जीवन के सप्त सोपान - 5 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जीवन के सप्त सोपान - 5

जीवन के सप्त सोपान 5

( सतशयी)

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अर्पण-

स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में

सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

आभार की धरोहर-

जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गायत्री शक्ति पीठ रोड़

गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)

मो.9981284867

तृतीय- विमुक्त पथ-

जीव जगत में आनकर,करले हरि का गान।

सभी तरफ से हट करो,मालिक से पहचान।।

दुःख औषधी गुरु शब्द है,करले निज उपचार।

सुरति बने निर्मल जभी,सुखमय हो संसार।।

मोह आदि त्यागे बिना,परमात्मा मिल जाए।

ऐसा जो चाहे जो कोई,क्या उसको कहाँ जाए।।

प्रभु से जो चाहो मिलन,कर तो सच्चा प्रेम।

वो रीझे है उशी से, जिसके निर्मल नेम।।

सांसारिक दुःख देखकर,प्रभु जन नहीं घबराए।

शांन्ति और धीरज धरै,भगवन के गुण गाए।।

आए है किस वास्ते,कभी दिया क्या ध्यान।

प्रभु के दर पर जाए के,क्या दोगें पहिचान।।

अपने प्रेमी का सदा ,प्रभु रखते ख्याल।

निज की वानि न त्यागते,रहते सदां निहाल।।

प्रभु की इच्छा में सदा,अपनी इछ्छा जोड़।

नहीं चलाओ स्वयं की,सभी उसी पर छोड़।।

गुरु मुख हो,मिल जाएगा,सब तीर्थ का लाभ।

फिर भटकावा काए का,सुमिरो गहरे चाव।।

नेति-नेति सबने कहा,गुरु का गुणानुवाद।

गुरु चरणों की रज चखो,जिसका गहरा स्वाद।।

गुरु नाम जो जपत है,नाम जाप सिर मौर।

चिंता गम उसको कहाँ,को गुरु सा है और।।

यदि सदगुरु के ध्यान में,मन डूबे भरपूर।

श्रेष्ठ खजाना पा गए,गुरु कृपा का नूर।।

सदगुरु के दरबार में, नहिं कोई अंधेर।

समय पाए सब होत है,हो सकती है देर।।

जो कुछ भी तुझको मिला,सब मालिक की दैन।

अपना कुछ समझो नहीं,है इसमें सुख-चैन।।

दुःख निशा के जात ही,सुख का होता भौर।

इक दूजे सहचर सगे,क्यों करता है शोर।।

कुम्भकार गुरु रुप है,प्रेम ताड़ना बीच।

अंदर से दे सहारा,तड़-तड़ बाहर पीट।।

सभी समय सब ठौर पर,जब प्रभु तेरे साथ।

क्यों घबड़ाता जीव तूँ,गहि चल प्रभु का हाथ।।

टेढ़ी-मेढ़ी रास्ता, गुरु उपवन की जान।

बिरले ही पहुचें वहाँ,सास्वत सत्य प्रमाण।।

गुरु की भक्ति कठिन है,यह भी बात ,प्रमाण।

चौरासी के कष्ट से,कर तुलना अग्यान।।

ईषर्या बड़ बीमारी है,कैंसर,टी.वी. छोटि।

बिना त्याग सुख है नहीम,कर ले सब कुछ नोट।।

अधिक बोलना ठीक नहिं,कम बोलन है ठीक।

गहरे बनते,अधिक सुन,यह सत-पंथी लीक।।

गुरु आज्ञा पालन किए,मिलती उसकी मौज।

अपना कर्तव्य कीजिए,शांत साधना रोज।

खाकसार मारग उचित,जलते संत अनंत।

चाकर वन सुख शार का,इससा और ना पंथ।।

संसय भ्रम जहाँ पर मिटैं,गुरु मौज पहिचान।

कीट,भ्रंग जानै नहिं,करले आप समान।।

वैद्ध दे औषधि, मगर, रोगी करै प्रयोग।

यही भाव गुरु भक्त का,मिट जाते सब रोग।।

है असार,मन भक्ति पथ,गुरु भक्ति पथ सार।

गुरु मति रतन्न साजिए,मन गति रतन असार।।

मन पर रहै नियंत्रण,नित्य प्रार्थना ध्यान।

आश्रय ले गुरुदेव का,चलते पंथ सुजान।।

सत्पत जिसने गह लिया,वहीं बड़ा बड़ भाग।

देख दृश्य प्रहलाद का,जला न पाई आग।।

दीन देखता ज्यों जगत, उसे न देखे कोय।

सिध्द बना,पा रतन यह,जाग न जीवन खोए।।

प्रेम,नीति,युक्ति,विनय,श्री आज्ञा के साथ।

भक्ति पथ,पंचम रतन,सुफल यात्रा जात।।

जो सदगुरु के ध्यान को भूले नहीं क्षण एक।

आदि अंत उसका नहीं, ऐसे सुख को लेख।।

माया जाल से बच सके,सदगुरु शब्द की ओट।

जीवन सार्थक होएगे,कर मन-कागज नोट।।

मालिक से मिलना चहो,कर प्यारो से प्यार।

उनके मत अनुसार ही,प्रभु दर्शन का सार।।

