मेरी गर्लफ्रैंड - 3 Jitin Tyagi द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरी गर्लफ्रैंड - 3

चैप्टर- 3


तुम्हारी नौकरी का पहला दिन हो और तुम उसे ही नाराज़ कर दो, जिसके साथ तुम्हें काम करना हैं अंदाज़ा लगा सकते हो, तुम पर क्या गुज़रेगी। मेरे साथ कुछ ऐसा ही हुआ था। मुझे जिसके साथ काम करना था वो वोही थी जिससे थोड़ी देर पहले, मैं बेमतलब की बातें कर चुका था। दुकान के अंदर गए हुए। बीस मिनट ही गुज़रे थे। कि दुकान का मालिक राजन हम दोनों का एक-दूसरे से परिचय कराने लगा, लेकिन अब उसे कौन बताता, हम दोनों एक-दूसरे का नाम भले ही ना जानते हो, पर एक-दूसरे से मिल चुके थे। जो मुलाकात मेरे लिए तो एक तरह की ट्रेजेडी ही थी


नौकरी के पहले तीन दिन अच्छे नहीं गुज़रे, इसका मतलब ये नहीं हैं कि बहुत बुरे गुज़रे, बल्कि उम्मीद के मुताबिक नहीं गुज़रे थे। उससे कुछ कहना तो दूर, उसकी तरफ देखने से भी डर लग रहा था। इन तीन दिनों में हुआ तो बहुत कुछ था, पर जो सबसे अच्छी बात हुई थी। वो ये थी कि हम एक-दूसरे के नाम से रूबरू हो गए थे। उसका नाम अंतिम था। और मेरा नाम अमित

वो हापुड़ से 8:20 की पैसेन्जर ट्रैन से दिल्ली आती थी। इसलिए वो दुकान के तय समय से हमेशा एक घण्टा पहले ही पहुँचती थी। और शाम को चार बजे ही निकल जाती थी। ये छूट उसे राजन ने दूर से आने की वजह से दे रखी थी। और इसी छूट की वजह से उसने राजन से कभी सैलरी को लेकर बहस नहीं की थी। और मैं नोएडा से करोलबाग मेट्रो से जाता था। इसलिए तय समय से आधा घण्टा पहले ही पहुँचता था। इसी कारणवश हमारे पास आधा घण्टा होता था अकेले में बिताने के लिए, लेकिन पहले तीन दिन का वो आधा घण्टा या फिर पूरे तीन दिन बेकार हो चुके थे।

दुकान में हम दोनों के अलावा, मालिक सहित चार लड़के और एक लड़की ओर काम करते थे। जिसमें तीन लड़के रूम के अंदर और बाकी बचे लड़का-लड़की रिसेप्शन पर अपनी सेवाओं को मूर्त रूप देते थे।

*****

तीन दिन की चुप्पी के बाद चौथे दिन, जब मैं आधा घण्टा पहले पहुँचा। तो मेरी शक्ल पर तरश खाकर वो खुद ही मुझसे बोल पड़ी थी। “किसी ने मना किया हैं? जो बात नहीं करता या घरवाले खाना नहीं देते, जिससे मुँह में जवान पैदा होती हैं।“

--वो तुम गुस्सा थी। ना, मेरी उस बात पर

--अच्छा! बड़ी फिक्र हैं। मेरे गुस्से की

--कह सकती हो

--ठीक हैं। चल, एम सॉरी अब गुस्सा नहीं होऊँगी। अब तो कोई परेशानी नहीं हैं।

उसके सॉरी कहने पर मुझे लगा था। कि लड़की ने अपनी तारीफ़ हवा में नहीं की थी। वाकई लड़की अच्छी हैं। जो गलती मेरी थी। और माफ़ी खुद मांग रही हैं। और मैंने उस दिन सोचा, अबसे मैं इसे खुद से कभी रूठने नहीं दूँगा।

