मेरा नाम अन्नपुर्णी है। S Bhagyam Sharma द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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मेरा नाम अन्नपुर्णी है।

तमिल कहानी उमा जानकी रामन

अनुवाद एस. भाग्यम शर्मा

बाहर से कुछ आवाज आई। मैंने सिर्फ थोड़ा सा सिर बाहर करके झांका तो देखा सास लक्ष्मी एक बडे थैले को लेकर आ रहीं थी। ऐ बात पन्द्रह दिन में एक बार होती रहती है। पति चन्द्रषेखर की तेज आवाज पीछे से सुनाई दी।

‘‘अम्मा आ रही है, अमुदा दौड़कर जाकर थैले को लेकर आओ।’’

‘‘मेरा नाम अमुदा नहीं अन्नपुर्णी है।’’ ऐसा जोर से बोलकर अपने को साबित करूं मुझे ऐसा लगा। परन्तु इस बीस से अधिक वर्षो में मेरे शब्द गले में फंस कर रह गए। और मैं गूगी ही रह गई व इस कष्ट को सिर्फ मैं ही जानती हूँ।

इस घर की रसोई की दीवारो पर मेरे मौन बौखलाइट व मेरे आँसू को देख सुनकर उन पर काई सी जम गई है। चन्द्रषेखर साल में एक बार बिना नागा सफेदी करा घर को नया कर देते है।

‘‘आज क्यो टिफिन बनाया है?’’

‘‘इडली और चटनी।’’

तुम्हें तो पता है अम्मा को इडली पंसद नहीं चावल का उपमा व कोस्सू (एक विषेष प्रकार का साइड डिंग ) बना दो।’’ होटल में जैसे आॅर्डर देते है ऐसा बोल कर मेरा पति पीछे की तरफ चला गया।

पीछे की तरफ आम के पेड़ की छाया के नीचे मां व बेटा दोनों बैठे हुए थे। अम्मा तिरूची व श्री रंगम की पडोस-पडोस की कहानियों को नमक मिर्च लगाकर राग वहीं पुराना अलाप रहीं थी। और बेटा ऊं. ऊं. कहता हुआ सुन रहा था।

शादी होने के बाद ही हम दोनों इनकी नौकरी के खातिर तजौर में आए। तब सासूमां ने कहाकि मै तिरूची मे ंही अपने निजी मकान में ही रहूंगी मैने तय कर लिया क्यो कि वे हमे परेषान करना नहीं चाहती थी। जब उन्होने ऐसा कहा तो मैं उनके उच्च विचार व बडप्पन देख चकित रह गई व मुझे ये बात अच्छी भी लगी। पूरे पन्द्रह दिनों मे ंएक बार यहां आकर चितगारी लगाकर लौट जाती हैं। उससे लगे आग के अंगारे जो फूटते है फिर मुष्किल से ठीक होेते है ऐसा ही है कि उसी समय फिर आकर वे फिर से दबी, चिनंगारियो के हवा देकर सुलगा देती हैं।

अम्मा के जाने मे नाम चन्द्रषेखर घोर गुस्से में चिडचिडोते हुए बात-बात पर लडाई करते रहते है। वे बोले ‘‘हुमं ......... अम्मा बहुत दूखी थी। तुम अम्मा के पास आराम से बैठ कर हँसी खुषी बात क्यों नहीं करती हो? और फिर तुम अपनी अम्मा से घंण्टों फोन पर बात करती रहती हो। वे बोली मुझे यहां आने के लिये भी सोचना पडता है?।’’ ऐसा कह कर गई थी अम्मा। तुम ऐसा क्यो करती हो?

