मृत्यु मूर्ति - अंतिम भाग Rahul Haldhar द्वारा डरावनी कहानी में हिंदी पीडीएफ

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मृत्यु मूर्ति - अंतिम भाग

कृष्ण प्रसाद जी और अवधूत दोनों की आंखें बंद है। उन्हें अब तक नहीं पता कि इस कमरे में बहुत सारे भयानक बदलाव हो रहे हैं। अचानक जब मेरी नजर ऊपर सीलिंग की ओर पड़ी तो वहाँ का दृश्य किसी को भी अंदर से हिला देगा।
कमरे के उस तरफ से सीलिंग पर एक बच्चा उल्टा चलता हुआ मेरे ही तरफ आ रहा था। उसके शरीर का रंग हल्का हरा है। एक नहीं उसके तीन सिर हैं। लाकिनी!
मेरे मुंह से ही तेज सिहरन की आवाज निकल गई। मेरे सीने के बाएं तरफ तेज दर्द होने लगा। वह भयानक छोटा बच्चा दांत दिखाते हुए खिलखिला कर हंस रहा था। तीन जोड़े भयानक आँख में नफरत और प्रतिहिंसा चमक रहा है। वह बच्चा मेरे सिर के ऊपर आकर रुका और हँसते हुए मुझे ध्यान से देखने लगा। अचानक ही धड़ाक से वह बच्चा मेरे सामने आकर गिरा। रक्षा घेरा के अंदर नहीं , वह रक्षा घेरा के बाहर गिरा था। गिरने की वजह से उसके शरीर का कुछ अंग चोट के कारण फट गए और खून निकलने लगा। कुछ सेकेंड तक फर्श पर वह ऐसे ही पड़ा रहा। देख कर ऐसा लगा कि वह मर गया है लेकिन अचानक ही मुझे आश्चर्य करते हुए वह बच्चा हँसता हुआ उठ बैठा। उसके एक सिर पर एक तरफ से बहुत ही जोर की चोट लगी है और वहां से निकलता खून उसके चेहरे और पूरे शरीर पर बह रहा है। ऐसी वीभत्स अवस्था में भी वह बच्चा हंसता ही जा रहा है। उस घिनौने हंसी से उसके पूरे शरीर की मांसपेशी हिल रहा है। यह दृश्य और सहन नहीं कर पाया और मैं तेजी से चिल्ला पड़ा।
अवधूत और कृष्ण प्रसाद जी दोनों ने मेरी तरफ देखा लेकिन मंत्र पाठ को नहीं रोका। अवधूत ने इशारे से मुझे चुप रहने के लिए कहा।
कमरे के अंदर जो भयानक दृश्य चल रहा है क्या उन्हें कुछ भी नहीं दिख रहा? वह मुझे चुप रहने के लिए कैसे बोल सकता है?
वह छोटा बच्चा अब मेरे चारों तरफ टहलने लगा। एक बात समझ गया कि लाकिनी रक्षा घेरा पार करके मेरे पास नहीं आएगी , इसीलिए रक्षा घेरा के बाहर से मुझे डर दिखाने की कोशिश कर रही है। यह सोचते हैं मुझे थोड़ा बल मिला। मैं आंख बंद करके मूर्ति को हाथ में पकड़ कर बैठा रहा। इधर तेज ठंडी व आतंक की वजह से मेरा पूरा शरीर कांप रहा है।
मैंने ध्यान दिया कि लाकिनी जितनी पास आई है , ठंडी उतना ही बढ़ गया है।
कितनी देर तक ऐसे आंख बंद करके बैठा रहा मुझे नहीं पता। अचानक ही मैंने सुना कि दोनों ने मंत्र पाठ बंद कर दिया है। इसके तुरंत बाद ही कृष्ण प्रसाद जी के चिल्लाने की आवाज सुनाई दिया। मैंने गलती से फिर आँख खोल दिया अगर नहीं खोलता तो ही अच्छा रहता। आंख खोलते ही जो दृश्य देखा उसे देख किसी की भी सांसे अटक जाए। अब वह बच्चा नहीं है। मेरे आस-पास कोई भी नहीं है। मेरे से कुछ ही दूरी पर बैठे कृष्ण प्रसाद जी के कंधे पर बैठकर उनके सिर को आक्रोश में पकड़ी हुई है। वह एक छोटी लड़की है। उसके सिर के दोनों तरफ से और दो सिर निकली हुई है। होंठ के पास से दो बड़े भेदक दाँत बाहर निकला हुआ है। प्रतिहिंसा के आक्रोश में तीनों मुंह से तीन जीभ निकला हुआ है। उसके धारदार बड़े नाखून चमक रहे हैं। मैं आगे की भयानक दृश्य के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं था। उस लड़की ने अपने धारदार नाखून को कृष्ण प्रसाद जी के गले पर रखकर एक बार रगड़ते ही उनका सिर कटकर धड़ से नीचे गिर पड़ा। यह देखकर लाकिनी एक भयानक हंसी हंसने लगी।
मेरा तंत्रिका तंत्र यह दृश्य और नहीं झेल पाया, धीरे - धीरे चेतना लुप्त होने लगी। मैं फर्श पर ही लेट गया। हल्के खुले आंख से देखा कि जिस जगह पर अवधूत बैठा था लेकिन अब वहां से अवधूत गायब था। वहां पर एक और 3 सिर वाला व्यक्ति बैठा हुआ है और वह रेंगते हुए मेरे ही तरफ बढ़ रहा है। केवल वही नहीं , पूरे कमरे में ना जाने कहां से 3 सिर वाले प्राणियों का आगमन हुआ है? उनमें से कोई फर्श पर कोई दीवार पर कोई सीलिंग पर रेंगते हुए मेरे तरफ ही बढ़ रहे हैं। उन सभी के हंसने की वजह से चारों तरफ का परिवेश और भी भयानक हो गया है। सभी एक साथ मेरे तरफ से आ रहे हैं। मुझे ऐसा लगा कि मैं अभी तुरंत ही बेहोश होने वाला हूं।
उसी वक्त सभी भयानक हंसी की आवाजों से परे होकर कोई बोला ,
" सब कुछ गलत है। सब कुछ एक भ्रम है। "

