शाखाओं से जुङा आदमी Sneh Goswami द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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शाखाओं से जुङा आदमी

शाखाओं से जुङा आदमी

“ तुम इन बच्चों का भविष्य बिगाङ रहे हो “ भीङ में से किसी ने सत्यव्रत को ललकारा ।
“ तुम इन्हें गलत बातें सिखा रहे हो “ । ये दूसरा व्यक्ति था ।
“ मैने गलत बातें कौन सी सिखाई । मैं तो वही सिखा रहा था जो ............” । अध्यापक ने रुआंसे स्वर में कहा ।
उसकी बात काटते हुए एक ऊँचा स्वर व्यंग्य में बोला – “ सदा सच बोलो । सत्य की हमेशा जीत होती है । ये तुमने ही सिखाया न जबकि सच्चाई यह है कि सच बोलनेवालों को लोगों ने हमेशा पत्थर मार कर बुरी तरह से जख्मी किया है “ ।
“ देशभक्ति महान जज्बा है , यह तुम ही सिखा रहे हो न । देशभक्त हमेशा फांसी पर चढता है – पुलिस चढाए या आतंकवादी । -यह तुम अच्छे से जानते हो “ । -दूसरे ने और भी ऊँची आवाज में कहा ।
“ सभी मनुष्य समान हैं , कोई जात-पात नहीं होती । ऐसा तुमने कहा न । अरे मूर्ख ! जात-पात नहीं होगी तो आरक्षण कैसे मिलेगा हमें “ ।
“ आरक्षण के बिना मेरे लिए वोट कहाँ से आएँगे ”। - नेता ने मुट्ठी बाँध हवा में लहराई ।
तभी भीङ में से दो बच्चे निकल कर अध्यापक से लिपट गये – “ पापा ये मेरे सर हैं “।
थोङी देर पहले घबराहट से पसीना-पसीना हो रहा सत्यव्रत अपनी जङों और शाखाओं को थामे अब गर्व से मुस्कुरा रहा था । देश और देश का भविष्य सुरक्षित हो गया था ।

सवाल

"सुन ! पे नहीं मिली क्या तेरी अब तक ?

" "

" आज तो दस तारीख हो गई । ले पकड़ तेरी चेकबुक । फटाफट चैक साइन करदे । “ .उन्होंने चेकबुक बढाते कहा था ।

पर यह तो ब्लैंक है ? अमाउंट ?

वह मैं अपनेआप भर लूँगा । तू बस चुपचाप साईन कर ।
सुनीता ने चुपचाप साइन करके चेकबुक और पेन वापिस कर दिये । उन्होंने चैकबुक अपनी जेब में डाली और बाहर चले गए । वह पीछे मुङी तो देखा - कामवाली बाई मुंह बाए उसकी ओर देखे जा रही थी
"क्या है सीता ? ऐसे क्यों खङी है । क्या देख रही है ? “
कुछ नहीं मैडम जी १ मुझे लगा कि हम लोग अनपढ है इसलिए हर जुल्म चुपचाप सहने के लिए मजबूर हैं । मेरा मरद ही मेरी पगार छीन कर दारु में उडा देता है .।
और जवाब का इन्तजार किये बिना वह दरवाजा पार कर चली गई

ये शहर तो

कालेज से लौटती लङकी अचानक गायब हो गयी । पूरे शहर में हाहाकार मच गया । शहर के चौराहों पर सजी मूर्तियां उसी तरह आँखें किये सावधान मुद्रा में सजी रहीं । किसी के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी ।
तीसरे दिन लाश मिल गयी बुरी तरह से क्षत- विक्षत । ऐसे में शहर दो तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं ।भीङ या तो सङकों पर उतर कर चिल्लाना शुरु करती है या फिर गुमसुम हो जाती है । यहाँ भी शहर ने यही किया । करीब चार –पाँच सौ लोग हाथों में मोमबत्तियाँ , बैनर और पोस्टर लिए सङकों पर उतर आए । एक-दूसरे से बेखबर डरे सहमे , दुखी अपने आप में अकेले । बाकी लोगों ने घर के दरवाजे – खिङकियाँ बंद कर लिये । माँओ ने बेटियों को अपने दामन में छिपा लिया । पिताओं ने उनकी साँस पर भी पहरे लगा दिये । कहीं किसी दरिंदे को पता चल गया तो । कल से स्कूल ,कालेज , बाजार सब बंद । सौ पाबंदियाँ । यह शहर लङकियों के रहने के काबिल नहीं ।
अलबत्ता लङके बेपरवाह घूमते रहे । सब ठीक ठाक चला । चार महीने सुख शांति से बीते । लोग धीरे – धीरे भूलना शुरु हुए ही थे कि एक दिन अलग अलग स्कूलों के सामने से दो लङके गायब हो गये । गायब क्या हुए रेप का शिकार हो गये ।
एक सुर में शहर ने कहा – ये शहर तो लङकों के भी रहने के काबिल नहीं है ।