UJALE KI OR - 5 books and stories free download online pdf in Hindi

उजाले की ओर - 5

उजाले की ओर-5

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आ.व स्नेही मित्रो

नमस्कार

बहुत सी बार लोगों को लगता है कि अधिक बहस न करने वाला तथा बात को चुप्पी में दबाकर रखने वाला मनुष्य सरल,सहज नहीं मूर्ख होता है | मित्रो !यह बात सही है क्या?मुझे लगता है कि वह सरल,सहज होता है किन्तु संवेदनशील होने के कारण किसीको ग़लत बातों से नहीं नवाज़ता | वह सब समझते हुए भी चुप्पी को ही ढाल बना लेता है | वह सोचता है कि यदि मूर्ख बने रहना शांति बनाए रखने में सहायक होता है तो मूर्ख बने रहने में ही सबका लाभ है|

अधिकांशत: ‘अहं’के कारण बहुत से कटु अनुभव समक्ष आते हैं |कोई अपने आपको किसीसे छोटा अथवा कम महत्वपूर्ण ही नहीं समझना चाहता |सब एक-दूसरे से स्वयं को अधिक बुद्धिशाली,अधिक समर्थ समझते हैं |तब बात कैसे बने? जबकि सब समझते और जानते हैं कि वृक्ष जितना अधिक फलों से लदा होता है ,उतना ही वह नमता है अर्थात विनम्रता ही वह जादू की छड़ी है जिससे कोई भी प्रभावित हो सकता है,जिससे सबका भला हो सकता है किन्तु खेद इस बात का है कि इस युग में जादू की छड़ी को घुमाना सब मानो भूलते ही जा रहे हैं | कभी-कभी यह भी होता है कि किसी विपरीत परिस्थिति में हम अपने किसी मित्र को भी अपना सलाहकार बना लेते हैं किन्तु यह तब ही सही व सटीक रहता है जब तक वह मित्र केवल तमाशाई ही न हो अन्यथा वह अपनी गलत सलाह से बात को और बिगाड़ सकता है | यह स्नेह व प्रेम की जादू की छड़ी तब ही उपयोगी हो सकती है जब इसके साथ संवेदना का मरहम लगा हुआ हो |

संवेदना वह है जो किसी भी स्थिति में कम न हो |संवेदना समय व वातावरण देखकर नहीं उपजती ,वह तो मनुष्य की धमनियों में प्रवाहित होती है |कोई भी स्थिति क्यों न हो वह अपना काम करती रहती है ,कोई उसे मान दे,अपमान दे अथवा कितना भी नीचे क्यों न गिरा दे |संवेदनशील मनुष्य कभी अपने आप में किसी के लिए कटुता उत्पन्न नहीं करता |जहाँ तक हो सके वह बात बनाने का प्रयास करता है और यदि वह यह नहीं कर पाता तो चुप्पी साध लेता है |किसीको भी अपमानजनक शब्दों से नवाजना उसे प्रीतिकर नहीं लग सकता |वह विनम्र रहकर बड़ी से बड़ी बात पर अंकुश पाने की चेष्टा करता है किन्तु यदि कुछ नहीं कर पाता तो मौन पर तो उसका अधिकार होता ही है |

अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी में हम जब दृष्टिपात करते हैं तो हमें जितनी नाराज़गी या कहें कि रिश्तों में टूटन दिखाई देती है वह अधिकांश रूप से चुप न रहने अथवा 'मैं ही क्यों झुकूँ?'की प्रवृत्ति के कारण दिखाई देती है |

यहाँ पर प्रश्न ये उठता है कि हम अपने बने हुए स्नेही रिश्ते एक ज़रा सी अकड़ से तोड़कर इस छोटी सी ज़िंदगी को नर्क बना लें ?यहीं प्यार व स्नेह है तो यहीं नाराज़गी व दिखावा भी | हमें यह सोचना है कि हम क्या चुनें ?

ज़िन्दगी के बाज़ार में

मिलता है सब –कुछ

किन्तु स्नेह,प्यार,संवेदना

मोल नहीं बिकती

ये सब हमारे भीतर हैं

बस,पहचानने की है ज़रुरत -----

मित्रो ! आइए,अपनी संवेदनाओं को पकड़कर रखें,किसी भी स्थिति में विचलित न हों ,किसी को अपशब्दों से न नवाजें और जीवन की यात्रा को एक शांतिपूर्ण रूप में पूरी करते रहें | आमीन !

आप सबकी मित्र

प्रणव भारती

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