जीवन के सप्त सोपान - 11 - अंतिम भाग बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जीवन के सप्त सोपान - 11 - अंतिम भाग

जीवन के सप्त सोपान 11

( सतशयी)

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अर्पण-

स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में

सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

आभार की धरोहर-

जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गायत्री शक्ति पीठ रोड़

गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)

मो.9981284867

मालिक तो बस एक है,भिक्षुख है संसार।

भिक्षुख से क्या माँगता,कर लें जरा बिचार।।

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सातवाँ- भक्ति साधन पथ-

गुरु कृपा,उपलब्धि जब, गुरु कृपा को मान।

विन आज्ञा के कभी भी,मिलै न सदगुरु ज्ञान।।

करो क्रियान्वित सदाँ ही,जो पावो सत संग।

सत्यापन नित प्रति करो,मन में लगै न जंग।।

भक्ति गुणों की वृद्धि जब,तब जीवन है धन्य।

मालिक की किरपा यही,सेवक बनै अनन्य।।

गुरु आज्ञा हो अमल में,बन जाओ इंसान।

कथनी करनी एक जब,तब पावौ निर्वाण।।

प्रेम करो गुरु चरणों में,समय न खोओ व्यर्थ।

रुहानी मारग चलो,यह जीवन का अर्थ है।।

सदां जलाती रही है, चिंता-चिता- समान।

चिंता तज गुरु चरण जा,सदगुरु है सूखखानि।।

सच्चे मन से जप करो,नियम,साधना,ध्यान।

गुरु वाणी को नित रटो,यही संत पहिचान।।

भक्ति मार्ग की सफलता, गुरु चरणों अनुराग।

गुरु मति को अपनाइए,मन गति का कर त्याग।।

पर निंदा करना बुरा, समझो अपने आप।

सुभ कर्मों का फल सभी,चला जाए उस पार।।

ह्रदय-दीप,सत तेल हो, प्रेम वाति को धार।

ज्योति अखण्डित जब जलै,मिटै अज्ञ-अंधियार।।

त्याग और बलिदान से,सदाँ सफलता पाव।

निज करनी-भरनी तुम्हें,व्यर्थ जगत मत घाव।।

बार-बार मन को लगा,गुरु चरणों की ओर।

भजनानन्दी होएगा,बात मान ले मोर।।

अब तक तो बीता समय,अब मत जाने देय।

स्वाँस-स्वाँस मालिक सुमिर,नइया और न खेय।।

मन के अशुभ बिचार पर.करो नियंत्रण आप।

गुरु प्रसाद बच जाओगे,लगै न कोई पाप।।

घर का कारोबार सब, कर पुत्रन- आधीन।

लग जा नाम अभ्यास में,गुरु बचनामृत चीन।।

स्वार्थ छिपा मन में रखें,वे संसारी जीव।

सदगुरु के उपकार की,कहीं न कोई सींव।।

सदगुरु के उपकार का, कहीं नहीं अपमान।

सदगुरु भक्ति महान है,गुरु चरणों धर ध्यान।।

सदगुरु का आदेश है, भोगों से रह दूर।

भजन करो निर्द्न्द हो,खोय न अपना नूर।।

इच्छा शक्ति प्रबल है,अति विशाल परिवार।

इच्छाओं को मार कर,गुरु का नाम पुकार।।

