इलाज के बाद मैं ठीक हो गई।उम्र बढ़ने के साथ ही भूत- प्रेतों का डर पीछे छूटता गया ।अब मैं घर में अकेले रह लेती थी । मुझे डर नहीं लगता था,यह तो नहीं कह सकती ,पर अब पहले वाली बात नहीं थी।उसके बाद कभी -कभार ही ऐसी स्थिति आई कि मैं डरी।
पर अक्सर ऐसा होता था कि रात को सपने में लगता कि कोई भारी बोझ मेरे ऊपर लदा जा रहा है।मेरी सांसें अवरूद्ध होने लगतीं ।तब उसी सुषुप्तावस्था में ही मैं हनुमान -चालीसा पढ़ने लगती।तब जाकर वह बोझ मेरे शरीर से उतरता।सुबह होते ही मैं इस बात को भूल जाती।कभी याद भी आता तो खुद को समझा लेती कि नींद में गले पर अपना ही हाथ पड़ गया होगा।पर वह बोझ!
एक बात और थी कि कभी -कभी मुझे बहुत जल्दी नींद आने लगती जैसे कि कोई नशा कर लिया हो।उस रात नींद में मेरा शरीर उत्तेजित होने लगता और फिर जैसे कोई बोझ मेरे शरीर को दबाने लगता ।मैं विरोध करना चाहती पर मेरे हाथ- पांव सुन्न होते।
पर तभी मेरे भीतर कोई चेतना जगती। मैं सपने में ही हनुमान जी की स्तुति करने लगती और फिर मेरे साथ कुछ भी बुरा नहीं हो पाता।
मैं किसी से यह बात नहीं बता पाती थी।इतना ज्यादा पढ़- लिखकर टीचर जो बन गई हूं।वैसे भी मुझे लगता है कि ऐसा अकेले जीवन बिताने के कारण है।अकेले रहना मेरा शौक नहीं,मजबूरी है।मेरे जीवन में कोई पुरुष टिकता ही नहीं।लगता है कि कोई ताकत मुझे किसी की होते नहीं देखना चाहती हो।जब भी किसी पुरूष से मेरी दोस्ती प्रगाढ़ होने लगती है कुछ ऐसी स्थितियां या गलतफहमियाँ पैदा हो जाती हैं कि दोस्ती टूट जाती है।
मैंने अपना छोटा -सा जो घर बनवाया है।इसमें अकेले ही रहती हूँ।कभी कोई रिश्तेदार रूक जाता है तो सुबह होते ही बताता है कि वह रात -भर सो नहीं पाया।उसे अजीब -सा भय लगा।ऐसा लगता है कि इस घर में कोई और भी उपस्थित है।
सभी मुझसे पूछते हैं कि 'क्या तुम्हें अकेले रहते डर नहीं लगता है?'
पर कुछ वर्ष पूर्व मुझे फिर पहले की तरह डर लगा ।
घटना यह थी कि किसी ने मुझे मेरे घर के बारे में कुछ डरावनी बातें बताईं थीं।
बताने वाले
एक सिंधी थे। खूब लंबे -चौड़े ,गोरे -चिट्टे।उनकी आंखें जरूरत से ज्यादा बड़ी थीं।वे एक बैंक में मैनेजर थे।उस बैंक में मेरा खाता था,इसलिए मैं अक्सर उनके पास जाया करती।फिर उनसे मेरी मित्रता हो गई।एक दिन वे मेरे घर चाय पीने आए तो दरवाजे के बाहर ही ठहर गए।
मैंने उनसे पूछ लिया--क्या हुआ है?
वे देर तक बाहर ही खड़े रहे ।फिर भीतर आकर ड्राइंगरूम में बैठ गए।
'क्या हो गया था?बाहर ही क्यों खड़े थे?'मैंने फिर से पूछा तब वे बोले--इस घर में कोई है।उनसे ही बातचीत कर रहा था।उनकी आज्ञा लेकर भीतर आया हूँ।
उनकी इस तरह की बात से मुझे डर लगा।पर ऊपर से निडर बनने का ड्रामा कर बोली--आप भी न!इतने पढ़े -लिखे होकर भी इस तरह की बातें कर रहे हैं।नाहक ही मुझे डरा रहे हैं।
--मैं झूठ नहीं बोल रहा।मैंने वर्षों साधना करके ऐसी शक्ति पाई है जिससे अदृश्य शक्तियों को भी देख सकूं...उन्हें महसूस कर सकूं।
"रहने दीजिए इन सब बातों को मैं नहीं मानती।"
--अच्छा तो ये बताइए आपके जीवन में कोई पुरुष है?
