पिंजरा Sneh Goswami द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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पिंजरा

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महानगर की यह एक छोटी सी कालोनी है । कालोनी में किसी किचन में एक के ऊपर एक रखे डिब्बों जैसे फ़्लैट । फ़्लैट क्या छोटा सा पिंजरे नुमा आकार जिसमें 10* 12 का कमरा जिसके एक कोने में 4*4 की रसोई और दूसरे कोने में इसी आकार का बाथरूम ।
इसी डिब्बे की बालकनी ऐसी है मानो पिजरे के सींखचे हो । उसी बालकनी में खड़ी है सुरभि जो सड़क पर आती जाती कारों ,ऑटो रिक्शा की रेलपेल देख रही है और हैरान है । उसे बचपन में पढ़ी कहानी याद आती है जहाँ आसमान गिर रहा है । इन पर कौन सा आसमान गिर रहा है । सुरभि का मन कर रहा है उन्मुक्त हँसी हँसने का पर वह ऐसा नहीं करती । यहाँ वह एक सभ्य सोसाइटी का हिस्सा है जहाँ हँसना गँवारपना है । यहाँ सब के अपने अपने पिंजरे हैं । कोई किसी की बात नहीं करता न कोई किसी की बात जानता है ।
सुरभि पीछे पड़े पिंजरे को देखती है जिसे विवेक ने उसके लिए सात महीने पहले खरीदा था । इसमे बंद है एक बुलबुल और उसके दो चिरोटे । चिड़िया पिंजरे की सीमा पहचान गयी है इसलिए उड़ने की कोशिशें उसने छोड़ दी हैं । वह मात्र उड़ कर पिंजरे की सींखों पर बैठती है । इससे आगे उसकी गति नहीं है । चिरोटे अभी अभी पंख पाए हैं ,उड़ना चाहते हैं । नहीं उड़ पाते तो सलाखो से टकरा कर घायल होते है ।
सुरभि को लगता है वह भी पिंजरे में बंद चिरोटा है । यहाँ बालकनी में खड़ी हुई बालकनी की जाली से आरपार झाँक तो सकती है पर बाहर कैसे जाए । यह उसका गाँव नहीं है जहाँ हर आदमी सबके सुख दुःख का साथी है । वह किसी के भी घर कभी भी जा सकता है बिना बुलाए ,बिना बताए क्योंकि वे सब असभ्य हैं ,अनपढ़ है इसलिए अधिक सामजिक हैं ।शहर सभ्य ,पढ़े लिखों की दुनिया है जहाँ बिना बुलाये किसी के घर जाना शिष्टाचार के विरुद्ध है ।सुरभि को लगता है जैसे शहर में सुवासित समीर की तरह वह अपना व्यक्तित्व गँवाती जा रही है ।
वह बेसब्री से विवेक के घर लौटने का इन्तजार करती है पर विवेक के काम से लौटने पर जब घर में वे दो प्राणी हो जाते है तब भी बात औपचारिक ही होती है
वह चिल्लाना , चहचहाना व बतियाना चाहती है पर सुनेगा कौन । विवेक तो सो गया है । तीन तीन मैट्रो बदल कर काम पर पहुँचना , वहां नौ घंटे खटना और वहां से तीन तीन मैट्रो फिर से बदलते हुए यहाँ घर पहुंचना इस सब में तेरह घंटे तो लग ही जाते है । वाकयी बहुत मुश्किल है । वह विवेक को समझती है । उसकी परेशानी भी समझती है । पर इस मन का क्या करे जो विकल है किसी का बोल सुनने को । किसी को अपने मन का राग सुनाने को ।
उसका मन कर रहा है विवेक को अपने आलिंगन में जकड़ ले । झिंझोड़ दे बांहों में भर कर ।
लगातार बातें करे घर की ,गाँव की ,भागती कारों की , अपने सूनेपन की . और भी सब कही अनकही बाते ।
पर वह कुछ नहीं करती । चुपचाप सोये विवेक को देखती है ।धीरे से पलंग से नीचे उतर चुपचाप बुलबुल के पिंजरे के पास आ खड़ी हो जाती है । बुलबुल उसे आया देख सलाखों के पास सरक आती है । उसे अपनी भाषा में सोने की हिदायत देती लगती है ।
वह धीरे धीरे फिर बिस्तर पर आ गई है । विवेक बेसुध सो रहा है । वह भी इस कोशिश में है कि उसे भी यह पिंजरा रास आने लगे ।उसे भी घायल हुए बिना जीना आ जाए ।

स्नेह गोस्वामी