मठाधीश छात्रावास के तरफ जितना आगे बढ़ रहे हैं उतना ही उनके मन में हलचल और बढ़ रहा है । इस कोहरे में भी वह स्पष्ट देख सकते हैं कि छात्रावास के बाहर आंगन में भिक्षुओं ने भीड़ लगा रखा है । उनके वहां पहुंचते ही भिक्षुओं का भीड़ दो भागों में बांट कर उन्हें अंदर जाने कक्ष में जाने का रास्ता देने लगे तथा वहां उपस्थित सभी ने उन्हें झुककर अभिवादन किया । केवल एक ने ऐसा नहीं किया , कक्ष के कोने में वह पहले से ही सिर झुकाकर खड़ा है ।
अब आचार्य सूर्यवज्र आगे आए और कक्ष के कोने में खड़े मासूम भिक्षुक की ओर इशारा करते हुए बोले ,
" धर्माध्यक्ष ! यही वह व्यक्ति है जिसके कारण नालंदा महाविहार की छवि पर कालिख लगा है । इसके कारण ही इस पवित्र ज्ञानपीठ में हत्यालीला चल रहा है । यही है वो भिक्षुक यशभद्र । "
मठाधीश ने स्थिर दृष्टि से आचार्य सूर्यवज्र की ओर देखा ,
" आचार्य आप यह बात इतना आत्मविश्वास से कैसे कह सकते हैं ? "
आचार्य सूर्यवज्र ने उतने ही शांत आवाज से उत्तर दिया ,
" धर्मनिधि ! मैं पूरे प्रमाण को लेकर ही यह बात कह रहा हूं । मेरा संदेह सही था जब से ये हत्याएं शुरू हुई है
तब से इस भिक्षुक के अंदर मैंने कुछ परिवर्तन होते देखा है । वह प्रार्थना के वक्त प्रार्थना कक्ष में दिखाई नहीं देता था तथा इनके सहपाठियों ने मुझे आकर बताया था कि यह भिक्षुक अपने कक्ष से ही बाहर नहीं निकलता। इसके अलावा भी ये सबसे मेधावी व मिलनसार रूप में परिचित हैं । अचानक इस बदलाव के कारण ये सबकी संदेह नजर में थे । इसीलिए आज मैंने इसके कक्ष के दो सहपाठी को उस पर चुपचाप नजर रखने के लिए कहा था । इसके अलावा मैं स्वयं व विहालपाल रात्रि जागरण कर रहे थे। यह दो भिक्षुक श्री गुप्त व सिद्धार्थ ने मुझे आकर यह सब बताया । धर्मनिधि ! इन्होंने क्या देखा है मैं सब कुछ जानता हूं एवं आपको भी यह जानना चाहिए । "
गंभीर होकर गर्दन को सीधा करके मठाधीश पद्मदेव ने सब कुछ सुना ।
आचार्य सूर्यवज्र की ओर देखकर उन्होंने फिर प्रश्न किया ,
" लेकिन आचार्य इस घटना से यह कैसे प्रमाणित होता है कि यह भिक्षुक ही महाविहार में प्रति रात के मृत्यु लीला का कारण है ?
" प्रमाण होगा धर्मनिधि । "
आचार्य के चेहरे का आत्मविश्वास झलक उठा ।
" आपके सामने ही यह रहस्य खुलेगा । देखिये .. "
थोड़ा पीछे होकर आचार्य सूर्यवज्र द्वारा 2 बार ताली बजाते ही तुरंत ही दो अंगरक्षक ने जाकर यशभद्र के पीछे रखा संदूक को खोला । कई सारे कौतूहल चेहरे उस संदूक की ओर झुक पड़े । उन सभी को हटाकर आचार्य सूर्यवज्र ने उस संदूक के अंदर देखा तथा ना जाने क्या देखकर कांप उठे और फिर उस संदूक से लाल कपड़े में मुड़ा हुआ ना जाने क्या लेकर मठाधीश के सामने गए । दो अंगरक्षक के हाथ में पकड़े दिए की रोशनी में मठाधीश ने उस वस्तु को चारों तरफ से ध्यान से देखा । इसके बाद आचार्य की ओर देखते ही उन्होंने लगभग कान के पास मुँह ले जाकर धीमी आवाज में बोले,
" लाकिनी ? "
मठाधीश पद्मदेव आतंक से भयभीत हो गए फिर उन्होंने खुद को संभालकर क्रोध नजरों से यशभद्र की ओर देखा ।
मठाधीश पद्मदेव का परिचय शांत , स्थिर , संयम रूप है लेकिन आज उनके कंठ से क्रोध की ज्वाला फूट पड़ी ।
