जीवन के सप्त सोपान - 6 बेदराम प्रजापति "मनमस्त" द्वारा कविता में हिंदी पीडीएफ

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जीवन के सप्त सोपान - 6

जीवन के सप्त सोपान 6

( सतशयी)

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अर्पण-

स्नेह के अतुल्नीय स्वरुप,उभय अग्रजों के चरण कमलों में

सादर श्रद्धा पूर्वक अर्पण।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

आभार की धरोहर-

जीवन के सप्त सोपान(सतशयी)काव्य संकलन के सुमन भावों को,आपके चिंतन आँगन में बिखेरने के लिए,मेरा मन अधिकाधिक लालायत हो रहा है।आशा और विश्वास है कि आप इन भावों के संवेगों को अवश्य ही आशीर्वाद प्रदान करेंगे।इन्हीं जिज्ञाशाओं के साथ काव्य संकलन समर्पित है-सादर।

वेदराम प्रजापति मनमस्त

गायत्री शक्ति पीठ रोड़

गुप्ता पुरा(ग्वा.म.प्र.)

मो.9981284867

मैं-मेरी में जकड़ कर,बंधता है संसार।

कर देते निर-बंध गुरु,दे तो एक पुकार।।

कितनी कीनी साधना,प्रतिदिन रखो हिसाब।

उन्नति या अवनति हुई,यही जाप का भाव।।

अर्थ प्रार्थना का यही,प्रभु की मिल जाए मौज।

माँग हमारी कुछ नहीं,दर्श लाभ,शशि -दोज।।

गुरु महिमा की महत्ता,संत वेद नित गाए।

भव से तरने का यही,सुगम पंथ बतलाए।।

अन्तर्यामी है प्रभू,छुप नहिं सकते मीत।

सत्य सनातन है वे ही,सत्य की जीत।।

सारी पूजा त्याग कर,करले गुरु की सेव।

जिसनें यह सब कर लिया,चावै मेवा,सेव।।

सारी दौलत तुच्छ है,गुरु दौलत जो पाए।

दुख संसारी रतन है,गुरु रतनन सुख पाए।।

स्वाध्याय नित ही करो,कर सद ग्रन्थों पाठ।

आत्मा की उन्नति यही,ओ नर!उल्लू काठ।।

मन रंग जीना जान लो,मृत्यु का व्यापार।

मन को मारो,अमर हो,कहते वेद पुकार।।

क्षण सदगुरु संग मुक्ति है,क्षण दुर्जन संग मौत।

चेतोगे मन -मस्त कब, जीवन बीता भौत।।

यदि अभिलाषा तीव्र है,प्रेम-ज्वाल के साथ।

निश्चय ही यह जान लो,गुरु का होगा साथ।।

जो पातों को सींचता,त्यागन करके मूल।

फल उसको नहीं मिलेगा,है यह उसकी भूल।।

अन्तर चक्षु हों खुले,बह निज को पहिचान।

औरों के अवगुण कभी,बह नहीं लखे सुजान।।

बाह्म दृष्टि जिसकी रहे,देखे अवगुण और।

निज को नहीं सवाँरता,भटक रहे चहुँ ओर।।

बड़ा कठिन है समझना,को शत्रु,को मीत।

अन्दर में छुरियाँ चलैं,बाहर मीठी प्रीति।।

नाम,नीर,मन,बुध्दि को,जिन नहिं निर्मल कीन।

समय गवाना ही रहा ,महामंद, मतिहीन।।

यह तन निर्मल वस्त्र है,लगे न कोई दाग।

गुरु नाम के रंग से,खूब खेलजा फाग।।

सेवा सब ब्रह्माण्ड की,सदगुरु ब्रह्म स्वरुप।

ईश्वरीय वाणी वही,क्यों भटके भव-कूप।।

ऐसी संगति से बचों,जो गुरु विमुख करेय।

गुरु की दूरी से बड़ा,नर्क न दूजा कोय।।

धीरे-धीरे कीजिए,सब अवगुण का त्याग।

नाम शेष रह जाऐगा,पाओगे बड़ भाग।।

फूलौं की सुचि गंध को,ज्यौं पाता है भौंर।

कभी विजारा है इसे,कर लो अब-भी गौर।।

सुख का ही व्यापार है,उस मालिक के गाँव।

कभी,कहीं पर टिकी है,धूप-छाँव इक ठाँव।।

है तुमसे प्रतिकूल यदि,कोई जग व्यवहार।

नियति-नियम कहता यही,गुरु से दूर निहार।।

यदि मन में आशक्ति है,सदगुरु से कहीं और।

वह ह्रदय निर्मल नहीं,भटकावा का ठौर।।

अहंकार से क्षीणता,भक्ति भीव में आय।

इससे जब दूरी बनें,भक्ति भाव बढ़ जाय।।

पग-पग मालिक आश्रय,संभल-संभल चल मीत।

मान बड़ाई त्याग दे,निश्चय होगी जीत।।

कभी मिली है शान्ति क्याॽसांस्कारिक सुख बीच।