चौथे दिन हमारी एक-दूसरे से पूरा दिन काफी बातें हुईं थी। जिसमें मुझे पता चला था कि वो शादी शुदा हैं। पहले तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ कि ऐसा कैसे हो सकता हैं। लेकिन फिर उसने अपने बैग से भारतीय शादी की निशानी मंगलसूत्र और जुराब निकालकर अपने पैरों में बिछुए दिखाए तब मेरा आश्चर्य बिना शक यकीन में बदल गया। लेकिन इस यकीन के बाद दूसरे संदेह ने मुझे घेर लिया। जिसको अपने शब्दों में उतारकर मैं उससे बोला, “कि तुम इन्हें पहनती क्यों नहीं, क्योंकि शादी शुदा लड़की अगर इन्हें ना पहने तो वो बुजुर्गों के अनुसार अपशगुन माना जाता हैं।“

उस दिन इस बात का जवाब उसने, मुझे नहीं दिया कि वो इन्हें क्यों नहीं पहनती, पर मुझे जल्दी भी नहीं थी। आखिर, हमें मिले हुए वक़्त ही कितना हुआ था।

आने वाले दो दिन और यूँ ही गुज़र गए। एक-दूसरे को अपने बारे में बताते हुए, राजन की बुराई करते हुए, दुकान के बाकी लोगों के बारे में बात करते हुए, आने वाले ग्राहकों की मज़ाक बनाते हुए, ये सब उस वक़्त करना बड़ा अच्छा लग रहा था।



कुल मिलाकर हमें मिले हुए कुल मिलाकर छःदिन हो गए थे। जिसमें बातचीत हमारी तीन दिन हुई थी। इस बातचीत से हम दोनों पूरी तौर पर ना सही, पर बहुत ज्यादा एक-दूसरे पर भरोसा करने लगे थे। राजन और दुकान के बाकी काम करने वाले तो ये तक कहने लगे थे। तुम दोनों के अलावा भी यहाँ पर और लोग काम करते हैं। उनसे भी बात कर लिया करों। पर हम दोनों को जैसे एक-दूसरे से फुरसत ही नहीं थी।

*****

दिल्ली सरकार के आदेश के अनुसार, दिल्ली की हर बड़ी मार्किट सप्ताह में एक दिन बन्द रहती हैं। जिससे दुकान के मालिकों और उसमें काम करने वाले कार्मिकों को आराम मिल सकें। पर ऐसा सोचना सरकार का काम हैं। दुकान के मालिकों और ग्राहकों का नहीं।

ग्राहक हमेशा सही होता हैं। उपभोक्ता वादी पूंजीवाद के ये सिद्धान्त, दिल्ली के बाजारों में अफीम खाकर हमेशा तांडव करता रहता हैं। यानी कि बाजार बंद हो, चाहे खुला; ग्राहक बाजार में निकलता हैं। और ग्राहक बाजार में निकलता हैं। इसका मतलब उसकी इच्छाँए जरूरत का रूप, और जरूरत मजबूरी का रूप धारण कर चुकी है। और इससे पहले की ग्राहक का मजबूरी वाला रूप, काली माँ का वेश धारण कर आगबबूला हो, दुकान के मालिक शिव का रूप धरकर उनके सामने लेट जाते हैं। यानी कि व्यवहारिक रूप से दुकान पूरे महीने खुलती हैं। और सैद्धान्तिक रूप से महीने में चार दिन बन्द रहती हैं।

मुझे अब तक इस करोलबाग के हॉलमार्किंग सेन्टर में काम करते हुए छः दिन बीत चुके थे। और सातवें दिन मुझे पहली छुट्टी मिलती, जो दिल्ली सरकार ने करोलबाग के लिए सोमवार को आरक्षित की थी। पर जब राजन ने रविवार की शाम को अंतिम के जाने के बाद मुझसे कहा “वैसे तो कल छुट्टी हैं। पर तुम्हें आना हैं। कुछ जरूरी काम खत्म करने हैं।“ उस दिन मुझे पता चला। कि दुकान बड़े शहर की हो या छोटे शहर की, मॉल का डिपार्टमेंटल स्टोर हो या हाई सोसाइटी के लिए खुला ग्रॉसरी स्टोर सब एक जैसे ही होते हैं। गधा मजदूरी कराने वाले

