जीवन के सप्त सोपान 3
( सतशयी)
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अर्पण-
स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में
सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
आभार की धरोहर-
जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)
मो.9981284867
जीवन के मधुरत्व को,पाने कर गुरु ध्यान।
उन चरणों में मिलै सब,शाँती अमृत पान।।
तुम मालिक की मौज के,कितने हो अनुकूल।
सोचो तो पहले जरा, फैर सुधारो भूल।।
समय न खोना व्यर्थ में,करके बाद-बिवाद।
प्रभू का चितंन कीजिए,जो जीवन का आदि।।
सावधान होकर सदाँ, आसन लेऊ सुजान।
भृकुटि मध्य मन को लगा,यही साधना ध्यान।।
बाल पढ़ै जिम ध्यान दे,निकट परीक्षा जान।
वैसे ही सेवक सदाँ,गुरु का करते ध्यान।।
प्रभू प्सादज को समझकर,जो कुछ खाओ मीत।
क्रोध और चिंता भुला,अमृत स्वाद प्रतीत।।
मन को शुध्द बनाइए,गुरु सुमिरण के हेत।
असन-बसन,भोजन शयन,सभी सात्विक वेश।।
सुमिरण कर एंकात हो,मिटै श्रृष्टि दुख जान।
अदम शक्ति पा जाओगे,गुरु आज्ञा को मान।।
ध्यान साधना में सदा,तन को रखो बिठार।
बार-बार अभ्यास से,मन हो स्थिर हार।।
बुरी दृष्टि मत डालिए,बुरे न बोलो बैन।
गुरु प्रसाद से ही सदा,पाओगे सुख चैन।।
जैसे तन की स्वस्थ्यता,अन्य वसन आधीन।
आत्मिक शुध्दी के लिए,मन कर शुध्द नवीन।।
तेरी ही मर्जी रहे, सुख और दुख के बीच।
यही भाव लेकर चलो,मन को हरि गुण सीच।।
गुरु सरुप में रम रहो,ज्यौं जल माँजे मीन।
बिलग न होती है कभी,होत प्राण तज दीन।।
पर निंदा जो करत है, वह संसारी जीव।
जप नहीं सकता प्रभू को,पापों की नहीं सीव।।
केवल शुभ कर्तव्य से ,नहीं जीव उध्दार।
सद्गुरु को सुमिरण कीए,पाप होए सब छार।।
नाम सुमिरनी श्रैष्ठ है,मूल सीच ज्यौं नीर।
शेष करम ऐसे लगे,सींचन पात शरीर।।
जीवन के आरंभ से, जो सतसंगी जीव।
महामंत्र सा मान ले,सुख की कोई न सीव।।
मित भोजी,मितशयन ले,मित वाणी,मितराग।
भजना-नंदी होएगा, वही जीव- बड़बाग।।
स्वाँस सुमिरणी साध कर,गुरु आज्ञा आधार।
रोक न कोई सकेगा,निश्चय बेड़ा पार।।
ज्यौं शरीर बिन आत्मा,बिन ज्योति के नैन।
कभी नहीं मिल पाएगा,बिन रुहानियत चैन।।
प्रभू तुझ से खेलै कभी,आँख मिचोनी खेल।
तो घबराना मत सजन,होने को है मेल।।
गुरु का सुमिरण प्रथम कर,फिर जीवन के कार्य।
चरणों में शिर धारकर, पत्र, पुष्प, उपहार।।
व्यर्थ न खोना समय को,धर मालिक ध्यान।
जिनसे ना सम्बन्ध हो,सुनो न उनकी कान।।
कठिन न कुछ भी है जगत,जो गुरु के आधीन।
कर सकता क्या वह नहीं,गुरु ध्यान जो लीन।।
बाधाओ को देखकर,कर्म हीन जो होए।
कभी न उन्नति कर सके,जीवन भर वह रोए।।
समय न रोके रुका है,यही नियति की रीति।
इक पल समय न खोईए,गुरु चरणों कर प्रीति।।
आश्रय ले सदगुरु कृपा,जुटे रहो दिन रात।
निश्चय शक्ति आयगी,पाओगे शुभ प्रात।।
मान और अपमान का,मन में यदि लवलेश।
सच्चे सेवक हो नहीं,अपने आपहि लेख।।
सेवक वृत्ति स्वामी पद,जब होवै तल्लीन।