" किस उद्देश्य से , किस साहस से इस नालंदा महाविहार में बैठकर भंते तुमने इस भयंकर साधना को चुना है । "
यशभद्र ने कुछ भी छुपाने की कोशिश नहीं किया । सिर उठाकर उसने संक्षिप्त उत्तर दिया ,
" प्रज्ञा पारमिता सूत्र "
इन तीन अक्षरों को सुनकर कक्ष के अंदर हल्का कोलाहल शुरू हो गया । सूर्यवज्र के साथ ही बाकी आचार्य भी कठोर दृष्टि से यशभद्र की ओर देख रहे हैं । आखिर वह कहना क्या चाहता है ? स्वयं मठाधीश भी आश्चर्य हो गए हैं ।
आचार्य सूर्यवज्र गरज पड़े ,
" मूर्ख ! वह क्या चाहने से ही मिल जाएगा । महायान बौद्ध धर्म का सबसे पवित्र उस पोथी को क्या सभी पढ़ सकते हैं । उस पोथी को पढ़ने से विश्व के सभी ज्ञान का भंडार उस व्यक्ति अंदर समाहित हो जाएगा । तुम्हारे अंदर इतना लोभ ? "
यशभद्र ने धीमी आवाज में जवाब दिया ,
" लेकिन आचार्य मेरे ज्ञान का भूख बहुत ही प्रबल हो गया है । इसीलिए तो जब से मुझे पता चला है कि उत्तर के रत्नोदधि ग्रंथालय में उस दुर्लभ पोथी को रखा गया है तब से मैं उसे पाने की कोशिश में लगा हुआ हूं । ग्रंथालय के सभी कक्ष को खोजा पर कहीं भी नहीं मिला । "
आचार्य सूर्यवज्र बोले ,
" तुम्हें क्या लगता है कि इतनी आसानी सभी के लिए देवी प्रज्ञा पारमिता के ज्ञान का भंडार रख दिया जाएगा । "
" आचार्य इसी कारण से मुझे यह पथ चुनना पड़ा । मैं समझ गया था कि सभी से छुपाकर वह पोथी रखी गई और महाविहार के कुछ गिने चुने लोगों के अलावा किसी साधारण मनुष्य के लिए उसे खोज निकालना संभव नहीं है । "
आचार्य के धैर्य का बांध टूट गया ,
" तो क्या तुम इतनी नीच व भयंकर पथ चुनोगे वह भी केवल उस पोथी के लिए ? आत्मशांति ख्याति व महाविहार की शिक्षा तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं है ?
" आप किसे नीच व भयंकर पथ कह रहे हैं ? क्या आप तंत्र चर्चा नहीं करते । तथागत गौतम बुद्ध के सिखाए धर्म में आप सभी ने तंत्र - मंत्र को लाकर क्या उसे मलिन नहीं कर दिया । "
यशभद्र के साहस को देखकर कक्ष में उपस्थित सभी की भौंह सिकुड़ गया ।
पास से ही सिद्धार्थ की सावधान वाणी सुनाई दिया ,
" भंते एक सिद्धाचार्य के सामने इस प्रकार बात नहीं करते , खुद को शांत कीजिए । "
आचार्य सूर्यवज्र फिर बोले ,
" हाँ अवश्य ही हम तंत्र चर्चा करते हैं लेकिन व्यापक रूप से नहीं । वज्रयान के सबसे नमनीय पथ को अवलंबन करके सभी को शांति व संयम का निर्देश देना ही इस महाविहार का उद्देश्य है । तंत्र का कोई क्रिया या उपासना यहां नहीं किया जाता सबकुछ ही साफ व सरल है । लेकिन तुम याद रखो कि तुमने जिस साधना के पथ को चुना है वह साफ व सरल नहीं है । मैं इतना जानता हूं कि यह लाकिनी साधना बहुत ही भयानक साधना है । निंगम्मा संप्रदाय के तांत्रिक आचार्य इस प्रकार के साधनाओं को करते हैं । भयानक उपाचार द्वारा एक काल तक इनकी साधना करनी होती है और उस काल में प्रति रात लाकिनी को एक ताज़ा प्राण की जरूरत होती है । यह अपदेवी मनुष्य के प्राण को हरण कर लेती हैं एवं खुद की शक्ति में वृद्धि करती हैं फिर उस मासूम का मृत शरीर किसी पत्थर की तरह कठोर व ठंडा हो जाता है । फिर पंद्रहवें दिन लाकिनी साधक का कोई भी मनोकामना पूर्ण करती है । इसीलिए धर्मनिधि आपके आंखों के सामने सब कुछ साफ है अब आप समझ गए होंगे कि प्रति रात एक नरबलि का कारण क्या है । अब तुम बताओ इस भयानक साधना की पद्धति तुमने कैसे सीखी ? "
