जीवन के सप्त सोपान
( सतशयी)
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अर्पण-
स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में
सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
आभार की धरोहर-
जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।
वेदराम प्रजापति मनमस्त
गायत्री शक्ति पीठ रोड़
गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)
मो.9981284867
प्रथम-जीवन मार्ग-
संत वाणियाँ विमल है,अमल करै सुख होय।
जीवन -मुक्ति पाऐगा, कहाँ रहा है, सोय।।
बनै प्रमाणिक बात तब,जब सतगुरु मिल जाय।
धन्य-धन्य जीवन बनै,आत्म शान्ति को पाय।।
सहन शक्ति जगृत करो,सब दिन होय न नेक।
सुख- दुख में हो एकरस, यही वेद के लेख।।
जो जन ही प्रारंभ से,सत्संगति में जाँय।
जीवन सुख पाते वही,कभी न कष्ट उठाँय।।
मन सच्चे अभ्यास में,रमता जिसका होय।
संसारी आवागमन,उसे न व्यापे कोय।।
राग-द्वेश से दूर है,वे रुहानी संत।
दुनियाँ में रहते हुए,पावै दर्श अनंत।।
आत्मा पर जो चढ. गया,मोह आदि का मैल।
चिन्तन के अभ्यास से,होती निर्मल गैल।।
गल पाथर जिसके बधे,कैसे होवै पार।
नहीं कही सुख,पहनकर,षठ विकार का हार।।
सच्चे मन प्रभू नाम का,कर सुमिरन अभ्यास।
जग वंधन छूठै सभी,जीवन मुक्ती आश।।
ब्रह्म नाद सुन सकोगे,जब अंतर्मुख होय।
बाह्य जगत की ध्वनि में,व्यर्थ समय क्यों खोय।।
कठिन साधना है सजन,आत्म शक्ति के हेत।
असन-वसन,भोजन-शयन,त्याग,चेतना चेत।।
सच्चे गुरु जब ही मिलै,आत्म पावन होय ।
अहंकार,मद,मोह को,मन से देबै खोय।।
कर्ता मत खुद को समझ,कर्ता प्रभु को जान।
ईश निमित्तिक कर्म कर,बन अपनी पहिचान।।
जप,तप,तीर्थ बिन गुरु,अहं भाव उपजाय।
मोक्ष गुरु का मंत्र है,घर बैठे ही पाय।।
दुर्लभ तन को पाय कर,सद्गुरु का नहीं ध्यान।
यतन करोड़ो व्यर्थ है,ज्ञानी भी अज्ञान।।
करो प्रेम व्यवहार नित,जीवन है,दिन चार।
हिलमिल समय बिताईए,यही जगत व्यवहार।।
प्रबल शत्रू है जीव के,मन के विषय अनेक।
गुरु मुख हो,सद्गुरु कृपा,पाते विजय हमेश।।
अहंकार, मद, मोह के, होते नित संगीत।
सद्गुरु शब्द समाहरिय,विजय पाओगे मीत।।
नहीं सताओ किसी को,सबके ह्रदय ईश।
करो सदा भगवद भक्ति,यह सद्गुरु की सीख।।
बिन गुरु शरणे को तरा,राम कृष्ण गुरु कीन।
श्रेष्ठ वही बनता सदां,जिन गुरु शरणै लीन।।
जो गुरु की निंदा करै,सुन निंदा हरषाय।
नीच यौनियों में वही,जीव भटकता जाए।।
जिसने इस संसार को,माना स्वपन समान।
सुख की घड़ियाँ जिएगा,मालिक को पहिचान।।
जो मालिक को छोड़कर,भटक रहा ऐही लोक।
उसके जीवन में सदां, रहे शोक ही शोक।।
गुरु की वाणी अतुल है,तौल सका नहिं कोय।
जो चाहे तौलन उसे, मुर्ख कहै सब कोय।।
संतो का व्यवहार है,सुनै न ओछी बात।
समझ सोच चलते सदां,गुण-गण-प्रभू के गात।।
एक चित्त होकर रहो,प्रभू चिंतन में ध्यान।
अपना सच्चा हितैषी,श्री सद्गुरु को मान।।
दुबिधाओ का त्याग कर,जो चाहे सुख शान्ति।
प्रभू चरणों का स्मरण,मिटा देए सब भ्रान्ति।।