यह सब कुछ शुरुआत है,गुरु मुख होना चीन।।
नाते सब संसार के, है सपनों सा खेल।
सुख की आशा मत करो,जो कुछ होता झेल।।
कई पुण्यों के फलों को,एक भूल खा जाए।
मालिक को विसरति जभी,हर क्षण गोता खाए।।
कहाँ सुखी हो पाएगा,जेब धरै अंगार।
जीवन भर ठौता वहीं,अज्ञानों सा भार।।
खुद को देखन देत ना,अहंकार का तूल।
फैक उसे,हो जा खड़ा,क्यों करता है भूल।।
जब सौपेगा खुदी को,प्रभू आएगे पास।
बिना चुकाए मूल्य के,करै वस्तु की आस।।
मृत्यू राह गति तेज है,धीमी जीवन चाल।
जान पाएगा गुरु शरण,जाकरके सब हार।।
गुरु ध्यान धर सोईए,गुरु रहैगे पास।
जागेगा गुरु सामने,कर पूरा विश्वास।।
सब पूजीं एकत्र कर,ऱख एकांत निवास।
अवलोकन खुद का करो,लेकर गुरु की आस।।
श्री गुरु के दरबार में, छोटा होना सीख।
बड़े बने जो आज तक,माँग रहे जग भीक।।
अंदर घुन कैसा लगा,कभी करी पहिचान।
कितै खोखले हो गए,अब भी जैत सुजान।
मन रुपी शत्रु विकट, करता है हैरान।
हो सचेत चलना तुम्हें,करके गुरु गुणगान।।
परमेश्वर से भी अधिक,शक्तिमान है कौन।
फिर घटिया क्यों सोचता,सब कुछ कर हो मौन।।
सावधान होकर रहो,जीवन पथ को बीच।
चुपके-चुपके घेरती,विविध वासना नीच।।
अंग संग रहते सदा,श्री सदगुरु महाराज।
वे तो ब्रह्म स्वरुप है,मन भटके केहि काज।।
जो तूँ पाया नाम धन,रखना उसे संभाल।
वह अविनाशी,अखुट है,गुरु प्रसाद का माल।।
तुम दाता मैं मंगता,मेरा रखना ख्याल।
सुमति भावना से मुझे,कर दो मालामाल।।
नाम चाहते जो जगत,तजो काम,है नीच।
दो तलवारै कब रही,एक म्यान के बीच।।
रावण के कुल नाश का,रहा काम का काम।
सतपथ के परताप से,रहा विभीषण नाम।।
शुध्द करो अंतःकरण,प्रभू प्राप्ति के हेतु।
निर्विकार प्रभू कब रहै,ह्रदय विकारी चेत।।
काम,क्रोध,बंधन बंधा,भक्ति मार्ग कब पाए।
इन्हैं त्याग सकता तभी,जब गुरु शरणें जाए।।
बहिर्मुखी तब है , नहीं पावैं गुरु दर्श।
प्रभु का अन्तर्मुखी हो,कर जीवन उत्कर्ष।।
पथ प्रविष्ट हो संत मत,तज प्रमाद और बाद।
गुरु सेवा तत्पर रहो,पाओ अनहद नाँद।।
मुँख नहीं मौड़ो सत्य से,है संसार असार।
गहरे करलो आज भी,मालिक से व्यवहार।।
सद्गुरु रक्षक है सदाँ,शुभ कर्मों के साथ।
कर्मों के आधीन है,गुरु कृपा का हाथ।।
सदगुरु से जो चाहते, नाम रुप आधार।
तन-मन-धन-अर्पण करो,गुरु चरणों उपहार।।
तन-मन-धन अर्पण तेरा,झूठी माया हेत।
प्रभु को अर्पण कर सभी,होजा जरा सचेत।।
जो चाहे अमरत्व तो,करले शब्दाभ्यास।
बिना गुरु के ज्ञान के,झूठी तेरी आस।।
तूँ तो दाता है नहीं, दाता कोई और।
जब तेरा कुछ भी नहीं,कापैं बाँधें मौर।।
जो तेरा चिंतन मनन,जानत है सब ईश।
क्यों नहीं चलता संभलके,व्यर्थ निपोरै खीस।।
वर्तमान जिसका रहा, पावन और पवित्र।
भूत भविष्यत जान लो,है उसका यह चित्र।।
गुरु वाणी रख चित्त में,गुरु की महिमा जान।
धोका कभी न खाएगा,वेद,संत मत मान।।
मन इन्द्रिय इकरथ चढ़े,गुरु शब्द की तान।
इसी नियंत्रण से चले,पावै पद निर्वान।।