समय नष्ट क्यों कर रहे,मन प्रभु चरणों खींच।।

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चतुर्थ- देह जगत का ज्ञान-

जगत भ्रमण,गुरुजन कृपा,ग्यान मिला अनमोल।

मुक्त हस्त ऋषि बाँटते,गाँठ आपनी खोल।।

भूत जयी की सिध्दियाँ,योगी जब पा जाए।

भूत स्वभावी होंय तब,ऐश्वर्यवान कहाए।।

अणु से होए विशाल जब,लघु से दीर्घ कहाए।

सूक्ष्म रुप विचरण करै,अणिमा सिध्दि पाए।।

नगर,नाग,नग आदि बन,लें विशाल आकार।

महिमा सिध्दि यही है, योगी करै प्रचार।।

लघिमा सिध्दि पाएँ से, हल्के वजनी होए।

तृण समान बनकर सदाँ,भ्रमण करै जग सोए।।

प्राप्ति सिध्दि को पाए के,इच्छित वस्तु मंगाएँ।

जहाँ चाहे तहाँ प्राप्त कर,क्षण विलमब नहीं लाए।।

योगी पा प्राकाम्य को,करै कामना पूर्ण।

अवरोधक कोई नहीं,इच्छा हो परिपूर्ण।।

भूत,पदार्थ,प्राणियों,अपने वस में कीन।

हैं वसित्व में शक्ति अति,भौतिक सभी अधीन।।

गरिमा को पा योगी जन,सभी श्रेष्ठता पाए।

अपनी सिध्दि प्रसिध्दि में,सबसे आगे जाए।।

रचना,स्थिति, नाश भी, है ईशत्व अधीन।

योगी पा सामर्थ्य यह,यश गौरव को लीन।।

इन्द्रिय जय में योगी जन,संयम के अनुसार।

शक्ति ग्रहण करते सदाँ,पंच साधना द्वार।।

अन्वय,अस्मिता,अर्थ्वत्व,इन्द्रिय ग्रहण स्वरुप।

इन्द्रिय जय की पाँच विधि,योग,साधना रुप।।

कुण्डलिनी शक्ति गति,चार तरह की जान।

चीटीं ,मैढ़क, सर्पवत, अरु पक्षी अनुमान।।

मूलाधार,स्वाधिष्ठान ,मणिपूर और विशुध्द।

आज्ञा,अनाहत को समझ,साधक चक्कर शुध्द।।

श्वेत,रक्त और धूम्र है,नील विशुध्दि जाए।

सबके अलग स्वरुप है,आकाशी पहिचान।।

साधक नेत्र,पदानुष्ठ पर,स्थिर जब हो जाए।

चित्त-वृति एकाग्र हो, अंर्तमन हरषाए।।

पादप ऐड़ी -क्रिया से, मूलाधार दवाए।

क्रिया शक्ति हो जाग्रत,चित एकाग्र बनाए।।

गुह्याधार की क्रिया में,कर संकोच विकास।

प्राण अपान दोनों मिलत,होए सुसुम्ना भाष।।

शुक्रस्तम्भन क्रिया में,वीर्य ऊर्ध्व गति जान।

स्वतः चित एकाग्र हो,क्रिया शक्ति पहिचान।।

उड्डयान बंध पर चित्त जब,हो चैतन्य एकाग्र।

प्रणव मंत्र जप नाद ध्वनि,हो सकती तब जाग्र।।

ह्रदय कमल विकसित भय,ह्रदयाधारी योग।

बड़ जाती एकाग्रता,जब बनता संयोग।।

ठोड़ी नीचे स्वतः ही,लग जाता जब कंठ।

प्राण वायू स्थिर लहत,इड़ा-पिंगला संधि।।

खेचरि मुद्रा होए जब,क्षुद्र घंटिका धार।

कंठमूल में चित्त वृत्ति,टपके रस की धार।।

जिव्हा अग्र मंथन करै,दोहन खेचरि जान।

जिब्हा मूलाधार से,रस को पिए सुजान।।

जिव्हार्ध भागाधार में,मन एकाग्र कर मीत।

काव्य शक्ति का प्रस्फुटन,चातुर पाते जीत।।

एकादश में धारणा, ऊर्ध्व दंताधार।

योग साधना किए से,जीते सकल विकार।।

मन की चंचलता मिटै,अग्र भाग चित धार।

यौगी जन नित प्रति करै,नासिका अग्राधार।।

ज्योति दर्शन जब मिलै,चित स्थिर जब होए।

नासिका मूलाधार में,चिच साधना खोए।।

रवि समान ज्योति बने,सुचि प्रकाश अनुमान।

होए क्रिया आरंभ जब,भ्रू-मध्याधार का भान।।

इन्द्र धनुषी ज्योति अरु,होय बर्तुलाकार।

चित्त होता एकाग्र तब,ज्योति नेत्र आधार।।

जन्म जाल प्रतिभा जहाँ,बिन जप-तप आधार।

सिध्दि पाते सिध्दजन,करते चमत्कार।।

औषधि सेवन से कभी,मिलै सिध्दि का रुप।

साधन क्रिया कठिन है,विले पाए स्वरुप।।

मंत्र साधना भी बनै,सिध्दि का आधार।

क्रियाशील जन साधते,करके खेल अपार।।

शक्ति पाठ,उपवास,तप,करते है कुछ लोग।

पाते है कुछ सिध्दियाँ,चमत्कार संयोग।।