पर निंदक से जान लो,भरा हुआ संसार।
सोच समझ चलना सखे,ले गुरुवर आधार।।
जब लायक हो जाओगे,स्वतः मिलै अधिकार।
पहले बनना योग्य है,गुरु के वचन विचार।।
काया,माया झूठ है,इसे न जानो साँच।
हीरों के धोखे कभी,नहीं खरीदों काँच।।
जो सुख से जीना चहो,तज दुनियाँ संग्राम।
जीवन रथ को सौंप दें,श्री गुरुवर के नाम।।
वह सुख तो,सुख है नहीं,गुरु से करै जो दूर।
गुरु निकट ले जाए जो,वह दुख भी गुरु नूर।।
नहीं दुखी देखे वे ही,जो भजते भगवान।
उसको जग कहता सदां,बहिर्मुखी पहिचान।।
भक्तिहीन और दुखी को,सद मारग से जोड़।
गुरु मुख का कर्तव्य है,दे चिंतन को मोड़।।
दृढ़ प्रतिज्ञा मन करो,गुरु पथ चलूँ हमेश।
अपनापन को मैट दे,रहै न कोई शेष।।
गुरु साधना में लगो,भूलों जग जंजाल।
नाम जाप कर सकौगेॽ अंत समय के काल।।
चौरासी के चक्र से,जो छुटकारा चाहि।
परमारथ पा जाएगा,गहि सद्गुरु की वाह।।
संसारी बह जीव है,जो जीता निज हेतु।
परमारथ जो चाहिता,ले सन्याशी सेतु।।
सत पथ पर चलते समय,यदि हो दुख से भैट।
चलते रहना सहनकर,दुनियाँ दारी मैंट।।
अच्छा बुरा न है कोई,सब मालिक का खेल।
गुरु की आज्ञा शीश धर,चले चलो सब झेल।।
मन माया के जाल से,जो हो जाता पार।
धुर-दरगाही सुरति में,उसका है विस्तार।।
मानव जीवन के लिए,करै याचना देव।
यही मुक्ति का मार्ग है,कर विवेक जग सेव।।
सच्ची लगन लगाईए,निश्चय गुरु मिल जाए।
गुरु के मिलते सुजन,सारे भ्रम मिट जाए।।
गुरु के ही दरबार की,है ताशीर सुजान।
सब विकार निर्मूल हो,जन्म सँवारों आन।।
हर पल यादों में प्रभू,वो सेवत है साँच।
गुरु रक्षा में नहिं मिले,यमदूतो की याँच।।
घूरा भी पुज जात है ले मंदिर का रुप।
मन मंदिर ज्योति जला,तन चेतन अनुरुप।।
गुरु की आज्ञा को सदां,प्रभु की आज्ञा मान।
दोनों एकहि रुप है,जीव लहे कल्याण।।
अदभुत शक्ति छिपी है,नाम सुमिरणि बीच।
नितप्रति ही अभ्यास कर,अमृत वाणी सीच।।
गुनहगार खुद को समझ,करले पश्चाताप।
आत्म निर्मल होएगी,यह सच्चा है जाप।।
हम आभारी प्रभू के,मानव दिया शरीर।
धन्यवाद पल-पल उसे,कभी न भूलो वीर।।
क्यों डरता संसार से,प्रभू से डरना सीख।
क्षण में राजा रंक हो,क्षण रंकण अभिषेक।।
नर है खानि गुनाह की,यदि चिंतन से दूर।
हर क्षण चिंतन रम रहो,क्यों खोते हो नूर।।
खुद का मूल्यांकन करो,गुरु के कितने पास।
ठिग पहुँचे कल्याण है,नहीं चौरासी बास।।
दीन बनो,प्रभू की शरण,जो चाहो कल्याण।
जगत विवादों को तजो,सत संतन पहिचान।।
मालिक के दरबार की,जो चाहत हो गैल।
सांसारिक संबध तज,मन कर सुध्द विमैल।।
भटकाता है जगत को,मन मानो महाभूत।
स्वाँस-स्वाँस जप में लगा,बन जाओ भवभूति।।
तजो उदासी चित की,कर सदगुरु विश्वास।
दुखो के त्राता वे ही,करि चल पूरी आश।।
ह्रदय में धारण करो,सहनशील गुरु रुप।
करत-करत अभ्यास के,हो जाओ तद रुप।।
भूँख,प्यास,चिन्ता तजो,चिंता प्रभू गुण ज्ञान।
सदा सादगी में रहो,सद्गुरु का धर ध्यान।।
शब्द मार्ग अति कठिन है,है फिसलन हर ठौर।
शब्द डोरि बाँधो सुरति,पा जाओगे छोर।।