतना ही नहीं, बल्कि उन पर कभी- कभी तो दूसरे अभिनेताओं के असरदार संवाद कटवा देने तक का आरोप लगाया गया। यद्यपि उनके दखल से अक्सर फिल्मकार अपनी फ़िल्म को लाभ में ही पाते थे लेकिन इससे कई लोग नाराज़ होकर उनसे दूरी भी बना लेते थे।
ऐसा कभी उनके समकक्ष आने वाली नायिकाओं के बारे में भी होता था। जब उनकी लोकप्रियता और सफ़लता का ग्राफ कुछ उतार पर आया तो वो अपने जोड़ीदार एक्टर्स के चयन को लेकर भी काफ़ी चूज़ी हो गए।
मधुबाला, नरगिस, मीना कुमारी का दौर समाप्त होने के बाद की नायिकाओं को वो अपने मुकाबले आसानी से उभरने नहीं देते थे और उनके रोल को अपने हिसाब से निर्धारित करने पर बल देते थे। जबकि समर्थ व अनुभवी फिल्मकार ये मानकर उनके साथ दौर की सफ़ल व लोकप्रिय तारिकाओं को कास्ट करने की कोशिश करते थे कि अब दिलीप कुमार अकेले फ़िल्म को खींच पाने का दमखम नहीं रखते और नई पीढ़ी उनके पुराने दिनों के सहारे ही उनका सम्मान करती नहीं रह सकती।
इसका एक कारण यह भी था कि पिछली सदी के बीतते - बीतते गीत - संगीत ने फ़िल्मों को सपोर्ट करना लगभग बंद कर दिया था जबकि दिलीप कुमार, देवानंद, राजकपूर, राजेंद्र कुमार आदि के गोल्डन एरा कहे जाने वाले दौर में सुरीले गीत - संगीत से फ़िल्मों को बहुत सहारा मिलता रहा था।
लेकिन कुछ महत्वाकांक्षी निर्माता निर्देशक इस बात के लिए भी लालायित रहते थे कि दिलीप कुमार को नए ज़माने की हर सफ़ल तारिका के साथ पर्दे पर उतारा जाए।
दास्तान में शर्मिला टैगोर, किला में रेखा, इज्ज़तदार में माधुरी दीक्षित, धर्माधिकारी में श्रीदेवी को दिलीप कुमार के करियर के अंतिम दिनों में यही सोच कर साथ- साथ लिया गया कि शायद अपने दौर की इन नंबर वन तारिकाओं और सर्वकालिक महान दिलीप कुमार का साथ फ़िल्म को कोई चमत्कारिक लाभ पहुंचा दे। किंतु हम सब जानते हैं कि ये फ़िल्में जहां दिलीप कुमार की फ़िल्मों की फेहरिस्त में सबसे नीचे के पायदान की फ़िल्में साबित हुईं वहीं ये इन सुपरस्टार अभिनेत्रियों की भी अन्य ब्लॉकबस्टर फ़िल्मों की तुलना में बेहद सामान्य मामूली फ़िल्में रहीं। इसका कारण यही रहा कि ये एक्टर्स एक दूसरे के प्रभामंडल को "खा गए"!
शम्मी कपूर, राजकुमार जैसे अभिनेताओं के साथ भी कमोबेश यही हुआ।