यशभद्र थोड़ा हंसा और बोला ,
" प्रज्ञा पारमिता सूत्र नहीं मिला तो क्या हुआ आचार्य क्या मैं किसी दूसरे पुस्तक तक नहीं पहुंच सकता । इस महाविहार के तीन ग्रंथालय में कहां पर कौन सा प्राचीन पुस्तक में क्या लिखा है क्या आपको इस बारे में सब कुछ पता है ? मुझे माफ कीजिए लेकिन किस पोथी से मैंने इस साधना की प्रक्रिया सीखी यह मैं नहीं बता सकता । "
यशभद्र की बात समाप्त होते ना होते दो प्रहरी हड़बड़ाकर कक्ष के अंदर आए । उन्होंने बताया कि द्वितल में एक कक्ष के सामने फिर से एक भिक्षुक का मृत शरीर मिला है । यह सुनकर कुछ आचार्य दोनों प्रहरी के साथ द्वितल की ओर रवाना हो गए ।
गुस्से से सिद्धाचार्य सूर्यवज्र लाल हो गए हैं । कक्ष के अंदर सभी की क्रोधित दृष्टि यशभद्र के ऊपर है । एक बौद्ध सन्यासी भी ऐसा निर्दय व स्वार्थी हो सकता है ?
" धर्मनिधि ! आदेश दीजिए मैं अभी इस पापी को महाविहार के बाहर भेजने की व्यवस्था करता हूं । यह भिक्षुक यहां पर एक मुहूर्त भी रहने लायक नहीं है । "
अब यशभद्र की ओर देखकर मठाधीश बोले ,
" हम सभी बौद्ध धर्म से जुड़े हैं अहिंसा व संयम के लिए हमें ख्याति प्राप्त है । इसीलिए आज तुम इतना तुच्छ अपराध करने के बाद भी सभी के सामने खड़े होकर बात करने का साहस पा रहे हो । क्या एक बार के लिए भी तुमने महाविहार के गौरव की बात को नहीं सोचा ? क्या तुमने अपने सहपाठिओं के बारे में भी एक बार नहीं सोचा जिन्हे तुमने प्रतिदिन एक - एक कर बलि चढ़ा दिया । "
यशभद्र पहले की तरह ही खड़ा रहा उसके चेहरे पर एक निर्लज्ज हंसी खेल रहा है ।
अब मठाधीश पद्मदेव ने तर्जनी को ऊपर उठाया ,
" इसी मुहूर्त , इसी गहरे निशिकाल में ही तुम इस पवित्र महाविहार को त्याग करो एवं अपने साथ ही उस अभिशाप को यहां से लेकर जाओ । जिसको तुमने जागृत किया है । "
तुरंत ही यशभद्र का चेहरा झूलस गया । क्रोध , दुःख , अभिमान सभी अनुभूति एक साथ उसके चेहरे पर दिखाई दिया ।
कक्ष के अंदर सभी शांत हैं । अब यशभद्र ने उस छोटे संदूक को अपने सीने से लगाया फिर कक्ष से व नालंदा महाविहार को छोड़कर बाहर निकल गया ।
कक्ष के अंदर का गंभीर परिवेश उस वक़्त भी समाप्त नहीं हुआ था ।
मठाधीश पद्मदेव के कान के पास चेहरा ले जाकर आचार्य सूर्यवज्र ने कुछ बातों को कहा ,
" मुर्ख ! वह अति मुर्ख है । मुझे ऐसा लगता है कि यह भिक्षुक लाकिनी साधना के बारे में सब कुछ नहीं जानता । ये बहुत ही धूर्त व क्रूर अपदेवी हैं । इनकी साधना करना मतलब खुद को चोट पहुंचाना । यशभद्र अब कहीं भी जाए लाकिनी उसका पीछा नहीं छोड़ेगी । कुछ समय बाद ही आस-पास के गांव में फैल जाएगा कि नालंदा महाविहार से एक भिक्षुक को बड़े अपराध के लिए बहिष्कार किया गया है इसीलिए गांव के लोग उसे अपने यहां आश्रय नहीं देंगे । केवल आज की रात फिर यशभद्र लाकिनी की बलि कहां से लाएगा । किसी और की बलि ना मिलने लाकिनी तब आह्वान करने वाले साधक को ही........ "
क्रमशः.........