मेरी गर्लफ्रैंड - 1 Jitin Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी गर्लफ्रैंड - 1


चैप्टर - 1


23 अगस्त 2018 की सुबह 8:20 वाली मेट्रो नंबर 12427 नोएडा सिटी सेन्टर से द्वारका सेक्टर21 की और बीच में पड़ने वाले हर स्टेशन पर रुकते हुए, बड़ी तेजी से हवा को दो हिस्सों में बाटती हुई भागे जा रही थी। कहते हैं। दिल्ली जैसी जगह पर गर्मी के दिनों में, जिस व्यक्ति के पास सड़क पर चलने के लिए अपना परिवहन नहीं हैं। उसके लिए मेट्रो का सफर जन्नत के सफर की तरह हैं। और उसमें भी अगर सीट मिल जाए, तो ऐसा समझो जैसे स्वर्ग ले जाने के लिए, भगवान अपने दूत की जगह खुद तुम्हें लेने आए हो और अपने सोने के रथ पर बैठाकर तुम्हें अपने साथ ले जा रहे हो, पर उस दिन मेरे साथ ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था।

मतलब ऐसा मेरे साथ पहली बार हुआ था। जब मेट्रो मेरे लिए जन्नत ना होकर, थोड़ी देर के लिए दातें के नरक की परिकल्पना बन गयी थी।

उस दिन मैं अपने दो दोस्तों के साथ मेट्रो में, दो डिब्बों को जोड़ने वाली जगह जो होती हैं। वहाँ पर खड़ा होकर, कनॉट प्लेस में अपनी जॉब की सुबह की शिफ्ट करने के लिए जा ही रहा था। कि अचानक मेरे कंधे पर किसी ने हाथ रखा, पहले तो, मैंने मेट्रो में भीड़ के कारण पैदा हुई मजबूरियों की संस्कृति में खुद को ढालते हुए, किसी के द्वारा भीड़ में संभलने के लिए आकस्मिक रूप से उसके साथ घटित हुई घटना मानकर, जिसका निवारण मेरे कँधे पर हाथ रखना था। उस पर कोई ध्यान नहीं दिया। पर जब हाथ रखने वाले ने, मजबूरियों की संस्कृति को दरकिनार कर, विशिष्ट सांस्कृतिक व्यवहार की तरफ बढ़कर, दोबारा मेरे सीधे कंधे पर हाथ रखा, और मेरे एक दोस्त द्वारा, जिसे उस वक़्त, मैं फिजिक्स के नियमों के साथ शेक्सपियर के कोट मिलाकर सुना रहा था। इशारा किया गया, तब मैं पीछे मुड़ा, और मैंने जो देखा, उसे देखकर एक बार को तो, मुझे लगा। जैसे पेंट में कुछ भीग रहा हैं। पर जब ऐसा कुछ नहीं हुआ। तो मैंने बड़े सहज भाव से कहा था। “ तुम यहाँ कैसे…., एम सॉरी…..मैंने…..ध्यान…नहीं दिया तुम…… परर्र”

पहले तो वो चुप खड़ी रही थी। पर दस सेकण्ड बाद एक दम से किसी न्यूक्लियर बम की तरह फट पड़ी, “शर्म नहीं आई तुझे, नज़र मिलाते हुए मुझसे, जाहिल कही के, धोखेबाज़, मन कर रहा हैं। तुझे मार दूँ। पर मैं ये भी नहीं कर सकती। आखिर, मैं माँ बन गई हूँ। ना इसलिए, क्योंकि फिर बच्चा अनाथ हो जाएगा। वैसे तु, ज्यादा चिंता मत कर, उसका बाप वो ही हैं। जिसे होना चाहिए था। क्योंकि अगर तू होता, तो जन्म लेने से पहले मैं अपने बच्चे को मार देती

उसका खुद पर भरी मेट्रो में हावी होते देख, जिस कारण मेरे साथ कुछ और ना हो जाए। मैं तुरंत ही उसकी बात बीच में काटते हुए बोला था, “पागल हो गई हो क्या, जो कुछ भी बोले जा रही हो, पहले तो तुम ऐसी नहीं थी।“

पर जैसे वो मुझे ना सुनने का इरादा लेकर आई थी। इसलिए, उसने पहले से भी ऊँची आवाज़ में बोलना शुरू कर दिया था।, “मैं कैसी थी, ये मैं जानती हूँ।, ये बात मुझे तुझसे पूछने की जरूरत नहीं हैं। और ये बोलकर क्या तू, खुद को सही साबित कर देना चाहता हैं।

--- मैं नहीं कर रहा हूँ। कुछ भी साबित, मैं तो बस इतना कह रहा हूँ। तुम आराम से भी तो बोल सकती हैं। हम दोनों मेट्रो के अंदर हैं। अकेले में नहीं

