साहेब सायराना - 10 Prabodh Kumar Govil द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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साहेब सायराना - 10

इस बहुचर्चित शादी की फ़िल्म जगत में खूब धूम रही।
अक्सर सिने प्रेमियों को ये जिज्ञासा भी रहती थी कि दिलीप कुमार उस दौर की सर्वाधिक कामयाब व लोकप्रिय नई तारिकाओं साधना, आशा पारेख और शर्मिला टैगोर के साथ काम क्यों नहीं करते?
लेकिन लोगों को जल्दी ही ये समझ में आ गया कि दिलीप कुमार इस चौकड़ी में से एक, सायराबानो के साथ जीवन डोर में बंधने वाले हैं इसीलिए उन्होंने सायराबानो की हमउम्र इन अभिनेत्रियों के साथ कोई फ़िल्म तब तक नहीं की।
इनमें से साधना व आशा पारेख के साथ उन्होंने बाद में भी कभी काम नहीं किया जबकि शर्मिला टैगोर के साथ केवल एक फ़िल्म "दास्तान" बाद में की।
दिलीप कुमार का नाम उनकी विवाह योग्य उम्र होने के दिनों में मधुबाला के साथ ज़रूर जोड़ा गया पर उनका रिश्ता मधुबाला के साथ भी केवल फिल्मी जोड़ी बनाने तक ही सीमित रहा।
मधुबाला की बीमारी के चलते उनका जीवन वैसे भी काफ़ी छोटा ही रहा। मधुबाला और दिलीप कुमार का ये प्रेम परवान न चढ़ सका।
एक समय में फ़िल्मों में राज कपूर, देवानंद और दिलीप कुमार की तिकड़ी छाई हुई थी। इस दौर में भी विशेष रूप से दिलीप कुमार और राजकपूर का दोस्ताना जग जाहिर था। कहा जाता है कि एक बार दोनों मित्रों में खेल- खेल में ये शर्त भी लग गई कि देखें, दोनों में से कौन ज़्यादा सफ़ल और लोकप्रिय है? इस बात की परख करने के लिए दोनों ने ही सन उन्नीस सौ चौंसठ में एक- एक फ़िल्म की जिसे दोनों की लोकप्रियता आंकने के लिए उनके बीच की होड़ के तौर पर देखा गया।
इन दोनों ही फिल्मों में नायिका के तौर पर उस समय की शिखर अभिनेत्री वैजयंती माला को लिया गया। ये दोनों महत्वाकांक्षी फ़िल्में थीं।
राजकपूर की "संगम" और दिलीप कुमार की "लीडर" ऐसी ही फ़िल्में थीं। यहां बाज़ी राजकपूर के हाथ रही। संगम ने रिकॉर्डतोड़ सफ़लता अर्जित की। दिलीप कुमार की फ़िल्म लीडर औसत कामयाबी ही पा सकी। कुछ लोग इस स्पर्धा के बाद ये भी मानने लगे थे कि दिलीप कुमार अब अपना बेहतरीन दे चुके हैं और उनका कैरियर अब उतार पर है।
लेकिन वास्तव में ऐसा नहीं था। इसके तत्काल बाद राजकपूर की मेरा नाम जोकर और अराउंड द वर्ल्ड जैसी फ़िल्में सामान्य कामयाबी ही पा सकीं, वहीं दिलीप कुमार ने राम और श्याम, बैराग, संघर्ष जैसी फिल्मों में अपने आप को एक बार फ़िर सिद्ध किया। संगम और लीडर के माध्यम से राजकपूर और दिलीप कुमार के बीच हुई स्पर्धा के बारे में भी कई सिने समीक्षकों की राय अलग- अलग रही। कुछ लोग कहते थे कि संगम एक विशुद्ध मनोरंजक प्रेम कहानी ही थी जो कि राजकपूर, राजेंद्र कुमार व वैजयंती माला के प्रेम त्रिकोण पर आधारित थी जबकि लीडर एक उद्देश्यपूर्ण फ़िल्म थी।
ये बात अलग है कि फिल्म माध्यम एक बेहद खर्चीला मनोरंजन उद्योग ही है जहां आपकी मेहनत तभी सार्थक है जब वो आपकी लागत भी निकाल ले और मुनाफा भी। अन्यथा उसका कोई मोल नहीं है। यदि आप यहां मुनाफा कमाते हैं तो इसका ये अर्थ भी है कि आपके काम को बड़ी संख्या में लोगों ने देखा है। यहां ऐसे एकतरफा प्रकल्पों का कोई मोल नहीं है जहां आप अपना पैसा डुबो दें और केवल ये सोच कर ही ख़ुश रहें कि आपने बहुत अच्छी बात कही है। ये विचित्र बात है कि फिल्मी दुनिया में कई ऐसे प्रकरण दर्ज हैं जहां लोगों ने घर फूंक तमाशे देखे हैं और उन्हें "महान" भी कहा गया है। ये छल पत्रकारिता अथवा ट्रिक - सक्सेज़ ही है जो विचारधाराओं पर आधारित है।
फिल्मोद्योग में ऐसे छल- छायांकन से भी देशी- विदेशी पुरस्कारों के तमगे हासिल करने की कुछ मिसालें भी मिलती हैं।
ख़ैर, दिलीप कुमार एक सर्वकालिक महान अभिनेता का दर्जा ही रखते थे जिन पर लगा किसी का पैसा कभी नहीं फंसा।