स्वाँस अमोलक है सखे,कदर करो यह जान।

घट-बढ़ स्वाँस न हो सके,गुरु शब्द पहिचान।।

शिर मारे मालिक मिलें,तो भी सस्ता जान।

झूँठी तो झूँठी रहे, सच्ची नहीं- सुजान।।

मन के भाते जो चले,तज गुरु मत अभ्यास।

कर्म फलों में बंध रहे,तज मुक्ति की आस।।

मानव के कल्याण का,सदगुरु देते ग्यान।

आत्मा के अभ्यास से,पावै पद निर्वाण।।

बुरा न सोचो किसी का,बुरा करो नहिं कोय।

बुरे वचन बोलो नहीं,तप सा ही फल होय।।

औरों का सुख देखकर,दुखी न होवौ मीत।

अपनी उन्नति में लगों,होगी निश्चय जीत।।

भेद न रहता कोई भी,सदगुरु सेवक बीच।

रुहानी माता पिता,सदगुरु बगिया सींच।।

मैं,मेरा भ्रम जाल है,दुःख ही दुख चहुँ ओर।

सुख है शब्दाभ्यास में,मैं,मेरी दे छोर।।

इस झूँठे संसार को, सच मानें जो लोग।

आज नहीं तो कल सही,भोगेंगे कलि भोग।।

रुहानी सदगुरु सदाँ, सच्चे हैं- दरबार।

लक्ष्य प्राप्ति की ओर चल,पाऐगा सरकार।।

ईश्वर की माया प्रबल,नहिं पाओगे अंत।

तज उसके परपंच को,मुक्ति खोजत संत।।

जो प्रभु को नहीं सौंपते,सच्चे मन का प्यार।

समय गवाँते हैं- सदाँ, करते अत्याचार।।

ऐसी चाल न चलिए,मालिक से निभ जाय।

मालिक के शरणें रहो,आतम सुख पा जाय।।

मन,ह्रदय में जब तलक,घृणा करै निवास।

घृणा में घृणा मिलै,कहाँ प्रेम का वास।।

गुरु का मारग कठिन है,ज्यौं खाँड़े की धार।

चल कर तो देखो जरा,फूल भरा है प्यार।।

कभी अकारण जो लड़ै,गुरु परीक्षा जान।

धैर्य न खोना कभी भी,गुरु रुप पहिचान।।

सब देवों के देव है, श्री सदगुरु महाराज।

उनकी शरणहि चला जा,कहाँ भटकता आज।।

होना चाहे राम का, कर विषयन से हेत।

अम्रत फल को चाहते,वो कर विष के खेत।।

फल की इच्छा त्यागकर,कर निज कर्म सुजान।

श्री गुरु के भण्डार की, अनुपम- चाबी मान।।

ये संसारी जीव है, क्या आश्रय दातार।

मालिक का ले आसरा,निर्भय पद ले पार।।

सब श्रंगार विहीन है,जो मन शुद्धि हीन।

उसको छूना पाप है,शव सी नीच मलीन।।

अपने कर्म, विचार से, फल पाते है लोग।

है प्रधान सबसे कर्म,सुभल करम शुभ योग।।

पर उपदेशक बहु मिलै,खुद आचरण विहीन।

क्या प्रभाव पड़ सकेगा,करो समय क्यों क्षीण।।

मेरी-मेरी, सब कहै, कहते आए -लोग।

और कहैंगे सदाँ ही,भोगत अपने भोग।।

जिन्हें जुहारैं झुक रहीं,मिट गय नाम निशान।

है अस्थायी सभी कुछ,भजले गुरु का नाम।।

काया में जिसकी सुरति,है रोगी अज्ञान।

काया को नश्वर रही,अमर आत्मा मान।।

यदि भटके कहीं सत्य से,बहुत पाओगे हानि।

जन्म-जन्म की साधना,सब मृतिकावत मान।।

प्रेम और श्रद्धा रखो,अपने मन के बाच।

मालिक की यह वाटिका,चौबीस घंटे सींच।।