इनकी अम्मा के बिच्छु के डंक मारने जैसी बातों को सुनकर, अब मैंने उनसे बात करना ही कर कर दिया। ये बात इन्हे मालुम होने के बाद भी ऐसे पूछने वाले को मै क्या जवाब दे सकती हूँ।

फिर भी मैं साधारण ढ़ग से बात शुरू करती हूँ। ‘‘ कितना भी कंरू तो भी कोंई न कोई कमी व गलती निकालने वालो से क्या बात कर सकती हूँ?, जो कहे चित भी मेरा पट भी मेरा अण्टी मेरे बाप का।’’

ऐसी बात से शुरू होकर बात बिना निर्णय के चलती रहती हे। आखीर में ये बात मेरी बेइज्जती करने के बाद ही खत्म होती है।

अम्मा के वापस जाने के बाद वे थोडा -थोडा करके मां ने जो चादर उड़ाई थी उससे हट् कर अपने स्वयं के अक्ल को इस्तेमाल करना शुरू करने लगते है।

जब वे लाड लडते हुआ मेरे पीछे-पीछे आते है तब बिना एसिड के ही मेरा शरीर बूरी तरह जलने लगता है।

ये क्या दोहरा रूप? जो लोग बहुत नीच व गुस्से वाले लोग होते है उन्हे भी सहन किया जा सकता है। परन्तु जो अम्मा के सामने एक रूप व अम्मा के पीछे दूसरा रूप? ये दोगले चेहरे लगाकर घुमने वालो को तो बांधकर पीटने का मन करता है।

पीछे की तरफ से कोई आवाज आई ‘‘उपमा बन गया क्या? प्लेट लगा दो। अम्मा को शुगर है। चक्कर आ जायेगा।’’

जल्दी से प्लेट व पानी निकालकर रखी।

एक समय था जब मैंने इन्हें अपने लायक बनाने के लिये बहुत मेहनत की। चावल के आटे से रंगोली बनाओ तो जिस तरह छोटी-छोटी चिटियां उसे खाने आ जाती है वैसे ही इनके आफिस से आते ही मैं इनके आगे पीछे घूमती रहती थी।

मन में प्रेम व प्यार लिये बडी उत्सुकता से इनकी प्रतीक्षा करती रहती थी। परन्तु इस महाषय के अस्थिरता वाले गुण ने मुझे इस दषा में एक पत्थर बनाकर छोड़ दिया।

‘मन हो तो यहां रहो वरना निकलों’ ऐसे शब्दों का प्रयोग अकसर मेरे लिये किये जाते।

जिसे सुन मेरे मन मे न केवल अजीब सा भय उत्पन्न होता वरन डर के मारे पेट के अन्दर भी कुछ कुछ अजीब सा होने लगता। मैं कुछ जबाब दिये बिना ही वहां से सरक जाती। वह ऐसी कौनसी बात थी जो मुझे इस आदमी से गोंद लगाकर चिपका रखा था? शादी के शुरू के दिना में उसके इन बातो को सोचने के लिए मुझे मजबूर किया। परन्तु घर वापस जाकर बैठंू व जिससे मेरी बहनांे के जीवन में प्रष्न चिन्ह खडे हो? ये मैं कैसे वरदास्त कर सकती थी।

ये मुझसे कैसे होगा? इस सन्तुष्टी के साथ, जो मिडिल क्लास का पिता एक लडकी को निपटा दिया ऐसा सोच रहा है वह आदमी जिस घर में अपनी बेटी को दिया है वहां बुराईयों को कैसे सुन सकता है?

‘‘अन्नपुर्णी नाम अब नहीं चाहिए............ मेरे दूर के रिष्तेदार का नाम अन्नपुर्णी हो उससे मेरी बिल्कुल नहीं बनती। अतः मैं तुम्हारा नाम बदलकर, अमुदा रख देती हूँ।’’ मेरी सास शादी हुए 24 घण्टे भी नहीं हुए ऐसा कहकर मेरी पहचान अत्रपुर्णी को ही मिटाकर मुझे आमुदा बना दिया।

‘‘अमुदा नाम भी तो अच्छा ही है ना?’’ मेरे पिता ने एक अजीब सी बेवकूफ हँसी हंस कर कहा वे मेरी अम्मा ने भी उसका समर्थन किया।

