साहेब सायराना - 3 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 3

दुआ सलाम के बाद नसीम बानो ने जब दिलीप कुमार को बताया कि बिटिया ने लंदन में ही मुझसे तुम्हारी फ़िल्म की शूटिंग दिखाने का प्रॉमिस ले लिया था तो वो खिलखिला पड़े। जब उन्होंने सुना कि सायरा ने परीक्षा ख़त्म होने के एवज में गिफ्ट के तौर पर दिलीप कुमार की शूटिंग देखने की इच्छा जताई है तो मानो उनका खून बढ़ गया।
वह झटपट पलटे और उन्होंने ड्राइवर को अपनी कार वापस पार्किंग में लगा देने का आदेश दिया। आनन- फानन में भीतर वहां तीन कुर्सियां लगा दी गईं जहां मधुबाला और निगार सुल्ताना के बीच कव्वाली का एक मुकाबला फिल्माया जा रहा था। गीत के बोल थे- "तेरी महफ़िल में किस्मत आजमा कर हम भी देखेंगे!"
शूटिंग देखने वालों के बीच फ़िल्म के हीरो दिलीप कुमार के ख़ुद आ बैठने से शूटिंग में और भी रौनक आ गई। मेहमान के तौर पर नसीम बानो, बेटी सायरा बानो एकटक मधुबाला को देखती रह गईं जो ख़ुद अब दिलीप कुमार से मुखातिब थीं और ढेर सारी लड़कियों से घिरी बैठी थीं।
लंदन से लौटी इस गुड़िया सी स्कूलगर्ल ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उसे भारत में फ़िल्म की शूटिंग इस तरह देखने का मौक़ा मिलेगा कि उसके पसंदीदा एक्टर दिलीप कुमार ख़ुद दर्शक की तरह उनके साथ बैठे होंगे।
उन दिनों मीडिया में दिलीप कुमार और मधुबाला के प्रेम के चर्चे गॉसिप के तौर पर छितराए हुए थे लेकिन शायद कुदरत ने भावी का संकेत उस समय अनजाने ही दे डाला जब मधुबाला और निगार सुल्ताना पर फिल्माई जा रही कव्वाली के बीच एक हैरान दर्शक के रूप में इंग्लैंड से आई सायरा बानो की झलक भी ज़माने को दिखा दी। गीत के बोल मानो मुकम्मल हो गए...!
सायरा बानो की उम्र उस समय कुल तेरह वर्ष की थी पर एक संपन्न नवाब खानदान से ताल्लुक रखने वाली फिल्मी सितारा उनकी मां नसीम जानती थीं कि वो ख़ुद भी कभी फ़िल्मों में इसी तरह आई थीं। स्कूल में पढ़ते - पढ़ते एक फिल्मकार ने उन्हें रजतपट पर उतार दिया और उनका समूचा स्कूल भी उनके इस अवतरण पर अचंभित रह गया।
उनकी तरह ही उनकी ये बिटिया भी "परी चेहरा" कही जा रही थी। ख़ैर, ये सब अभी दूर की कौड़ी था। क्योंकि न तो सायरा बानो की पढ़ाई अभी पूरी हुई थी और न ही उनकी उम्र ऐसी थी कि उन्हें अभिनेत्री बनाने की बात सोची जा सके। अभी तो बात केवल इतनी सी थी कि सायरा को फ़िल्म की शूटिंग देखनी थी और दिलीप कुमार से मिलना था।
मज़ेदार बात यह थी कि सायरा दिलीप कुमार के नाम के पीछे छिपी दास्तान अच्छी तरह से जानती थीं। उन्हें पता चल चुका था कि दिलीप ने केवल फिल्मी पर्दे पर अपना नाम दिलीप कुमार रख लिया है जबकि हकीकत में उनका नाम यूसुफ खान है और वो पेशावर से हिन्दुस्तान आए एक जमींदार गुलाम सरवर खानदान के साहेबजादे हैं। फ़िल्मों में कदम रखने से पहले यूसुफ अपने पिता के साथ फलों के कारोबार में हाथ बंटाया करते थे।
कुछ भी हो, इस भोले से चेहरे की कशिश उन्हें लाजवाब लगती थी। शर्मीला, आत्मकेंद्रित ये नौजवान पहली नज़र में ही दिलों और दिमागों में दस्तक सी देता हुआ लगता था। आवाज़ में भी एक ख़ास लहक लहराती थी।
लेकिन छोटी गुड़िया सी सायरा तब तक ये सब बातें क्या जानें? उनकी बला से इस लड़के का घर चाहे जिस नगरी में हो, और चाहे जो हो उसका नाम!
हां, घर में बात चलती थी तो ये उड़ते से किस्से ज़रूर कानों में पड़ते थे कि जब पहली बार फ़िल्म ज्वारभाटा में उन्हें काम मिला तो मशहूर स्टार देविका रानी ने यूसुफ को ये नया नाम दे दिया। उन्होंने दिलीप को साढ़े बारह सौ रुपए महीने की पगार पर अपनी फ़िल्म कंपनी में नौकरी भी दी।
देविका रानी की बात उन दिनों कोई टालता नहीं था। उन्होंने ही बंगाली बाबू कुमुद लाल गांगुली को अशोक कुमार बना कर रातों रात सितारा बना डाला था। और उसके बाद तो नाम के आगे "कुमार"जोड़ने का प्रचलन ऐसा चला कि दिलीप कुमार, राजकुमार, राजेंद्र कुमार, मनोज कुमार से लेकर अक्षय कुमार तक ये सिलसिला चलता ही रहा।
भारत विभाजन के बाद हिंदुस्तान और पाकिस्तान दो अलग - अलग मुल्क बन जाने के बाद वैसे भी फिल्मी लोगों के सोचने का नज़रिया ही बदल गया था। लोग सोचते थे कि सिनेमा से हिंदू मुस्लिम दोनों ही तबके जुड़ें तो पौ बारह होगी।