यह आवाज़ मानो बहुत दूर कहीं से मेरे तक पहुंच रहा है। मेरे शरीर में चेतना नाम की कोई चीज ही नहीं है लेकिन फिर भी सुनने की कोशिश किया।

" सबकुछ एक मायाजाल है। उठकर बैठ और देख नर्क का द्वारा खुला है। उस मूर्ति को उसमें फेंक दो।"

मेरे आंखों के सामने अंधेरा उतर रहा है। अभी तक बेहोश नहीं हुआ हूं। कान में बार-बार यही आवाज सुनाई दे रहा है।

" उस मूर्ति को अभी नरक द्वार के अंदर डाल दो। उठ जाओ। "

यह आवाज़ और भी ठीक से सुनाई देने लगा। कितना समय या नहीं पता लेकिन बहुत देर बाद मैंने आंख को पूरा खोला। मेरे चेहरे के पास वो सभी तीन सिर वाले प्राणी खड़े हैं। उन सभी के अंदर से निकलने वाले ठंडी ने मानो मेरे पूरे शरीर की हड्डी को जमा दिया है। इच्छाशक्ति और मनोबल एकत्रित करके मैंने सामने की ओर ध्यान से देखा। सामने ही अवधूत और कृष्ण प्रसाद जी बैठे हैं। सामने पीतल के टोकरी में जलता आग अब धीरे-धीरे लाल से नीला हो रहा था।
अब स्पष्ट रूप से कृष्ण प्रसाद जी का आवाज सुनाई दिया,
" उठो और देखो देवता वज्रपाणि आ गए हैं। उन्होंने अपने वज्र के द्वारा नरक के द्वार को खोल दिया है। अपने हाथ से उस भयानक मूर्ति को द्वार के अंदर फेंक दो। मेरे चारों तरफ के उन भयानक प्राणियों ने अब गुर्राना व डरावनी आवाज़ निकलना शुरू कर दिया। वो सभी अब भी रक्षा घेरे को पार करके मेरे पास नहीं आ पाए हैं। रक्षा घेरे के बाहर एकत्रित होकर , बैठकर , हवा में उड़ते हुए आक्रोश में गर्जन कर रहे हैं मानो अगर मुझे पा जाएं तो चीर फाड़ कर खा लेंगे। पूरे कमरे में फैला हल्का हरा रोशनी अब धीरे-धीरे खत्म हो रहा है।उसके जगह पर अब एक गाढ़े नीले रोशनी ने अपना स्थान ले लिया है। इस रोशनी के अंदर कुछ शक्ति छुपा हुआ है। इसी रोशनी के वजह से मेरे शरीर में धीरे-धीरे बल लौटने लगा। शरीर के पूरे शक्ति को एकत्रित करके मैं अब उठ बैठा। सामने जलता नीला आग दो भागों में खुल रहा था। दरवाजे की तरफ खुलने के बाद अंदर लाल गड्ढे जैसा कुछ दिखाई दिया। उस गड्ढे से आगे की लपटें निकल रही थी।