मिडिल क्लास के पिता अकसर इस नकली व बेवकूफ हंसी को एक रक्षा कवच के रूप में जब-तब इस्तेमाल करते रहते है।

पीछे की तरफ आम के पेड से एक कोयल पूर्व दिषा की ओर उड़ी।

‘‘अमुदा एक बढ़िया स्ट्रांग काॅफी बनाकर अम्मा के लिये ले आ।’’ फिर आदेष हुआ।

मेरी सास के आते ही हमारे मुहल्ले में रहने वाली बड़ी उम्र की औरते चार’-पांच आकर बाहर बरामदे मे ंउनके पास बैठ जाती है। फिर सासू जी ‘‘मैने अपने बेटे को कितने कष्ट उठाकर पढ़ाया लिखाया, पता है?’’ वाला राग अलापेगी। फिर अडोस-पडोस बेकार निठली औरतो को नई-नई झूठी-सच्ची कहानिया बना बनाकर बोलने लगेगी। वे उसे बडे चाव से सुनकर हामी भरेंगी।

‘‘ये मेरी बहू गरीब घर से आई हैं। अब देखो कैसे। शान से इतराती फिरती है।’’ सालो पहले मेरी बडी अम्मा की बेटी भाग कर कार्ट मेरिज कर ली थी अब अच्छी हैं। पर उसके बारे में तरह तरह की बातें बनायेगी।

मै काॅफी बना दें आई तो फोन की घण्टी बजी। उठाया तो मेरी इकलौती बेटी ‘श्रीमति’ की आवाज गंूजी जो कोयम्बतूर से बोल रहीं थी।

‘‘कैसे हो बेटी?’’

‘‘हु मैं ठीक हूँ मां सब लोग फाइन है। मां एक खुषी की बात है। अगले हफ्ते मैं अपने घर आकर तुम्हारे साथ एक हफ्ता रहूगी।’’

उसकी खुषी व अपने गम को कम करने के लिए ही उससे आधा घण्टा इधर-उधर की बाते का फिर ही फोन रखा।

श्रीमति की शादी हुए सिर्फ छः महीने ही हुए थे। दामाद सुरेष, श्रीमति को फूूल जैसे सम्भाल कर रखता है। यह बात मेरे मन को बहुत तसल्ली देती है।

मेे श्रीमति जब चलना सीख रही थी, फिर स्कूल जाने, लगी उन दिनों में मैने अपने पति से अलग होने के बारे में कई बार अनेकों उपायो के बारे में सोचा जरूर था। परन्तु यदि बेटी मुझझे पूछे ‘‘अप्पा कहां है।?’’ तो पिता को बताने का कर्तव्य तो मेरा है ना? मेरे अम्मा-अप्पा पर क्या बीतेगी ये ंसोच कर भी कई बार डरी भी हॅू। इस समाज के बारे में सोच बहुत धबराती व सहन न कर सकने वाले अपने उत्तेजना को समेट कर कूडे दान में फेक देती थी।

आफिस से घर आए चन्द्रषेखर को बेटी श्रीमति के फोन के बारे में बताया तो हमेषा की तरह यंत्र जैसे सिर ही हिला दिया।

पूरी रात मुझे नीदं नहीं आई। मां व बेटा दोनो मिलकर जोर-जोर से पूरी रात बाते करते रहें। कोयल की कूह... कूह..... की आवाज सुन सुबह जागी। कल रात के समय एक बढिया निर्णय ले लेने के लिए मैं अपने आप को धन्यवाद देने लगी। इस तंजौर के गुंड्डे (जो कि बिन पेंदे के लुढकता रहता है) जो सिर हिलाता रहता है उसने अलग होने में अब मेरे लिए कोई रूकावट नहीं होगी। इकलौती लड़की श्रीमति को शादी तो हो चुकी है।