वैसे दिक्कत कुछ नहीं थी। गधा मजदूरी करने में, क्योंकि गधों की फौज में शामिल हुए अभी छः ही दिन हुए थे। इसलिए क्रांति के संघनाद का भी प्रश्न नहीं उठता था। लेकिन जब ये पता चला कि छुट्टी के दिन सब आएँगे बस अंतिम नहीं आएगी, तो ऐसा लगा जैसे कल इस दुकान में पूरा दिन खुद के ही हाथों से अपनी अर्थी उठानी पड़ेगी।

पहला सोमवार बिना उसके बड़ा बुरा बीता था। और अबकी बार वाकई बुरा बीता, उस दिन पहली बार हर चीज़ बेगानी लगी, किसी चीज़ में मन नहीं लगा, पूरे दिन कुछ काम नहीं किया बस उसके ख्याल बुनने के अलावा, क्योंकि जिस काम के लिए राजन ने मुझे बुलाया था। वो बस इतना था कि एक गुलाबी रंग के कागज़ पर 916.8 लिखा था इसके अलावा पूरा दिन काम के "क" से भी मुलाकात नहीं हुई थी।

*****

वियोग ही मिलन की पहली सीढ़ी होता हैं। या ये कहे कि ये ही प्रेम को अंततः गहराई में ले जाता हैं। ऐसा कुछ मेरी समझ में अगले, दिन आया जब उसने मुझसे पूछा, “कल याद आई मेरी या ये अपनापन वैसे ही जताता हैं।“

--याद तो उन्हें किया जाता हैं। जिन्हें भूलना हो, तुम तो मेरा ही हिस्सा हो

--लगता हैं। कुछ ज्यादा ही याद आई। जो एक रात में शायर बन गया।

--शायर तो हम पहले भी थे। बस शायरी सुनने वाली नहीं मिली

--अफसोस हैं।, मुझे कि मैं तुझे पहले नहीं मिली

मैं चुप रहा था उसकी इस बात पर, लेकिन उसके चेहरे को देखता रहा, उसके चेहरे में एक दर्द था। जो उसकी हँसी के पीछे नंगा नाच रहा था। जिसे वो छिपाने की भरपूर कोशिश कर रही थी। पर वो दर्द नंगा था। ना, इसलिए छिप कैसे जाता

मेरा उसे ऐसे दो टूक देखने पर वो झेंप सी गयी और बोली, “क्यों देख रहा हैं। ऐससे..... ज्यादा खूबसूरत लग रही हूं। क्या आज”

मैंने अपने भाव छिपाते हुए उससे कहा, “ग़ालिब का शेर हैं। “तुम सामने भी हो और मुख़ातिब भी

अब तुमसे बात करें कि तुम्हें देखे”

--आ गया लड़कों वाली पर यानी कि लाईन मारनी शुरू कर दी। पर मैं बता दूँ तुझे I am married और दूसरी बात तू मेरे बारे में कुछ नहीं जानता

--इसीलिए तो लाईन मार रहा हूँ। कि जान सकूँ।

--अच्छा! तो फिर कुछ रोमांटिक सा बोल चल

--तुम्हें देखना अच्छा लगता हैं। और जितना ज्यादा देखता हूँ। उतनी तुम ज्यादा सुंदर लगती हो