--- ओफ्फो, आज बेइज्जती लग रही हैं। जब नहीं लगी थी। जब छोड़ के गया था। जाने कितने दिन, ऐसी ही कितनी मेट्रो में, रास्ते भर आँसू बहाए हैं। मैंने, तब एक भी बार ख्याल नहीं आया था मेरा तुझे, कि मेरे ऐसा करने पर उस बेचारी का क्या हाल होगा। तब नहीं लगी थी। बेइज्जती, कि एक लड़की को उम्मीद देकर बीच रास्ते में कैसे उसका साथ छोड़ दिया था।

---किस तरह समझाऊँ अब तुम्हें, क्योंकि सुनती तो तुम किसी की हो नहीं, पर फिर भी हर चीज़ के लिए सॉरी ….मेरा मतलब…आई एम रियली सॉरी हर उस चीज़ के लिए, जिसका ज़िम्मेदार तुम मुझे मानती हो……वैसे, मैं कोई भी कारण दूँ। उस पर तुम्हें विश्वास नहीं होगा। और सच कहूँ, तो मैं देना भी नहीं चाहता। क्योंकि कारण तुमसे मेरे प्यार को कम करेगा। जो मैं कभी करना नहीं चाहता। इसलिए एक बार फिर सॉरी ही बोल सकता हूँ। उन ख्यालों के लिए, उन सपनों के लिए, जो मैं तुम्हारे लिए पूरे नहीं कर पाया।…….वैसे, मैं ये भी जनता हूँ। ये माफ़ीनामा बीच की दूरियों को कम नहीं करते, पर शायद ये एक ऐसा पुल जरूर बना देते हैं। जिस पर चलकर अगर मन हो तो आने वाले दिनों में मुलाकातों की तारीके तय हो सकती हैं।

--- ये चेहरे के उदासी भरे भाव, बातों में घुली मासूमियत और हमेशा आँखों में दिखता मेरा इंतज़ार, हर बार मेरे गुस्से को कम कर देता हैं।…..रुककर बोलते हुए।…….ठीक हैं। अब जब मेरा गुस्सा कम हो ही गया हैं। या ये कहूँ कि तूने एक बार फिर मुझे मना लिया। तो फिर पहली बार डेट पर चलें। शायद हमारे बीच में, कुछ बेहतर हो जाए। जिसकी हमने उम्मीद ना की हो……तो फिर शाम को पाँच बजे करोलबाग सुन्नु दी कुल्फी पर मिलेगा

--- ये भी कोई कहने वाली बात हैं। “मिलेगा”, तुम बुलाओ और मैं ना आऊँ, ऐसा कभी हुआ हैं।

ऐसा हुआ हैं। इसलिए ही कहा हैं। और एक बात, अबकी बार आ जाना वरना पता नहीं, मैं क्या करूँगी।

मंडी हाउस स्टेशन दरवाज़े बाई तरफ खुलेंगे। कृपया सावधानी से उतरे

ठीक हैं। शाम को मिल जाना, मुझे यहीं उतरना हैं।

उसके जाने के बाद मैं वर्तमान में था। या थोड़ी देर पहले के भूत में या शाम के भविष्य में, इसका उस वक़्त मुझे संज्ञान नहीं था। पर मैं जहाँ भी था। मुझे, मेरे दोस्तों द्वारा वास्तविक स्तिथि में लाया गया। इस एक दोस्तों के पारपंरिक सवाल के साथ, “कौन थी”

इस सवाल के जवाब में मैंने पूरी ईमानदारी से वो ही कहा जो आजतक दोस्तों के सामने एक दोस्त हमेशा कहता आया हैं। “ये वो ही थी। जो पहली जॉब में मिली थी। और जिसकी वजह से जॉब गयी थी।“

-- तूने तो कहा था। जॉब छोड़ी थी।

-- बेटा एक सेल्फ रेस्पेक्ट जैसी चीज भी कुछ होती हैं। तो…. इसे ऐसे ही समझलो

-- ध्यान कहाँ है। तेरा, क्या जवाब दे रहा हैं। और ये कौन सी वाली जॉब में थी

-- सबसे ज्यादा आज तक की सैलरी वाली जॉब जो दो साल पहले की थी। उसमें मिली थी। और वैसे भी दो साल में दुनिया बदल जाती हैं। तुम लोग इतना, ध्यान क्यों दे रहे हो इस पर, जो हुआ सो हुआ, अब कुछ बदला थोड़ी ना जा सकता हैं।


राजीव चौक मैट्रो स्टेशन दरवाज़े बायीं तरफ खुलेगें कृपया सावधानी से उतरे