"मुझे कोई पसन्द नहीं आया या फिर मैं किसी को पसन्द नहीं आई।"
--आप इतनी सुंदर हैं...युवा हैं। शिक्षित और आत्मनिर्भर हैं फिर आपको कौन नहीं पसन्द करेगा?
दरअसल इस घर में जो आपके साथ है।वह ऐसा नहीं होने दे रहा।वह आपके साथ आपकी किशोरावस्था से ही है।उसने ही आपका न प्रेम सफल होने दिया है न विवाह।
"वह कौन है,आप ही बताइए ।"
मुझे अब भी मजाक ही सूझ रहा था,जबकि वे सीरियस थे।
--आपको मजाक लग रहा है,पर मैं सच कह रहा हूँ।
"अब बस करिए।मैं डरने वाली नहीं।"
मैंने उनको चाय -नाश्ता कराया और फिर विदा कर दिया।
जाने क्यों मुझे लगा कि वे खुद किसी जिन्नाद से कम नहीं ।इनकी आँखों में कुछ देर कोई देख ले तो वह सम्मोहित हो जाए।मैं कभी उनकी आंखों की तरफ नहीं देखती थी।उनके जाने के बाद मुझे भय लगने लगा।वे मेरे लिए लाल गुलाब का गुलदस्ता लेकर आए थे।मुझे लगा कि उसमें भी कोई जादू -टोना हो सकता है,इसलिए उसे छुआ तक नहीं। मैं ऊपर के कमरे में भाग गई।उस रात मैं सो नहीं पाई।पूरी रात बत्ती जलाए रही।डरावनी बातों का दिमाग पर गहरा असर होता है।
छुट्टियां थीं इसलिए दूसरे दिन सुबह ही मैं माँ के घर के लिए निकल पड़ी।मैं उनसे हर बात शेयर करती थी और वे बहुत अच्छी सलाह देती थीं ।समय के साथ वे बहुत ही आधुनिक और प्रेक्टिकल हो गईं थीं।अब वे डायन- टोनहीन,भूत- प्रेत की बातों में विश्वास नहीं करती थीं।हमेशा कहतीं कि कोई भी शक्ति भगवान की शक्ति से तो बड़ी नहीं हो सकती है न,इसलिए भगवान को याद करो ।सब अलाय -बलाय भाग जाएगा।ओझा- सोखा,पंडा- पंडित सब अपना पेट भरने के लिए तमाम ताम -झाम करते हैं।कमजोर दिल -दिमाग वाले उनके झांसे में आकर अपना सत्यानाश कर लेते हैं।
माँ के घर जाते समय मैंने गुलाब का वह गुलदस्ता भी साथ ले लिया था,जो मैनेजर साहब ने मुझे दिया था।
माँ के घर मैं रात को पहुँची थी ।थकी थी इसलिए खाना खाकर जल्दी ही सो गई पर आधी रात को अचानक मेरी नींद खुल गई।बिस्तर के पास वाली मेज पर ही मेरा बैग पड़ा था,जिसमें गुलाब का वह गुलदस्ता था।
सुबह होते ही मैंने माँ को मैनेजर द्वारा कही हर बात बताई तो माँ बोली--'सब भरम है.... बेकार की बातें हैं।वह मैनेजर तुम्हें डराकर कोई स्वार्थ सिद्ध करना चाहता होगा।जान गया था कि अकेली हो।तंत्र -मंत्र के बहाने बार- बार तुम्हारे घर आता और तुम्हें सम्मोहित करके कुछ भी कर लेता।तुमको किसी पुरुष को घर बुलाना ही नहीं चाहिए।पता नहीं किसके मन में क्या हो?स्त्री को अकेली पाकर मर्द कुछ भी कर सकता है।और उसका गुलदस्ता क्यों यहां ले आई?रास्ते में कहीं फेंक देती।लाल चीजों से ही जादू- टोना ज्यादा किया जाता है।'
मुझे माँ की बात में सच्चाई नजर आ रही थी। मैं समझ गई थी कि भय ही भूत है।
फिर मैंने उस मैनेजर साहब को कभी अपने घर नहीं बुलाया।संयोग ही रहा कि कुछ दिनों बाद ही उनका तबादला हो गया और वे वापस अपने आंध्रप्रदेश चले गए।
वहाँ जाकर भी वे अक्सर मुझे फोन करते, पर अब वे डराने वालीं बातें नहीं करते थे।
मैं आज भी सोचती हूँ तो हैरान होती हूँ कि आखिर उन्होंने यह सब क्यों कहा?क्या सच ही उनकी बात में कोई सच्चाई थी।आखिर मेरे अकेले रह जाने की वजह क्या है?क्या सच ही कोई मेरे साथ रहता है?