लाख करोड़ों में कहीं,होता बिरला कोए।

मालिक से बातें करै,इक पल दूर न होए।।

घृणा,घृणा से मिलै, प्रेम, प्रेम से पाव।

क्रोध तजे सुख ऊपझे,जीवन अमृत भाव।।

प्रभु नाम के जाप बिन,नहीं होगा निस्तार।

सच्चा ज्ञानी है वही,जिसको गुरु से प्यार।।

सदगुरु रस चाहो पिवन,कर विषयों का त्याग।

एक जगह कब रह सके,रवि-रजनी,मन जाग।।

प्रभु को जो भजना चहो,हल्का भोजन पाव।

वह भी सदगुण पूर्ण हो,गुरु शरण में जाव।।

गुरु मुख जब हो जाओगे,नहीं कष्ट आभास।

वो मालिक है सभी का,रहता सब के पास।।

सदगुरु नाम अधार जप,अहंकार निर्मूल।

सुरति गुरु से जोड़ ले,मत कर कोई भूल।।

करो गुरु से याचना,सत संगति दे साथ।

शरण उन्हीं होउ जब,पकरि उबारै हाथ।।

विषय विकारों से विरति,पाओ आतम ज्ञान।

सुख अनुभूति पाओगे,तज सारे अभिमान।।

सुरति शब्द में जब जुड़े,लखो अलौकिक खेल।

अन्तरमन हो जागृति,कर सतगुरु संग शैल।।

सदगुरु की सेवा विना,सभी अखारथ जान।

बारि लगे मथने सभी,क्या घृत मिले सुजान।।

जो वर्षों में नहीं हुए, क्षण में होते जान।

मालिक की जब हो कृपा,अब भी कर पहिचान।।

प्रश्न,परीक्षा के समय,दुःख सुख के आलेख।

धैर्य और विश्वास में,परिणामों को देख।।

चिंता के बादल घिरै,जब मानष के बीच।

सद शास्त्रों मनन कर,गुरु पद में मन खींच।।

है अगम्य,संसय परे,प्रभु का अगम विधान।

इस पर करो न तर्क कुछ,उसकी मौज प्रधान।।

कितना समझाया तुझे,प्रभु ने बारंमबार।

फिर भी माया मोह में,दौड़ा है हर बार।।

तूँ दौड़े माया तरफ,प्रभु खींचे निज ओर।

कृपा दृष्टि कितनी बड़ी,जिसका ओर न छोर।।

कितने उद्बोदन प्रभु,निशि दिन देते तोय।

तूँ बहरा इतना हुआ,सुनै न,रहता सोय।।

जो मानी,नहिं जा सकी,प्रभु सूक्ष्म दरबार।

निर मानी होना पड़े,तब पाएगा पार।।

जल,थल,नभ संसार में व्यापक हो सब ओर।

तुम्हें छोड़ जाऊँ कहाँ,और कौन है मोर।।

सोना तप होता खरा,ज्यों सुनार के ताप।

मेरे खोट निकालने,तुम माई और बाप।।

सभी झकोरे जगत के,है अस्थिर,पहिचान।

दिखै आज,वे कल नहीं,सेवक धर्म प्रमाण।।

सतमारग देते दिखा,वचन देत अनमोल।

भक्ति पथ पंथी बनों,अमल रहो एहि खोल।।

बुध्दि,वृध्दि,आत्मिक प्रगति,मौन साधना जान।

प्रतिदिन कुछ घंटों करो,मन गुरु मणिका तान।।

भक्ति भावना बान की,मानों मन से सीख।

सतपथ का मारग यही,सबसे मारग ठीक।।

नीति युक्ति से नित चलो,कठिन,सरल हो जाए।

कथनी करनी एक जब,निश्चय सद गति पाए।।

ग्रहस्थ पंथ उत्तम कहा,पग-पग हो कुर्बान।

पुण्य लाभ दोनों मिलै,इस पर चलो सुजान।।

ध्यान,सुमिरणी,आरती,पूजा और सत्संग।

नियम पूर्वक जो करे,वे नहाते नित गंग।।

मन,माया से विजय तब,जब मन मुख हो जाए।

निज बल की सामर्थ्य नहिं,यह सब गुरु बल पाए।।

अमित खजाना तब उदर,ढाँके माया पाट।

गुरु शब्द अभ्यास से,खुलते सभी कपाट।।

पंथ प्रदर्शक श्रेष्ठ जन,परामर्श जो दें।

उनको ही सदगुरु समझ,उत्तम पथ के श्रेय।।

निश्चय सुनते वे सदाँ,एकांन्ति तब बात।

दृढ़ निश्चय से पाओगे,गुरु पावन साथ।।

हाड़ माँस पुतला नहिं,केवल निज को जान।

तुम अविनाशी शक्ति हो,अपने को पहिचान।।

सब आशाएँ त्याग कर,कर गुरु पर विश्वास।

अवश्य लाज तेरीं रखै,गुरु शरण कर वास।।

दूजों के अवगुण लखत,जो मन में हर्षाएँ।

अवगुण सबसे यह बड़ा,दोषाँकन कहलाएँ।।

दृष्टि दोष जिसको लगे,वस्तु दृष्टिवत होए।

दृष्टि के अनुकूल ही,जग को देखै सोए।।

मन निर्मल जब हो गया,कहीं न मल का वास।

सारे जग में पाएगा,सुंदर वास-सुवास।।

सुफल समय जो चाहते,करो गुरु का ध्यान।

सुबह शाम,हर क्षण सदाँ,करो गुरु गुणगान।।

घरीं-घरीं पर ही तेरा,प्रभु रखते है ध्यान।

कुछ तो उनको याद कर,रे मन !क्यों अज्ञान।।

जिसमें आत्मिक शक्ति हो,नहीं निबल,वह वीर।

सांसारिक झकझौले भी,कभी न देते पीर।।