पर अवगुण जो देखता,उसे कहाँ है चैन।

समय गवाँता व्यर्थ है,पग-पग,सौ-सौ ढेन।।

मन को गहरा डुबो दो,नाम रसों के बीच।

अपनें आपहिं मिटैगी,विषय रसों की कीच।।

मन -वृत्ती के मार्ग का, सदाँ निरीक्षण होय।

भक्ति मार्ग का है नियम,व्यर्थ समय जिन खोय।।

मन से गुरु दरबार की,जो करता है सेब।

धन्य-धन्य है धन्य बह,सदगति नइया खेब।।

गुरु सेवा में रम रहो,तज जग के व्यापार।

ऐसी लगन लगाइए,नशा न उतरे यार।।

नाम औषधि खाइए,सभी दुःखों का नाश।

जीवन सुख का भोर है,काटे जमके पाश।।

कुछ माया मालिक बने,कुछ माया के दास।

सदगुरु सेवा श्रेष्ठ है,तज दे सब अभिलाष।।

ज्ञान प्रकाशह ग्रहण कर,चाहे गृह चाँडाल।

अति पावन गुरु रत्न हैं,सब मालों का माल।।

भक्ति मार्ग यदि पग रखा,पीछे हटो न मीत।

दृढ़ निश्चय मन में रखो,होऐगी ही जीत।।

रुहानी- उन्नति नहीं, ब्रह्मचर्य वृत- हीन।

आत्मिक उन्नति उसी की,जो यह पालन कीन।।

नेकी कर भूलो उसे, पाओगे चित चैन।

बुरा न सोचो कभी भी,ये सदगुरु की बैन।।

व्यर्थ गवाँते समय जो,बहिर्मुखी की छाप।

जैसे मकड़ी जाल बुन,कैस जाती है आप।।

कुछ क्षण में कह देत है,बहुर्मुखी सौ बात।

अन्तर्मुखी न कह सके,एक वर्ष के जात।।

परमारथ के मार्ग से, ऊँचा आसन पाय।

स्वारथ पथ के चलते ही,नीचे को ही जाय।।

गुरु कृपा जो चाहता,कर आलस का त्याग।

हर क्षण सेवा में रहो,हो जाओ बड़ भाग।।

सेवक की पहिचान है,पावन निष्ठा वान।

उत्साही मन,धैर्यता,उत्तम चिंतन ज्ञान।।

पुरुषार्थ में सब छिपा,साहस,शौर्य,विवेक।

सभी न इसको त्यागिए,पावन मार्ग एक।।

लगन गुरु चरणों लगै,जब तज के सब फंद।

गूँगे के, गुड़- सा सदाँ, मिलता है आनंद।।

मौज आपकी से चलूँ,वह शक्ति दो नाथ।

मैं अज्ञानी जीव हूँ,ले-लो अपने साथ।।

मन शत्रू ने बहुत ही, करवाए अपराध।

बरजोरी उसकी रही,सब व्याधों की व्याध।।

दो आँसू तो डाल दे,बैठ किसी एकान्त।

गुरु अखण्ड दाता रहे,कर देते सब शान्त।।

भक्ति धन ही जानले,सभी धनों से श्रेष्ठ।

इसे जोड़ते ही रहो,जग की माया नेष्ठ।।

संत चरित और निज चरित,कितना अन्तर बीच।

गुरु चरणों- विश्वास कर, देगें अमरत सींच।।

सुख जंजालों में उलझ, हुआ आपसे दूर।

मुँह उनसे मुंड़ जाय यह,कृपा करो भरपूर।।

प्रभु नजारों की झलक,यदि मिलती हो तोय।

गुप्त रखो जितना उन्हें, उतना लाभ संजोय।।

अविनाशी को भूलकर,नाशवान से प्रीति।

बैठा घर अज्ञान के,कभी न होगी जीत।।

ऋद्धि,सिद्धि और कुछ,इन्हे दीजिए नाथ।

जो निशि-दिन माँगत रहे,तब पद नाऊँ माथ।।

बार-बार आरत विनय,चाहत कृपा कोर।

मन चिंतन चलता रहे,सन्मारग की ओर।।