अपने जीवन में मैं जाने क्या-क्या छोडा पर वीणा बजाने को मैने नही छोडा। यदि दस बच्चों को मै वीणा सिखाऊंगी तो भी, उससे एक छोटा सा पोर्षन किराये पर लेकर रसम चावल खाकर शान्ति से अपने जीवन यापन कर सकती थी हूँ ना।

‘‘अब मुझे अपने लिये जीना है। जीऊंगी सिर्फ अपने लिए.... सिर्फ अपने लिये... बस।’’

यह सुबह मुझे बड़ा शकून देने वाला बहुत अच्छा लगा। मैं बडी रूचि लेकर काॅफी पीना शुरू किया।

अगले आने वाले एक हफते में मैने अपने निर्णय को अधिक पक्का करने लगी। और अन्दर ही अन्दर बड़ा संतोष का अनुभव करने लगी।

श्रीमति आ गई। उसके साथ बडे मन्दिर में गई। मन्दिर खुला-खुला था। मैं उसे एक खुले चबुतरे पर बैठाकर बिना ज्यादा घुमा फिराये अपने लिये हुये निर्णय को उसे बताया।

‘‘श्रीमति पता नहीं कैसे-कैसे जीवन को मैने काटा। पर अब मैं केवल अपने लिये स्वतंत्र जीवन...... जीना चाहती हूूूॅ। अब ये इच्छा मुझमें आ गई व हिम्मत भी तुम मुझे अच्छी तरह से समझोगी। मना नहीं करोगी ऐसा सोचती हूँ।’’

श्रीमति भौचंक्की होकर मुझे ही देखने लगी। थोडी देर तक कुछ न बोली। उसकी में शान्ति मुझे डराने लगी। फिर और कहीं देखते हुये उसने बोलना शुरू किया।

‘‘अम्मा। अभी मुझे अपने ससुराल में इज्जत मिली हुई है। अपने परिवार को भी वे लोग इज्जत से देखते हैं अपने घर के लिये मेरे ससुराल वालो के मन में एक बडप्पन हे। इतने उम्र के बाद तुम अप्पा से अलग होगी?...... सोचने में ही बडा अजीब सा लग रहा है। सब लोग कैसी-कैसी बात करेगेउन सब बातो को सुनने को शक्ति सचमुच मुझझे नहीं है मां।’’

‘‘प्लीस अम्मा..... कोई भी गलत निर्णय मत लो। तुम्हारा घर में रहना ही सब लोगों के लिये अच्छा है। तब ही मैं व मेरे पति भी यहां आ जा सकते है।’’

मेरी ही लड़की अपनी आँखे मुझझे मिलाने की हिम्मत नहीं कर रही है। व मेरे निर्णय को गुड-गोबर करती बोली ‘‘बहुत थकावट हो रही है अम्मा  .........चलो, घर चले।’’ कह कर उठ गई।

बड़े ही उम्मीद व उत्साह के साथ जो तूफान मेरे मन में उठा वह वैसे ही दब गया ठाय-ठाय फिस हो गया व आँसुओं की बाढ़ आ गई।

कितना तो सब के लिये कर दिया। अब अपनी लड़की के लिए ये भी कर दूॅ तो क्या हुआ?

सुबह हुई। एक काली कोयल कूह....कूह.... करती हुई उड़ गई। बाहर कुछ हलचल हुई। देखा तो एक बडा थैला उठाये सास लक्ष्मी आ रही थी।

मेरा पति ऊची आवाज में चीखकर बोला ‘‘अमुदा! अम्मा आ रहीं है। देखो दौड़ कर जाकर थैले को ले कर आओ।’’ ‘‘मेरा नाम अमुदा नहीं, अन्नपुर्णी है।’’ जोर से चिल्लाकर साबित करने की इच्छा हुई।

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एस. भाग्यम शर्मा 

बी-41, सेठी काॅलोनी, जयपुर-4