कृष्ण प्रसाद जी गरज पड़े,
" फेंक दो , उस मूर्ति को अंदर फेंक दो। "

पूरा आवाज सुनने से पहले ही मेरे दिमाग में सिग्नल मिल गया था कि मेरे हाथ में जो मूर्ति है उसे उस लाल गड्ढे के अंदर फेंकना होगा। फिर से पूरे शरीर की शक्ति को एकत्रित करके अपने हाथ में लिए हुए पंचधातु की अभिशापित लाकिनी मूर्ति को मैंने उस गड्ढे की ओर फेंक दिया। तुरंत ही मेरे चारों तरफ के भयानक 3 सिर वाले सभी प्राणी जलने लगे। पूरे कमरे को उस वक्त गाढ़े नीले रोशनी ने अपने कब्जे में ले लिया था? उस रोशनी ने कमरे के अंदर के सभी भयानक शरीर को एक हरे रंग की रोशनी बदलकर उस गड्ढे में घुस गया। उन सभी के हाहाकार गर्जन से पूरे कमरे की दीवार कांप उठा। मेरे दिमाग के ऊपर फिर जोर पड़ने लगा।
बेहोश होने से कुछ सेकंड पहले मुझे एक गंभीर हंसी की आवाज़ सुनाई दिया। यह आवाज़ अवधूत , कृष्ण प्रसाद भट्टराई जी अथवा किसी मनुष्य का नहीं था। वह आवाज़ मन कोई तृप्त कर रहा था।

इसके बाद मुझे कुछ भी याद नहीं। मैंने ज़ब आँख खोला तो अवधूत और कृष्ण प्रसाद जी मेरे ऊपर झुके हुए थे। बेहोशी के बाद आँख खोलते ही दोनों ने मुझे पकड़कर बैठाया। मैं लगभग एक घंटे बेहोश था। मेरे स्वाभाविक होते ही अवधूत ने जाकर कमरे का दरवाजा खोल दिया। धूपबत्ती की सुगंधित धुंआ हवा के साथ बाहर निकल गया।

अवधूत ने मुझसे पूछा ,
" क्या हाल ? चाय पिओगे? बैठे रहो मैं बनाकर लता हूं। आप भी पिएंगे न? "

अँधेरे में उन्होंने सिर हिलाया या नहीं मैं देख नहीं पाया। अवधूत ने क्या समझा नहीं पता। वह कमरे से बाहर चला गया। मैं भी धीरे - धीरे बाहर जाकर दरवाजे को पकड़कर खड़ा हुआ।
कुछ पक्षियों की आवाज़ सुनाई दिया। हालांकि अभी भोर होने में काफी समय है। आसमान में उस वक्त भी कुछ तारे जगमगा रहे थे। उस वक्त आसमान का रंग घना नीला है एकदम देवता वज्रपाणि की तरह...।

••• कालरात्रि के काले अँधेरे को भेदकर जैसे भोर का सूर्य उदय होता है , ठीक उसी तरह ज़ब संसार के सीने में अशुभ शक्ति का जन्म होता है तब इस ग्रह में किसी एक जगह शुभ शक्ति का भी आगमन होता है। जो सभी अशुभ मायाजाल को काटकर चारों तरफ मंगलमय सुगंध फैला देते हैं। शुभ और अशुभ के इस लड़ाई में फिर एक बार शुभ की विजय हुई। •••

....समाप्त....

@rahul