को कसकें पकरै बता,तूँ या माया तोय।

ओ अज्ञानी तोतरी,फिर क्यों टैं-टैं होय।।

जीवन भर देना पड़े,कठिन परीक्षा तोय।

जब तक साथ शरीरर है,ऐ सब कुछ होय।।

माया के ये बबंडर,घेर खड़े चहुँ ओर।

ह्रदय ज्योति मेंटन चहैं,करो सुरक्षा मोर।।

उपकारों का ऋणी हूँ, हैं उपकारी- आप।

अधम जीव कब कर सका,गुरु दया की माप।।

गुरु राह जब चलेगा,सब हों तेरे साथ।

कोई बाधक जग नहीं,सब कुछ तेरे हाथ।।

तन,मन,माया जाल से,करो मुझे आजाद।

मौज आपकी चाहता,ब्रह्मनाद हो नाँद।।

हो निर्बल तन भले ही,रंग रुप से हीन।

पर तेरी अनुपम कृपा,जग से करै नवीन।।

सच्चा सेवक वह नहीं,बहिर्मुखी जेहि जाप।

अमली होकर जगत में,बनजा अपनी छाप।।

कितना सहते कष्ट हो,जग के झूँठे कार्य।

अब भी मनुँआ सोच ले,ले सदगुरु आधार।।

उदासीन होते दिखे,कभी-कभी दुःख देख।

पूर्ण समर्पण है नहीं,निर्बल चिंतन लेख।।

वहा रहे आँसू सदाँ, संसारी जन हेतु।

दो आँसू उसको बहा,जो सच जीवन सेतु।।

भक्ति हेतु जिनने भखे,कष्टों के अंगार।

अंग,संग उनको सदाँ,मालिक का है प्यार।।

सत सेवक पहिचान है,जो सदगुरु आधीन।

अपने पन को त्याग कर,रहे सेवा लवलीन।।

श्री सतगुरु सी जगत में,औरन गहरी छाँव।

गहले गहरे मूल को,चूक न अपना दाँव।।

मन,इन्द्रिरियाँ खींचतीं बरजोरी कर मोय।

कौई न दौरत बचाने,आप बचा लो मोय।।

ना जाने, कैसा, कहाँ, पावै कष्ट अनेक।

कठिन पंथ गुरु आधना,फिर भी चलो हमेश।।

दुःख आए सुमिरत प्रभूहि,सुख पाय सब भूल।

इससे अच्छा तो यही, गहो- सुमिरणी मूल।।

कर्म करो परमार्थ हित,बन जाता वह धर्म।

स्वारथ वस जो कुछ किया,कहते उसे अधर्म।।

माया की ममता कभी,बुझा न पाती प्यास।

तृप्ति है बस नाम में,करो नाम अभ्यास।।

ईश भक्ति जिससे बढ़े, उचित वहीं है कार्य।

मोह,अहं की वृद्धि जहाँ,समझो वही अकार्य।।

पूँजी है सब प्रभू की,मेरा कुछ है नांम।

मैं तो हूँ बस डांकिया,बाँट सुखी हे जांय।।

बीता समय न आसके,कभी कियी के हाथ।

वर्तमान से जुड़े अधिन,चल दें उसके साथ।।

बीते को पछताओ मत, वर्तमान को, साध।

सदगुरु की जा शरण में,मिट गै सकल व्याधि।।

अहिंसा,सत्य,अस्तेय,अरु ब्रह्मचर्य को जान।

अपरिग्रह के साथ में,यम का भाव विधान।।

तप,स्वाध्याय,संतोष संग,शौच और प्रणिधान।

इनका संयोजन जहाँ,मानो नियम प्रमाण।।

सद-खण्डी- सोपान के,सप्त अंग लो साध।

उत्तम फल पा जाओगे,मिटैं सकल भव व्याधि।।

और कई उप साधना,इसमें पाओ मीत।

जीवन फल पा जाओगे,नहीं होगे भव भीत।।

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वेदराम प्रजापति मनमस्त

गुप्ता पुरा डबरा(ग्वा. म.प्र.)