क्यों मुझें अधिकांश लोग समझनें में असमर्थ रहते हैं?
किसी का भी मुझे समझ नहीं सकने का सही अर्थों में यानी वास्तविक कारण क्या हो सकता हैं?
क्यों मुझें अधिकांश लोग समझनें में असमर्थ रहते हैं?
ऐसा इसलियें क्योंकि जो मेरी, मेरे भावों की, विचारों की यानी मेरे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष हर करने योग्यता कृत्य प्राथमिकता हैं मतलब मेरा उद्देश्य हैं; उसके महत्व यानी सार्थकता या आवश्यकता का महत्व हैं उससें वह भिज्ञ नहीं हो पातें। वह मेरे उद्देश्य के मायनों को नहीं समझ पातें।
मैं आपकी समझ के परें यानी समझ नहीं आ सकनें वाला तभी हो सकता हूँ, जब मेरे उद्देश्य की अर्थपूर्णता या महत्वपूर्णता यानी उसकी आवश्यकता के महत्व या मायनों से आप भिग्य यानी परिचय नहीं हो; यानी उसका आपको यथार्थ ज्ञान न हों। यदि मेरे उद्देश्य की महत्वपूर्णता से भिज्ञता वाले हो जायेंगे अर्थात् उद्देश्य के आधार पर मेरे समान हो जायेंगे; जो कि आपको होना ही चाहियें क्योंकि यह होना जितना मेरे लियें आवश्यक हैं उतना ही अनंत और शून्य के कण-कण के लियें महत्वपूर्ण भी हैं; तो यकीन मानिये मतलब विश्वास किजियें हममें विचारधारा के आधार पर ही नहीं हर एक आधारों पर समानता के अतिरिक्त कुछ शेष न रह जायेंगा।
मेरी सोच, मेरे विचार; मेरे तर्क और मेरे चयन प्रश्न आया था कुछ समय पूर्व मन-मस्तिष्क में कि, क्यो किसी से मेल नहीं खातें; अधिकतर लोग कहतें थें कि तेरी बात समझ से परें हैं तो इसके दो अर्थ निकलते थे। पहला कि या तो मेरी सोंच का; समझनें का स्तर दूसरों से गया गुज़रा यानी निम्न कोटि का हैं और नहीं तो मेरा स्तर दूसरों से उच्च कोटि या श्रेणी अर्थात् स्तर का हैं। मेरा समझ रूपी गणित इस लियें लोगो के समझ में नहीं आता क्योंकि वह उस मेरे ऐसे समझ के गणित को जो हर किसी के पूर्ण अस्तित्व के अर्थ, मतलब या उद्देश्य यानी आवश्यकता की सिद्धि यानी पूर्ति चाहता हैं; उसे स्वयं के समझ रूपी गणित के आधार पर सत्यापित करना चाहतें हैं; उनका ऐसा गणित जो कि उनके या हमारें अस्तित्व के छोटे से दायरें के अर्थ, मतलब या आवश्यकता की सिद्धि यानी पूर्ति चाहता हैं। अब जिस गणित का उद्देश्य समुचें अस्तित्व की आवश्यकता, अर्थ या मतलब की पूर्ति या सिद्धि करना हैं; भला उस गणित से कैसे समान हो सकता हैं; जो केवल अपने समुचित अस्तित्व के नगण्य, छोटे से भाग को अज्ञानता वश अपना समुचित अस्तित्व मान कर उसकी आवश्यकताओं की सिद्धि या पूर्ति वस चाहता हैं; और इनकी पूर्ति के लियें, वह जितने अस्तित्व के हिस्सें को अज्ञानता के कारण अपना नहीं मान सका यानी जैसा वह अनुभव करता हैं वैसा ही उस हिस्सें का भी नहीं कर सका; जिससें उस हिस्से की आवश्यकताओ को उसनें महत्वहीन यानी अनावश्यक समझ लिया।
मेरी प्राथमिकता हैं अपने साकार और निराकरण यानी समुचित अस्तित्व की आवश्यकताओ की पूर्ति करना; क्योंकि वह मेरा अहं का आकार यानी अहंकार हैं परंतु जो मुझें महत्व नहीं देते यानी मुझें और मेरे कर्म को निरर्थक यानी अनावश्यक समझतें हैं क्योंकि उनके अहं का आकार यानी अहंकार पूर्ण अस्तित्व के एक अत्यंत छोटे भाग, जो कि इतना सूक्ष्म हैं कि उसे गिना भी नहीं जा सकता; उस तक ही सीमित हैं।
मेरी विचारधारा, मेरे विचार, मेरे तर्क, मेरे चयन उन से ही मिल सकतें या सकती हैं जिनका उद्देश्य समुचित साकार अनंत और निराकार शून्य अस्तित्व की आवश्यकता यानी अर्थ की सिद्धि हैं ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार हर एक गणित के उस प्रश्न और उसका समाधान, उसमें उपयोग कियें गयें हर सूत्र, उस गणित का हर एक समीकरण; यहाँ तक कि उस गणित को हल करनें में उपयोग किया गया हर एक शब्द भी पूर्णतः मेल खा सकता हैं यानी उन्हें मिलाया जा सकता हैं या समता की कसौटी पर पूर्णतः समान सिद्ध हो सकता हैं; उस दूसरें के द्वारा सिद्ध कियें गयें उसी गणित के प्रश्न से; जिसका उद्देश्य भी पहले प्रश्न के भांति अपने समुचित अस्तित्व की आवश्यकता या अर्थ यानी मतलब की सिद्धि करना हैं।
- © रुद्र एस. शर्मा
(समय/दिनांक/वर्ष - ११:००/०८:०१/२०२२)