--ऐसा मत बोल… प्लीज---मैं ब्लश करने लग जाती हूँ।

कुछ वक्त तक, हम दोनों यूँ ही बतियाते रहे, कभी वो प्यार भरे सवाल मुझ पर दागती, कभी मैं प्यार भरे अफ़साने उसके लिए कहता। बड़ा अच्छा वक्त गुज़र रहा था। कि अचानक राजन हमारे पास आया और मुझसे बोला, “अमित एक काम करो, नीरज(दुकान का फील्ड कर्मी और एकाउंट संभालने वाला) के साथ शीतल ज्वैलर्स की दुकान पर चले जाओ।“ सैलरी देने वाले मालिक का आदेश था। इसलिए बिना तुनकमिजाज हुए मैं नीरज के साथ चला गया। लेकिन जब चालीस मिनट के करीब, बाद मैं लौटकर आया। तो अंतिम की आँखों में आँसू थे। और बाकी सब अपने काम में लगे थे ये पहली बार हुआ था। मेरे साथ कि किसी और की आँखों में आँसू देखकर, मेरा अपना मन रोने लगा था। क्योंकि इससे पहले, बहन की विदाई हो या किसी और का, दुःखी होते हुए आँसू बहाना जैसे मम्मी, मुझे कभी फर्क नहीं पड़ा था। पर उस दिन दुःख हो रहा था। उसकी गीली आँखों को देखकर, लगा था कि जिन आँखों में ये खारे समुद्र का तूफान आया हैं। वो आँखें मेरी क्यों नहीं हैं? और अगर ऐसा नहीं हो सकता। तो ये दुनिया झूठ कहती हैं। कि इस संसार में ईश्वर नाम की भी कोई चीज़ हैं।

पहले तो पाँच मिनट मैं कुछ भी नहीं बोला था। कि शायद कुछ याद आ गया होगा। इसलिए रोने लगी, पर जब ये आँसू बूँद-बूँद करकर उसके उन कपोलों पर, जिनमें हँसते वक़्त गड्ढे पड़ते थे। और पिछले पाँच-छः दिनों में जिन्हें देखना मुझे सुकून देता था। बेरहमी से जुल्म ढहाते ही गए तो मैंने अपने प्यार के झरने को अपने अंदर के दुःखी मन के सागर में गिरने से अलग कर, और मन अपने बदन को उसके झरने के दर्द में पूरी तरह डुबोते हुए ताकि उसके दर्द को मैं पूरी तरह से अनुभव कर सकूं। उसके पास गया। और अपने हाथ की सख्त हथेलियों को, उसके गुदगुदाते कंधे पर जो एक अरसे से उसकी सामान्य से थोड़ी मोटी छाती को संभालने वाली ब्रा की स्ट्रिप के बोझ तले रहते आए थे, पर रखकर उससे बोला, “मुझे तुमसे मिले हुए। भले ही ज्यादा वक्त नहीं हुआ हैं।…..पर तुम ऐसे रोओगी तो मुझे बुरा लगेगा, प्लीज चुप हो जाओ, अगर तुम कहोगी तो मैं तुम्हें पूरे दिन हँसाने के लिए जोक सुना सकता हूँ। पर प्लीज रोओ मत”

उसने रोते-रोते बड़े भोलेपन से कहा था। “मत छेड़ो मुझे, मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ। और ना ही तुम्हारी बात पर रो रही हूँ। हर किसी की ज़िंदगी में कुछ और भी समस्याएं होती हैं।“

उसके इस जवाब के बाद, मैं उससे कुछ न कुछ कहता रहा। कि बताओ परेशानी क्या हैं।, अगर नहीं बताओगी तो समाधान कैसे निकलेगा, ऐसे रोने से कुछ बदल थोड़ी ना जाएगा। इस तरह से तुम सिर्फ खुद को तकलीफ दोगी। पर उसने मेरी एक बात भी नहीं सुनी, वो सुबक-सुबक कर पूरा दिन आँसू बहाती रही और काम करती रही थी। और दूसरी तरफ मैं उसकी बराबर में कुर्सी पर बैठा प्रवचन देने के अलावा, मन ही मन खुद को गाली देता रहा कि धिक्कार हैं। अमित तुझ पर, कि एक लड़की के तू आँसू नहीं पूछ पाया, आखिर, और क्या कर पाएगा तू अपनी ज़िंदगी में

जब हम किसी से नफरत करकर आँसू बहाते हैं। तो इसका मतलब हैं। हम किसी और से प्यार करकर मुस्कुराने की तैयारी कर रहे होते हैं। इसी से कुछ मिलता- जुलता उस शाम को हुआ था। पूरा दिन आँसू बहाने के बाद शाम को दुकान छोड़ने से आधा घण्टा पहले उसने, मुझे वो सब बताया जिस वजह से वो ये सब महसूस कर रही थी। उसकी जिंदगी की कहानी भी बड़ी अजीब थी।

