उजाले की ओर ---संस्मरण Pranava Bharti द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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उजाले की ओर ---संस्मरण

उजाले की ओर ---संस्मरण

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कोई भी बात जब यादों में घुल-मिल जाती है तो संस्मरण बन जाती है और हमें झकझोरती रहती है |

मन करता है ,इसे मित्रों के साथ साझा किया जाए |

बहुत दिनों की बात है ,याद नहीं कितने --लेकिन काफ़ी वर्ष हो गए |

हम लोग एक बार बैंक में किसी काम के लिए गए थे |

वहाँ एक वृद्ध सज्जन भी आए थे | वे काफ़ी कठिनाई से चल रहे थे|

उनके हाथ-पैर भी काँप रहे थे |हाथ में छ्ड़ी थी जिसके सहारे वे बड़ी मुश्किल से सीएचएल पा रहे थे |

"क्या आपके पास पैन होगा ?" उन्होंने मेरे पति से पूछा जो अपने काम में व्यस्त थे अत: मैंने उनसे कहा ;

"अंकल ! पैन है ,क्या आप फॉर्म भर पाएँगे ?"मैंने उनके काँपते हाथों को देखते हुए पूछा |

"मुश्किल तो है बेटा ---"

"आप कहें तो मैं आपका फॉर्म भर दूँ ?" मैंने झिझकते हुए उनसे पूछा |

"हाँ,बेटा ---प्लीज !"उन्होंने मेरी ओर कृतज्ञता से देखते हुए अपना फॉर्म मुझे पकड़ा दिया |

मैंने उनका फॉर्म भर दिया ,उन्होंने पैसे निकलवा लिए और फिर से मेरे पास आ बैठे|

"बेटा ! ज़रा पैसे गिन दोगी ?"

"जी" मैंने उनके पैसे गिन दिए | उन्होंने संतुष्टि में सिर हिलाकर मुझे धन्यवाद दिया |

वे लड़खाड़ाते हुए बाहर जा रहे थे कि मेरे पति का काम ख़त्म हो गया ,वे फ्री हो गए थे |

बैंक के बाहर आकर देखा तो वे वृद्ध महाशय रिक्शा तलाश कर रहे थे |

"चलिए ,आपको हम छोड़ देते हैं --" मेरे पति ने उनसे कहा |

"नहीं --नहीं ,आप कहाँ परेशान होंगे --"उन्होंने कहा |

लेकिन हम लोगों ने उनसे अनुरोध किया कि वे हमारे साथ चलें ,हम उन्हें छोड़ते हुए निकल जाएँगे |

बड़ी कठिनाई से वे हमारे साथ चलने को राज़ी हुए | मैं पीछे बैठ गई और उन बुज़ुर्ग अंकल को मैंने आगे बैठने का अनुरोध किया |

गाड़ी में बैठते हुए भी उनकी हाथ की छड़ी के साथ उनके पाँव भी कंपकंपा रहे थे | मैंने उन्हें सहारा देकर आगे बैठाया |

रास्ते में पति ने उनसे पूछा ;

"आप कहाँ रहते हैं ?"

"भगवान के घर --"उन्होंने बड़े उत्साह से बताया |

"मतलब ---आपकी सोसाइटी कौनसी है ?मुहल्ला ?"

"यहीं ट्रायङ्गल मार्केट के पास ---"

फिर वे अपने बारे में बातें करते रहे और दिशा-निर्देश भी करते रहे |

कुछ ही देरी में हम उनके बँगले के बाहर थे | ख़ासा बड़ा ,खूबसूरत घर था | रंग-बिरंगे फूलों से सुशोभित बगीचा !

उन्होंने बाहर से घण्टी बजाई ,उनकी पत्नी बाहर आईं जो काफ़ी उम्रदराज़ थीं | हमें देखकर वे कुछ चौंक सी गईं |

"इनकी तबीयत तो ठीक है ?"उन्होंने मुझे पूछा |

"अरे!मैं बिल्कुल ठीक हूँ | ये भलेमानुष तो मुझे छोड़ने आए हैं |"

उन्होंने अनुरोध करके सप्रेम हमें अंदर बुलाया और बिना कुछ लिए नहीं जाएँगे ,अनुरोध किया |

कुछ ही देर में वे खाने के लिए कई चीज़ें और कोल्ड-ड्रिंक लेकर आ गईं और हमें अनुरोधपूर्वक बड़े प्यार से खिलाया |

"भगवान के घर रहते हैं ,आपने कहा था न ? इसका क्या मतलब हुआ सर ?"मेरे पति ने उनसे पूछा |

मेरे मन में भी यह प्रश्न सिर उठाए खड़ा था |

"अरे ! भगवान के घर ही तो हैं | देखो,हमारे बच्चे विदेशों में रहते हैं ,यह घर हमें भगवान ने ही तो रहने के लिए दिया है |"

उनकी पत्नी भी बोल उठीं ;

"हम भगवान के घर में रहते हैं तभी तो भगवान हमारी देखभाल बच्चों की तरह करते हैं | हमारे बच्चे तो सालों में कभी चक्कर काट लेते हैं लेकिन भगवान ! वे तो हमें अपने साथ रखे हुए हैं |"

दोनों बुज़ुर्ग दंपति मुस्कुरा रहे थे | संतुष्ट भी लग रहे थे ,किसी प्रकार की कोई शिकायत व चिंता उनके मुख पर दिखाई नहीं दे रही थी |

हम उन्हें धन्यवाद देकर बाहर निकले ,तभी हमारी नज़र उनके गेट के बाहरी थंबले पर पड़ी जिस पर किसी का नाम नहीं 'भगवान का घर'लिखा था |

बहुत कुछ सोचने के लिए विवश कर गई यह घटना !

आप सबकी मित्र

डॉ. प्रणव भारती



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