जब वो 7th स्टैंडर्ड में थी। तब उसके पापा की हापुड़ मेरठ रोड पर एक्सीडेंट में डेथ हो गयी थी। लेकिन पुलिस इन्वेस्टिगेशन में पता चला कि एक्सीडेंट के पीछे उसके ताऊ का हाथ था। इसलिए ग्रेजुएशन तक वो कोट कचहरी के चक्कर काटती रही, अपनी माँ के साथ, लेकिन नौ साल बाद फैसला उसके ताऊ के पक्ष में आया था। उसके परिवार ने अपने दिन बड़ी मुश्किलों में काटें थे। सप्ताह में दो दिन कोट कचहरी के चक्कर, कोल्डड्रिंक की दुकान संभालना, ताऊ के परिवार द्वारा उन्हें तंग किया जाना, लेकिन इतनी मुश्किलों में भी उसने अपनी पोस्ट ग्रेजुएशन केमिस्ट्री से पूरी की और उसके बाद B.ed किया था।

ये सब बातें तो उसकी शादी से पहले घटित हुई थी। जिनके लिए आँसू बहा-बहा कर वो थक चुकी थी। इसलिए इनके बारे में तो वो ज्यादा सोचती भी नहीं थी। उस दिन वो जिस बात पर रो रही थी। वो उसकी शादी के बाद की ज़िन्दगी थी।

शादी प्यार भरा बंधन ना होकर उसके लिए पैरों की जंजीर और हाथों के बेड़िया बन गयी थी। वो शादी को अपनी ज़िंदगी का हादसा बताती थी। जिसने उसे पूरी तरह तोड़ दिया था। उसका मुझे बताया था। कि शादी से दो साल पहले, उसके एक भाई को खिलौनों की दुकान खोलनी थी। जिस वजह से उसकी माँ ने अपने भाई की पत्नी के जीजा से एक लाख रुपए उधार लिए थे। लेकिन उनका परिवार उन पैसों को चुका नहीं पाया था। और इसका कारण भाई की खिलौनों की दुकान में शॉर्ट सर्किट की वजह से आग लगना था। जिससे वो पूरी तौर पर बर्बाद हो गए थे। अब जब उधार लिए पैसों को चुकाने में दो साल से ऊपर हो गए। तो उन्होंने( कर्जा देने वाले) इनके सामने शर्त रख दी कि हम तुम लोगों से पैसे नहीं लेंगे। अगर तुम अपनी बड़ी लड़की की शादी हमारे लड़के से करदो। बस फिर क्या भारतीय माँ ने अपने लड़के के लिए हुए कर्ज़ को माफ कराने की खातिर, एक बार फिर अपनी लड़की कुर्बान कर दी।

उस दिन मुझे ये बातें बताकर वो तो अपनी शिफ्ट पूरी करकर घर चली गई थी। लेकिन मैं ये सोचता रहा था। कि अच्छी खासी ज़िन्दगी तो हैं। इसकी, फिर ये रो क्यों रही थी। ये कह-कहकर कि शादी से मैं परेशान हूँ। ठीक हैं। भले ही इसकी शादी एक तरह से व्यापार थी। जिसमें पैसों के लिए इसे बेचा गया था। पर पति तो इसका सही होगा ना, क्योंकि इसे देखकर लगता नहीं हैं। कि वो इस पर हाथ उठाता होगा। वैसे ऐसा भी हो सकता हैं। उस बंदे को इस से प्यार हो गया हो, और उसने चालबाज़ी करके इससे शादी कर ली क्योंकि अगर वो इसे प्रपोज़ करता तो शायद ये उसे रिजेक्ट कर देती। ऐसा कुछ डर बन्दे के मन में हो, अब कल तक का इंतज़ार करों पूछने के लिए, फोन भी तो नहीं कर सकता इस तरह की चीज़ें पूछने के लिए, कही ये ना कह दे तुझे क्या मतलब मेरी निजी जिंदगी से....


क्रमशः जारी रहेगी